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उत्तराखण्ड: उजड़ते खेत, सूने खलिहान और खिसकते किसान

  • खेतों में उग गये जंगल-झाड़ियां
  • लाखों हेक्टेअर जमीन से खेती गायब  
  • उत्तराखण्ड का अनाज तिब्बत को भी पालता था
  • अपरदन से घटा कृषि उत्पादन

   –जयसिंह रावत

गावों के भारत की तरह ही देश का एक हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड भी गावों का ही प्रदेश है जिसकी 70 प्रतिशत आबादी बड़े पैमाने पर पलायन के बावजूद अब भी पहाड़ी गावों में निवास करती है। देश की ही तरह यह प्रदेश भी कृषि प्रधान तो है मगर इसकी परिस्थितियां देश के अन्य हिस्सों से भिन्न इसलिये हैं कि इस कृषि प्रधान राज्य के अधिकांश कृषकों की रोजी तो खेती से चलती नहीं है मगर वे अपने खेतों से कुछ महीनों की रोटी का भी इंतजाम नहीं कर पाते हैं। इसका कारण यह कि एक तो यहां कृषि योग्य भूमि देश के अन्य हिस्सों की तुलना में बहुत कम है और जो कुछ है भी वह अपरदन के कारण अनुपजाऊ हो चुकी है। भूमि सुधार की बात सोची भी नहीं जाती है और ऊपर से वन्यजीवों का आतंक ऐसा कि न तो खेती सुरक्षित और न ही खेती करने वाले सुरक्षित हैं। ऐसी परिस्थितियों में पहाड़ के कास्तकार अपने खेत खलिहान छोड़ कर मैदान में आसरा न ढूंढे ंतो क्या करें? राज्य के मैदानी जिलों की जमीन उपजाऊ तो अवश्य है लेकिन उस पर जनसंख्या का दबाव बढ़ने के कारण एक तो उसकी उर्वरकता घट रही है और ऊपर से आबादी की आवासीय  और विकास की जरूरतों को पूरा करने के लिये खेतों में फसल की जगह तेजी से ईंट-कंकरीट के जंगल उग रह रहे हैं।

 

लाखों हेक्टेअर जमीन से खेती गायब

पूरे भारत की ही तरह उत्तराखण्ड की भी 70 प्रतिशत आबादी गावों में निवास करती है। लेकिन आबादी के इतने बड़े हिस्से के लिये केवल 14 प्रतिशत जमीन ही आजीविका और आवास के लिये उपलब्ध है। जबकि देश की 70 प्रतिशत ग्रामीण आबादी के लिये लगभग 42.57 प्रतिशत जमीन खेती बाड़ी के लिये बची हुयी है। राज्य में 7.7 लाख हेक्टेयर पर कृषि होती थी। अब यह घटकर वर्ष 2020 में 6.48 लाख हेक्टेयर तक सिमट गई। यानी अब तक राज्य में 1.22 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि लोगों के हाथ से निकल गई है। झबरेड़ा के विधायक देशराज कर्णवाल द्वारा 6 मार्च 2020 को पूछे गये एक प्रश्न के उत्तर में कृषिमंत्री सुबोध उनियाल का जवाब था कि राज्य के पहाड़ी क्षेत्र में 2017-18 तक मात्र 4,92,643 हेक्टेअर कृषि भूमि शेष रह गयी है। राज्य गठन के समय तक हरिद्वार को छोड़ कर पहाड़ी जिलों में लगभग 7.02 लाख हेक्टेअर कृषिभूमि थी। दरअसल बहुत तेजी से हो रहे पलायन के कारण भी पहाड़ी खेतों में अनाज की जगह झाड़ियां और जंगल उग रहे हैं। पहाड़ ही क्यों हरिद्वार और उधमसिंहनगर में भी कृषिभूमि सिकुड़ रही है। सूचना के अधिकार के तहत मिली एक सूचना के अनुसार 2001 से लेकर 2012 तक 4231 हेक्टेअर कृषि क्षेत्र घट गया था। इसी प्रकर नैनीताल में 1917 हेक्टेअर कृषिभूमि घट गयी थी।

