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लैंसडाउन शहर इतिहास सिखाता है ।

 

  • डी. के. बुडाकोटी

जब भी मैं अपने किसी मित्र या सहकर्मी के साथ अपने गृहनगर लैंसडाउन जाता हूँ, तो उनका पहला सवाल यही होता है कि इस शहर का नाम लैंसडाउन कैसे पड़ा। संभवतः वे लोग, जिन्होंने मेरे साथ यात्रा की, भारतीय इतिहास—विशेषकर ब्रिटिश काल—का गहराई से अध्ययन नहीं करते।

अधिकतर लोगों ने हेस्टिंग्स, वेलेज़ली, कॉर्नवालिस, डलहौज़ी, मिंटो और माउंटबेटन जैसे प्रसिद्ध नाम अवश्य पढ़े या सुने होंगे, लेकिन लॉर्ड लैंसडाउन का नाम शायद ही किसी ने सुना हो। इसलिए मुझे बार-बार बताना पड़ता है कि लॉर्ड हेनरी चार्ल्स कीथ पेटी-फिट्ज़मॉरिस, पाँचवे मार्क्वेस ऑफ लैंसडाउन, 1888 से 1894 तक भारत के वायसराय रहे और उन्हीं के कार्यकाल में यह शहर बसाया गया। इसी कारण इसका नाम लैंसडाउन पड़ा।

इसके बाद अगला स्वाभाविक प्रश्न होता है—इससे पहले इस स्थान का क्या नाम था और यह शहर किस प्रकार अस्तित्व में आया। इसका उत्तर देने के लिए सैन्य इतिहास, विशेषकर गढ़वाल राइफल्स का इतिहास जानना आवश्यक है। तब मैं बताता हूँ कि गढ़वाल राइफल्स 1887 में अल्मोड़ा में गठित की गई थी और उसी वर्ष इसे कालूडांडा में स्थानांतरित किया गया, जो इस शहर का पुराना नाम था।

मैं बिना पूछे ही यह भी जोड़ देता हूँ कि ‘कालूडांडा’ शब्द गढ़वाली बोली से आया है, जहाँ ‘कालू’ का अर्थ है काला और ‘डांडा’ का अर्थ है जंगल। यह नाम सुनकर आज के बच्चों को “ब्लैक फॉरेस्ट” नामक पेस्ट्री की याद भी आ सकती है!

यहीं एक मेनवेयरिंग रोड और एक बाग भी है, जिनका नाम कर्नल ई. पी. मेनवेयरिंग के नाम पर रखा गया। उन्होंने गढ़वाल राइफल्स की पहली बटालियन का गठन किया और रेजिमेंट की नींव रखी। सितंबर 1890 में ही कालूडांडा का नाम बदलकर आधिकारिक रूप से लैंसडाउन रखा गया।

गढ़वाल रेजिमेंट की स्थापना उस समय के भारत के कमांडर-इन-चीफ फील्ड मार्शल सर एफ. एस. रॉबर्ट्स की सिफारिश पर हुई थी। मैं अपने मित्रों को यह भी बताता हूँ कि इस निर्णय में सुबेदार बल भद्र सिंह की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। उन्होंने फील्ड मार्शल के ए.डी.सी. के रूप में कार्य करते हुए गढ़वाली लोगों के लिए एक अलग रेजिमेंट बनाने की अनुशंसा करवाई थी।

साथ आए बच्चों को मैं यह भी समझाता हूँ कि ‘वायसराय’ शब्द लैटिन उपसर्ग Vice (अर्थात “के स्थान पर”) और फ्रेंच शब्द Roi (अर्थात “राजा”) से मिलकर बना है। इस प्रकार वायसराय वह शाही अधिकारी होता था जो ब्रिटिश सम्राट का प्रतिनिधि बनकर किसी देश का प्रमुख होता था।

लैंसडाउन की कई सड़कों के नाम उन ऐतिहासिक व्यक्तियों पर रखे गए हैं जिन्होंने देश या इस क्षेत्र के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। ग्रिफ़िथ, व्हीटल, किचनर, मेनवेयरिंग, चैनर, कैसग्रेन, रैमसे और हचिसन जैसी हस्तियों के नाम पर सड़कें आज भी मौजूद हैं। इन सभी का भारतीय सेना या सिविल प्रशासन में विशिष्ट योगदान रहा है।

हेनरी रैमसे पहले असिस्टेंट कमिश्नर रहे और बाद में 28 वर्षों तक ब्रिटिश गढ़वाल व कुमाऊँ के कमिश्नर रहे। उन्होंने पर्वतीय क्षेत्रों के प्रशासन व विकास में ऐतिहासिक योगदान दिया। इसी प्रकार यहाँ की कई सैन्य बैरक लाइनों के नाम भी इतिहास की झलक दिखाते हैं। उदाहरणस्वरूप, एवेट लाइन्स का नाम जे. टी. एवेट पर रखा गया, जो 1887 में रेजिमेंट के प्रथम अधिकारियों में से एक थे और जिन्होंने 1901 में दूसरी बटालियन की भी स्थापना की।

इसी तरह किचनर लाइन्स ब्रिटिश काल के प्रसिद्ध कमांडर-इन-चीफ के नाम पर तथा क्वीन लाइन्स रानी विक्टोरिया के नाम पर हैं। यहाँ एक विशेष बाज़ार भी है जिसे “2/3 बाज़ार” (सेकंड-थर्ड बाज़ार) कहा जाता है। इस नाम की उत्पत्ति तीसरी गोरखा रेजिमेंट की दूसरी बटालियन से हुई, क्योंकि प्रारंभ में गढ़वाल बटालियन का गठन इसी रेजिमेंट से हुआ था। जहाँ इन सैनिकों के लिए बाज़ार बनाया गया, वही स्थान “2/3 बाज़ार” कहलाने लगा।

वास्तव में, इस छोटे से शहर में इतना समृद्ध इतिहास समाया हुआ है कि इस पर पूरी एक पुस्तक लिखी जा सकती है। ब्रिटिश भारत की स्मृतियाँ यहाँ के हर कोने में जीवित हैं और यहाँ आने वाला कोई भी जिज्ञासु व्यक्ति अनायास ही उस इतिहास से साक्षात्कार कर लेता है।

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