ब्लॉग

अंग्रेजों ने ही रची थी भारत को तोड़ने की साजिश

 

 

-जयसिंह रावत
विश्व के इतिहास में 1947 का वर्ष दो नये सम्प्रभु राष्ट्रों के जन्म और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के उदय के लिये तो सदैव याद रहेगा ही, लेकिन इस ऐतिहासिक वर्ष के सुनहरे इतिहास के पन्नों के साथ एक ऐसा काला पन्ना भी जुड़ा जिसमें अब तक के सबसे बड़े मानव पलायन और भयंकर दंगों में मारे गये लाखों लोगों के खून के छींटे तथा बेसहारा विधवाओं और अनाथों की सिसकियां भी जुड़ी हुयी हैं। इसीलिये आजादी के 74 साल बाद सवाल आज भी खड़ा है कि आखिर देश के विभाजन के लिये जिम्मेदार कौन था। जिसके कारण देश भी टूटा और लाखों लोगों की जाने गयीं तथा लाखों परिवार शरणार्थी हो गये।

बंटवारे की अपनी-अपनी थ्योरियां देश के बंटवारे के लिये अलग-अलग पक्ष अपनी सुविधानुसार घटनाक्रम का विश्लेषण करते रहे हैं। बंटवारे के लिये मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा, कांगे्रस और अंग्रेजी हुकूमत को दोषी ठहराया जाता रहा है। सोशियल मीडिया पर तो सुनियोजित तरीके से नेहरू के साथ ही महात्मा गांधी को भी घसीटा जाता रहा। सावरकर के अनुयायी तक नेहरू को दोष देते रहे। जबकि पाकिस्तानी मूल के प्रोफेसर इश्तियाक अहमद जैसे इतिहासकार ऐसे भी हैं जो कि इस बंटवारे के लिये सीधे तौर पर ब्रिटिश हुकूमत को जिम्मेदार मानते हैं और कहते हैं कि जिन्ना और मुस्लिम लीग तो अंग्रेजों के टूल मात्र थे तथा हिन्दू और मुस्लिम कट्टरपंथी, अंग्रेजों का मिशन आसान कर रहे थे। सत्ता हस्तान्तरण में जल्दबाजी को भी दंगों के लिये जिम्मेदार ठहराया गया है। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि जब भारत का विभाजन अवश्यंभावी हो गया था तो भी दंगों में इतना बड़ा नरसंहार टाला जा सकता था। भारत एक साल पहले आजाद हो गया
सैन्य इतिहासकार वार्ने ह्वाइट स्पनर ने अपनी पुस्तक द स्टोरी आॅफ इण्डियन इंडिपेंडेंस एण्ड क्रियेशन आॅफ पाकिस्तान इन 1947 में लिखा है कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने 20 फरबरी 1947को हाउस आॅफ कामन्स में बयान दिया था कि ब्रिटेन जून 1948 तक भारत छोड़ देगा और माउंटबेटन फील्ड र्माशल आर्चिबाल्ड वावेल से वायसराय की जिम्मेदारी संभालेंगे। वावेल को 31 जनवरी 1947 को ही एटली की ओर से मार्चिंग आर्डर मिल चुका था। लेकिन वायसराय माउंटबेटन ने बिना तैयारी के समय पूर्व ही 3 जून 1947 को कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं के साथ एक साझा प्रेस कान्फ्रेंस में भारत की आजादी की घोषणा कर दी। स्पनर के अनुसार नेहरू को विश्वास नहीं था कि भारत में धर्म का इतना बोलबाला है। जिन्ना पंजाब को नहीं समझते थे। माउंटबेटन शायद ही भारत को जानते थे। बहरहाल 15 अगस्त 1947 की आधी रात को भारत और पाकिस्तान कानूनी तौर पर दो स्वतंत्र राष्ट्र बन गये। इस तरह पश्चिमी पंजाब के मुस्लिम बहुल 12 जिले तथा पूर्वी बंगाल के 16 जिले पाकिस्तान को दिये गये। मगर बंटवारे के बाद हुये इतिहास के सबसे बड़े मानव पलायन और लाखों लोगों के संहार की बेहद कड़ुवी यादें खुशी के पलों की स्मृतियों का पीछा शायद ही कभी छोड़ेंगी। एक अनुमान के अनुसार इन दंगों में 10 लाख से लेकर 15 लाख के बीच लोग मारे गये थे।