खेतों में उग गये जंगल-झाड़ियां

इस हाल में मजबूर पहाड़वासी पिछले 20 सालों में पहाड़ से पलायन कर लगभग 1 लाख हेक्टेअर से अधिक कृषिभूमि त्याग चुके हैं और उन खेतों में रबी या खरीफ की फसलों की जगह झाड़ियां और जंगल उग आये हैं। ये झाड़िया और जंगल गावों के करीब आते गये तो बंदर, भालू और गुलदार जैसे वन्यजीव भी गावों के करीब पहुंच गये। एक तो पहाड़ी खेती अनुपजाऊ और ऊपर से वन्य जीवों के आतंक ने वहां बचे खुचे लोगों का जीना दूभर कर दिया। पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड से पिछले एक दशक में 5 लाख 2 हजार 707 लोग पलायन कर गए हैं। इनमें 1 लाख 18 हजार 981 लोग स्थायी रूप से घरबार छोड़ चुके हैं। उत्तराखण्ड में पलायन की दर 36.6 प्रतिशत मानी गयी है जो कि हिमालयी राज्यों में सर्वाधिक है।

उत्तराखण्ड का अनाज तिब्बत को भी पालता था

एक जमाना था जबकि उत्तराखण्ड का तिब्बत के साथ वस्तु विनिमय व्यापार (बार्टर सिस्टम) चलता था। सीमान्तवासी भोटिया जनजाति के लोग यहां से तिब्बत के लिये गेंहूं, चावल जैसे अनाज ले कर जाते थे और बदले में वहां से ऊन, नमक और अन्य वस्तुऐं आती थीं। इस तरह तिब्बत उत्तराखण्ड के अनाज पर पलता था। इसी तरह जब गंग नहर नहीं थी तो आज के पश्चिमी उत्तर प्रदेश की शक्ल ही कुछ और थी। वह हरित क्षेत्र तो कतई नहीं कहलाता था। इस हरित प्रदेश के लिये भी अनाज उत्तराखण्ड के पहाड़ों से ही जाता था। पहाड़ों की मण्डियां श्रीनगर गढ़वाल, दुगड्डा, रामनगर आदि स्थानों पर थीं। पहाड़ के लोग सेकड़ों मील तक पीठ में अपना अनाज ढोकर इन मडियों में लाते थे और बदले में गुड़, नमक, कपड़ा और कृषि उपयोग के उपकरण लेकर गांव लौटते थे। इन लोगों को ढाकरी कहा जाता था। आज ये हरित प्रदेश और तराई के खेत न हों तो पहाड़ के लोग भूखे रह जायेंगे। ई0टी0 एटकिंसन के हिमालयी गजेटियर में तिब्बत और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिये पहाड़ का अनाज पहुंचाने वाली इन मण्डियों का उल्लेख है। आखिर आज अनाज के विपणन का यह चक्र उल्टा कैसे घूम गया? इस पर न तो उत्तर प्रदेश की की सरकार ने और न ही लखनऊ से देहरादून पहुंची सरकार ने कभी गौर फरमाने का कष्ट किया।

अंग्रेजों ने 1871 में खोला राजस्व, कृषि एवं वाणिज्य

उत्तराखण्ड की भौगोलिक विविधता सर्वविदित है। समुद्रतल से 100 मीटर से लेकर उच्च हिमालयी क्षेत्र में 4 हजार मीटर की ऊंचाई तक यहां बसागतें हैं। इनमें से कुछ गांव तो वर्फ पिघलने के बाद गर्मियों की बसागत के हैं। फिर भी तराई से लेकर उच्च हिमालयी क्षेत्र की कृषि के लिये तो यहां एक ही कृषि नीति और एक ही तंत्र है जबकि उस भूमि के उपयोग और प्रबंधन की ऐसी अराजक स्थिति है जैसी कि शायद ही अन्यत्र कहीं हो। उत्तराखण्ड पहले उत्तर प्रदेश में था और वह प्रदेश आजादी से पूर्व संयुक्त प्रान्त और उससे भी पहले नार्थ वेस्टर्न प्राविंसेज ऑफ आगरा एण्ड अवध के नाम से था। उससे भी पहले उस प्रदेश का स्वरूप कुछ भिन्न था। बहरहाल जब 1871 में खेतीबाड़ी के प्रबंधन और लगान के लिये अंग्रेजों ने एक विभाग खोला तो उसका नाम राजस्व, कृषि एवं वाणिज्य रख दिया। जाहिर है कि कृषि सम्बन्धी सारे काम उस समय एक ही छत के नीचे या खिड़की से होते थे। उत्तराखण्ड में आज खेत तो राजस्व विभाग या राजस्व मंत्री के पास होता है तो खेती के लिये अलग से विभाग और कृषिमंत्री होता है। इसी प्रकार कृषि उपज विपणन और सिंचाई जैसे विभाग किसी और के पास होते हैं। उसी खेत पर उंगने वाली सब्जियों का विभाग और मंत्री कोई और है तो बागवानी का कोई और ही है। ऐसे भी मौके आते हैं जबकि बगीचे किसी मंत्री के पास तो फल विपणन और प्रोसेसिंग का मंत्री कोई और होता है। ऐसी अराजक स्थिति में बेहतर कृषि या कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिये भूमि सुधार या बेहतर भूमि प्रबंधन की उपेक्षा कैसे की जा सकती है। सन् साठ के दशक के बाद भूमि बन्दोबस्त न होने के कारण सरकार के पास जमीनों का असली डाटा तक नहीं है।

