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सुप्रीम कोर्ट ने बलात्कार और हत्या के आरोपी को फांसी की सजा से किया बरी

 

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को उत्तराखंड में 2014 में सात वर्षीय बच्ची के साथ दुष्कर्म और हत्या के मामले में मृत्युदंड पाए एक दोषी को बरी कर दिया। कोर्ट ने कहा कि मृत्युदंड देने से पहले अदालतों को अत्यधिक सतर्कता बरतनी चाहिए। अमित आनंद चौधरी की रिपोर्ट।

उस बच्ची के साथ हुई जघन्य घटना को ‘लिटिल निर्भया’ केस कहा गया था और इसने पूरे राज्य में आक्रोश फैला दिया था।

सुप्रीम कोर्ट : मौत की सजा देते समय सतर्क रहें

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, संजय कर्ण और संदीप मेहता की खंडपीठ ने निचली अदालत और उत्तराखंड हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें अभियुक्त को दोषी ठहराकर उसे मृत्युदंड दिया गया था। कोर्ट ने एक अन्य अभियुक्त को भी बरी कर दिया जिसे सात साल की सजा सुनाई गई थी।

कोर्ट ने कहा कि जांच में कई खामियां थीं और अभियोजन पक्ष आरोप सिद्ध करने में विफल रहा। पूरा मामला केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित था।

कोर्ट ने कहा—
“सभी साक्ष्यों को पूरी तरह परखने और परिस्थितिजन्य साक्ष्यों से जुड़े सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि अभियोजन पक्ष पूरी और निर्बाध परिस्थितियों की श्रृंखला स्थापित करने में असफल रहा, जो अभियुक्तों का अपराध साबित करने के लिए आवश्यक थी। अभियुक्तों को सभी आरोपों से बरी किया जाता है। उन्हें तुरंत रिहा किया जाए, यदि किसी अन्य मामले में उनकी आवश्यकता न हो।”

कोर्ट ने अधिवक्ता मनीषा भंडारी की दलील स्वीकार की। उन्होंने अभियुक्त की ओर से कहा था कि पूरा मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर टिका है, जिसकी कड़ी अधूरी और टूटी हुई है। उन्होंने यह भी कहा कि अभियोजन पक्ष ने भौतिक साक्ष्यों को गढ़ा था। अदालत ने इन अभियुक्तों की रिहाई का रास्ता साफ कर दिया, जो एक दशक से मौत की सजा के साए में जी रहे थे।

न्यायालयों से मौत की सजा देते समय सावधानी बरतने की अपील करते हुए न्यायमूर्ति मेहता, जिन्होंने खंडपीठ का फैसला लिखा, ने कहा—
“निचली अदालतों और हाईकोर्ट को मृत्युदंड देने से पहले अत्यधिक सतर्कता बरतनी चाहिए। मौत की सजा की अपरिवर्तनीय प्रकृति यह मांग करती है कि इसे केवल ‘रेयर ऑफ द रेयरेस्ट’ मामलों में ही लागू किया जाए। अभियोजन के मामले में जरा-सी भी शंका या कमी ऐसी सजा के खिलाफ जानी चाहिए।”

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