Photo from Social Media

अंग्रेज पहले जाते तो बंटवारा नहीं होता
सैन्य इतिहासकार वार्ने ह्वाइट स्पनर के अनुसार प्रथम विश्वयुद्ध में भारत के असाधारण योगदान के बदले ब्रिटिश हुकूमत को 1919 में भी भारत को सुपुर्द कर देना चाहिये था। तब भारत के बंटवारे की बात नहीं आती। दूसरा मौका अंग्रेजों ने 1935 में भारत सरकार अधिनियम लागू करते समय गंवाया। उस समय भी पाकिस्तान की मांग ने जोर नहीं पकड़ा था। 1947 तक तो ब्रिटेन का नियंत्रण बहुत ढीला हो गया था।
रूस को दूर रखने के लिये किया विभाजन
स्टाॅकहोम विश्वविद्यालय में पाकिस्तानी मूल के राजनीति विज्ञान के फोफेसर इमैरिटस प्रोफेसर इस्तियाक अहमद का मानना है कि सोवियत यूनियन को दक्षिण ऐशिया से दूर रखने के लिये ही ब्रिटेन ने भारत का विभाजन कराया था। क्योंकि उनको मोहम्मद अली जिन्ना जैसा एक कठपुतली शासक चाहिये था और ऐसी अपेक्षा उनको नेहरू से कतई नहीं थी। ब्रिटेन की चाल का फायदा बाद में अमेरिका उठाता रहा। प्रोफेसर इस्तियाक ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘‘पाकिस्तान अ गैरिजन स्टेट’’ में भारत के विभाजन के घटनाक्रम और उन तमाम परिस्थ्तिियों का विस्तार से वर्णन किया है।

बंटवारे की शुरुआत 1905 में कर दी थी
इतिहासकार मानते हैं कि सन् 1905 में धर्म के आधार पर बंगाल का बंटवारा कर अंग्रेजों ने भारत के विभाजन की बुनियाद रख दी थी। उसके बाद 1909 में इंडियन काउंसिल एक्ट में केन्द्रीय और प्रान्तीय एसेम्बलियों में मुसलमानों के लिये अलग निर्वाचक मण्डल की व्यवस्था कर अंग्रेजों ने अलगाव की राह और स्पष्ट कर दी थी। इस एक्ट का कांग्रेस ने विरोध किया था। बाद में यही ऐक्ट कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच 1916 के लखनऊ समझौते का आधार बना जिसमें अल्पसंख्यकों के लिये प्रान्तीय एसेम्बलियों में एक तिहाई आरक्षण के बदले मुस्लिम लीग कांग्रेस के स्वशासन के आन्दोलन में शरीक हुयी।
मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा बंटवारे के दोषी
देखा जाय तो भारत के बंटवारे के लिये हिन्दू और मुस्लिम कट्टरपंथियों की बराबर भूमिका थी और अंग्रेजों ने कांग्रेस के खिलाफ इन दोनों को बढ़ावा दिया क्योंकि वे उनसे नहीं लड़ रहे थे, जबकि 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान लगभग सभी बड़े कांग्रेसी नेताओं को जेल में डाल दिया गया था। ऐसे में लीगी-महासभाई तत्व मजहबी जुनून से बंटवारे की जमीन तैयार करते रहे। मौलाना आजाद और खान अब्दुल गफ्फार खान विभाजन के सबसे बड़े विरोधी थे। उनके अलावा इमारत-ए-शरिया के मौलाना सज्जाद, मौलाना हाफिज-उर-रहमान, तुफैल अहमद मंगलौरी जैसे कई नेताओं ने मुस्लिम लीग की विभाजनकारी राजनीति का विरोध किया था। देवबंद स्थित इस्लामिक बुद्धिजीवियों का बहुमत और जमाते-उलेमा-ए हिन्द भी विभाजन के खिलाफ था।
बंटवारे को लेकर सावरकर भी जिन्ना के साथ
कट्टरपंथियों ने माहौल इतना बिगाड़ दिया था कि ‘‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’’ गीत के रचियता मोहमद इकबाल भी 1930 तक मुसलमानों के लिये अलग देश की मांग करने लगे। सबसे पहले 1933 में आयोजित तीसरे गोलमेज सम्मेलन में रहमत अली ने मुस्लिमों के लिये अलग देश का जिक्र किया था। इधर सन् 1933 में अहमदाबाद में आयोजित हिन्दू महासभा के सम्मेलन में विनायक दामोदर सावरकर ने हिन्दू और मुस्लिम दो अलग राष्ट्रों की मांग उठाई थी। सन् 1945 में सावरकर ने पुनः कहा कि दो राष्ट्रों के मुद्दे पर उनका जिन्ना के साथ कोई मतभेद नहीं है। यद्यपि एम.एस. गोलवरकर ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘‘बंच आॅफ थाॅट्स’’ 1966 में लिखी मगर हिन्दू राष्ट्र के बारे में उनकी भावना सावरकर जैसी ही थी।