अपरदन से घटा कृषि उत्पादन

प्राकृतिक आपदाओं और अपरदन आदि से पहाड़ में अब नाममात्र की ही खेती रह गयी है। वर्ष 2016-17 के सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो पहाड़ी जिलों में जहां रबी की फसल में अनाजों का प्रति हेक्टेअर उत्पादन 13.38 कुंतल है वहीं देहरादून, हरिद्वार और उधमसिंहनगर जिलों में यह उत्पादन 37.93 कुंतल प्रति हेक्टेअर है। एक अन्य आंकड़े के अनुसार इसी प्रकार खरीफ में खाद्यान्न उत्पादन पहाड़ी जिलों में 12.49 कुंतल प्रति हेक्टेअर है तो वही उत्पादन मैदानी जिलों में 22.77 कुंतल प्रति हेक्टेअर है। ये आंकड़े पहाड़ी खेती की असली तस्बीर बयां करने के लिये काफी हैं। राज्य का 84.37 प्रतिशत हिस्सा पहाड़ी और 15.63 प्रतिशत हिस्सा मैदानी है। इस छोटे से मैदानी भूभाग पर प्रदेश की 52 प्रतिशत जनसंख्या का दबाव पड़ रहा है। इसलिये देहरादून के जैसे विश्व प्रसिद्ध बासमती के खेतों में कंकरीट-ईंट के जंगल उग आये हैं। पहाड़ों में 89 प्रतिशत जोतें आधा हैक्टेअर से कम हो गयी है। जो छोटे-छोटे खेत हैं भी वे इतने बिखरे हुये हैं कि उनमें भूमि सुधार की भी गुजाइश नहीं है।

वनों की हदबंदी से घिरा कृषि व्यवसाय

सन् 1893 में जब ब्रिटिश शासन ने सुनियोजित वानिकी के इरादे से गावों की हदबदी कर वनों पर स्थानीय लोगों के असीमित अधिकार सीमित कर दिये तो उसी के बाद निजी भूमि तय हुयी। उससे पहले पहाड़ों में लोग किसी भी वन क्षेत्र में अपनी सहूलियत के हिसाब से खेती कर लेते थे। लेकिन जब नया कानून आ गया तो उनकी खेती एक सीमित दायरे में सिमट गयी। उसके बाद साल दर साल एक ही खेत पर बार-बार खेती करने से उर्वरकता तो घटनी ही थी लेकिन सीढ़ीदार ढालू खेतों पर बार-बार हल जोतने और बरसात में उस उपजाऊ मिट्टी के बहते जाने से पहाड़ के खेत बांझ होते गये। ऐसा माना जाता है कि कुदरत को एक इंच उपजाऊ मिट्टी की परत बनाने में 1 हजार साल लग जाते हैं। इस तरह हजारों सालों की कुदरत की मेहनत भूक्षरण से बेकार होती गयी और पहाड़ का किसान जैविक खाद अपने खेतों में डालता गया और उर्वरकता गंगा के मैदान की बढ़ती गयी। इसी अपरदन की समस्या के चलते 30 डिग्री से अधिक ढलान वाली भूमि पर खेती के लिये उपयुक्त नहीं मानी जाती है।

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