उत्तराखंड के प्राचीन छापेखाने जो इतिहास में गुम हो गये

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-by Usha Rawat

विज्ञान और प्रोडयोगिकी के उत्कर्ष के युग में भले ही  छापेखान याने कि प्रिंटिंग प्रेस लुप्त और अप्रासंगिक होते जा रहे हैं  लेकिन एक जमाने में छापेखान  विचारों का उत्पादन कर प्रसारित करते थे जिससे समाज जागृत होता था। स्वाधीनता आंदोलन में भी छापेखानों की अहम्  भूमिका रही।

उत्तराखंड में जिस तरह समाचार पत्र/ पत्रिकाओं का एक शानदार उल्लेखनीय इतिहास रहा उसी तरह प्रिंटिंग प्रेस या छापेखानो का भी इतिहास है। उत्तराखंड सेन छापेखान सबसे पहले मसूरी में अंग्रेजों द्वारा लगाए गये। देहरादून में स्थापित गढ़वाली प्रेस में बम्बई और लाहौर तक के पत्र छपने आते थे। पौड़ी में अनुसूय प्रसाद बहुगुणा ने स्वर्गभूमि प्रेस लगाया था। 20वी सदी में लैंसडौन कालेश्वर प्रेस खुला था जिसमे स्वतंत्रता सेनानी अख़बार “कर्मभूमि” का प्रकाशन शुरु हुआ। दुगड्डा में भी स्टावेल प्रेस खुला जहाँ गढ़वाल की हिन्दी पत्रकारिता के पितामह गिरजा दत्त नैथानी ने अपने अख़बार के कुछ अंक छापे थे। 19वी सदी में मसूरी में हिमालय ग्रैंड और मफेसिलाइट जैसे प्रेस थे।  एफ आर  आई का प्रेस प्राचीन माना जाता है।

यहाँ हम कुमाऊ मंडल के पहले प्रेस का उल्लेख कर रहे हैँ। सन 1893-94 में बाबू देवीदस ने  “कुमाऊं प्रिंटिंग प्रेस” खोला, जिसने ” कुर्मांचल समाचार” नामक साप्ताहिक प्रकाशित किया। कुमाऊँ प्रिंटिंग से एक अन्य साप्ताहिक “कुर्मांचल मित्र” भी प्रकाशित हुआ करता थाए लेकिन कुछ समय बाद इसे रोक दिया गया था।

अल्मोड़ा में सबसे पहले प्रेस खोलने और अख़बार प्रकाशित करने का श्रेय पंडित बुद्बिबल्लभ पंत को दिया जाता है।  उन्होने 1871 में  एक डिबेटिंग क्लब की स्थापना की जिससे एक बौद्धिक वर्ग उभरा। बाद में श्री पंत ने यहां एक प्रेस खोला और एक साप्ताहिक पत्रिका “अल्मोड़ा अखबार” भी प्रकाशित किया। पहले वह खुद इसे संपादित करते थे लेकिन बाद में यह काम मुन्शी सदानंद सनवाल ने संभाला। अल्मोड़ा अखबार इस प्रांत की सबसे पुराना हिंदी साप्ताहिक था।

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