Photo from Social Media

सेना के जनरलों ने भी चाहा भारत को तोड़ना
प्रो0 इस्तियाक कहते हैं कि बर्तानियां का इरादा हिन्दुस्तान को 1977 तक काबू में रखने का था। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध में हिटलर की हार के साथ ही ब्रिटेन को भी भारी नुकसाान उठाना पड़ा। उस समय अमेरिका पश्चिमी देशों में उगता सूरज जैसा था और राष्ट्रपति फ्रेंकलिन रूजवेल्ट भारत की आजादी के पक्ष में थे। लगभग 1946 तक ब्रिटेन चाहता था कि भारतीय-ब्रिटिश सेना अक्षुण रहे ताकि अंग्रेज उस सेना का जब चाहे इस्तेमाल कर सकें। इसी दौरान सेना में मौंटगोमरी जैसे शीर्ष जनरलों ने विभाजन के लिये षढ़यंत्र के तहत मई 1947 में एक मोमोरेण्डम तैयार किया जिसमें कहा गया कि देश का विभाजन हितकारी है, क्योंकि मिस्टर जिन्ना काॅमनवेल्थ में शामिल होने के इच्छुक हैं। हमें जिन्ना से मांग करनी चाहिये कि करांची बंदरगाह की सुविधा, सैन्य हवाई अड्डे और वहां की सेना ब्रिटेन को मिले।
नेहरू पर अंग्रेजों के काम नहीं आ सकते थे
इस्तियाक के अनुसार नेहरू का झुकाव कम्युनिस्ट सोवियत संघ की ओर था इसलिये अंग्रेज उन पर भरोसा नहीं करते थे। ऐसे में हिन्दुस्तान का विभाजन उन्हें अपने लिये अनुकूल लगा। दूसरे विश्व युद्ध में सोवियत संघ के सहयोगी होने के बावजूद ब्रिटेन सदैव कम्युनिस्टों के खिलाफ था और वह कम्युनिस्ट ब्लाक के आगे पाकिस्तान के रूप में बफर जोन चाहता था। उनको डर था कि रूस अरब सागर की ओर आयेगा। रूसी क्रांति के बाद पश्चिमी देशों के लिये अन्तर्राष्ट्रीय कम्युनिज्म का खतरा उत्पन्न हो गया। उन्होंने पाकिस्तान के जरिये ही अफगान जेहाद कराया। बाद में ब्रिटेन की जगह अमेरिका ने अफगान जेहाद के खिलाफ पाकिस्तान का इस्तेमाल किया।
अंग्रेजों का रेड कारपेट जिन्ना के लिये
इश्तियाक के अनुसार 1940 में मुस्लिम लीग के रिजोल्यूशन पास होने से ठीक एक दिन पहले 27 मार्च को जिन्ना ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था कि ‘‘अब तक अंग्रेज मेरी उपेक्षा करते रहे मगर अब वे मेरे लिये रेड कारपेट बिछा रहे हैं, इसलिये अब हम अपनी मुस्लिम राष्ट्र की मांग रखेंगे।’’ उसके बाद यह मांग मुस्लिम लीग के ऐजेण्डे के केन्द्र में आते ही अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग को कांग्रेस के खिलाफ इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। आजादी की लड़ाई में बिना कुछ किये ही मुस्लिम लीग को देश के रूप में तोहफा मिलने का मकसद समझा जा सकता है। उसके बाद अमेरिका ने 1958 से सैन्य सहायता के साथ ही पाकिस्तान का इस्तेमाल करना शुरू किया।।
पंजाब बंटा, लोग मूली गाजर जैसे कटे
दरअसल असली विभाजन तो पंजाब का हुआ था, जहां सर्वाधिक मारकाट हुयी थी और 5 लाख की नफरी वाली सेना बेकार खड़ी रही। स्पनर के अनुसार अगर पंजाब में सही पुलिसिंग होती तो इतना नरसंहार रोका जा सकता था। लाहौर रावलपिण्डी जैसे क्षेत्रों में समय से सेना नहीं भेजी गयी। वहां अगर स्थानीय सैनिकों के बजाय ब्रिटिश और गोरखा सैनिक भेजे जाते तो हालात जल्दी काबू में आ जाते। इश्तियाक अपनी पुस्तक ‘‘पंजाब ब्लडीड’’ में कहते हैं कि अंग्रेज भी खूनखराबा चाहते थे ताकि लगभग 13 सौ सालों तक साथ रहने वाले हिन्दू मुसलमान एक साथ न रह सकंे। पिण्डी शहर के नजदीक ही दंगा पीड़ित गांव थे जहां 6 मार्च से दंगे शुरू हो गये थे लेकिन 13 मार्च को वहां सेना भेजी गयी जिसमें डोगरे अधिक थे।

जयसिंह रावत
रंलेपदहीतंूंज/हउंपसण्बवउ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!