वैदिक परंपरा में कामधेनु, ऋषि और धरतीपुत्र पवित्र त्रिमूर्ति की मानिंद
तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी के भारतीय ज्ञान परम्परा केंद्र- आईकेएस सेंटर की ओर से स्वदेशी ज्ञान और आधुनिक तकनीक का उपयोग करते हुए कृषि का समग्र दृष्टिकोण पर वर्चुअली 7वां राष्ट्रीय कॉन्क्लेव
-प्रो0 श्याम भटिया –
तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी, मुरादाबाद के भारतीय ज्ञान परम्परा केंद्र- आईकेएस सेंटर की ओर से स्वदेशी ज्ञान और आधुनिक तकनीक का उपयोग करते हुए कृषि का समग्र दृष्टिकोण पर वर्चुअली 7वें राष्ट्रीय कॉन्क्लेव में भारतीय परंपरागत कृषि ज्ञान जैसे- ऋषि परंपरा में वर्णित कृषि सिद्धांत, प्राकृतिक खेती, पंचगव्य और मौसम आधारित खेती को आधुनिक तकनीकों जैसे- कृत्रिम बुद्धिमत्ता- एआई, उपग्रह आधारित निगरानी, सेंसर आधारित सिंचाई प्रणाली और डेटा एनालिटिक्स के साथ एकीकृत कर किसानों की उत्पादकता, आर्थिक स्थायित्व, और पर्यावरणीय संरक्षण को सुनिश्चित करने पर जोर दिया गया।
यूसीओएसटी- मानसखण्ड साइंस सेंटर के एमेरिटस वैज्ञानिक एवम् एचएफआरआई, अल्मोड़ा के पूर्व निदेशक डॉ. शेर सिंह सामंत ने हिमालय की अद्भुत जैव विविधता और उसमें कृषि की भूमिका पर विस्तृत चर्चा की। उन्होंने ठंडे रेगिस्तान क्षेत्रों में पारंपरिक कृषि का महत्व बताते हुए कहा, कठोर जलवायु में स्थानीय किसानों ने स्वदेशी ज्ञान के आधार पर खेती के अनुकूल तकनीकें विकसित की हैं। डॉ. सामंत ने बताया कि फसलों की विविधता कम होने से न केवल खाद्य सुरक्षा पर असर पड़ता है, बल्कि पारिस्थितिकी तंत्र भी असंतुलित होता है। इससे पूर्व आईक्यूएसी डायरेक्टर प्रो. निशीथ मिश्रा ने यूनिवर्सिटी की आख्या प्रस्तुत की। कार्यक्रम की समन्वयक डॉ. अलका अग्रवाल ने वोट ऑफ थैंक्स दिया। संचालन डॉ. माधव शर्मा ने किया।
आई स्मार्ट लाइफ फाउंडेशन आईकेएस इंटीग्रेटर के संस्थापक डॉ. महेश लोहार ने वैदिक कृषि और कामधेनु की अवधारणा पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए वन फैमिली-वन देशी गाय के राष्ट्रव्यापी मिशन की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने वैदिक कृषि प्रणाली में गाय और ऋषि के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा, वैदिक परंपरा में कामधेनु, ऋषि और धरतीपुत्र को एक पवित्र त्रिमूर्ति माना गया है। कामधेनु न केवल कृषि कार्यों में सहायक है, बल्कि पर्यावरण संरक्षण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
डॉ. लोहार ने वैदिक काल के कृषि ग्रंथ, जैसे नक्षत्र शास्त्र और पराशर ऋषि के कृषि ग्रंथ में चंद्र आधारित कृषि की विशेष महत्ता बताई। चंद्र कैलेंडर के अनुसार खेतों में बीज बोने, कटाई करने और अन्य कृषि कार्यों का समय निर्धारित किया जाता था, जिससे फसल की गुणवत्ता और उत्पादन में वृद्धि होती थी। जैन दर्शन में भी गाय के प्रति गहरी अहिंसा का संदेश है। दून विश्वविद्यालय, देहरादून के स्कूल ऑफ मैनेजमेंट के डीन डॉ. एचसी पुरोहित ने जैन धर्म की आर्थिक समानता और कृषि के महत्व बोलते हुए कहा, जैन धर्म में आर्थिक समानता और समाज की समृद्धि का आधार कृषि है, जो राष्ट्र की जीडीपी में अहम योगदान देती है। कृषि न केवल आर्थिक विकास का स्तंभ है, बल्कि पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक स्थिरता में भी इसका महत्वपूर्ण स्थान है। प्राचीन शास्त्रों में कृषि का विशेष वर्णन मिलता है।
डॉ. पुरोहित ने कहा, 1947 के बाद भारत ने कृषि क्षेत्र में कई क्रांतियाँ पीली क्रांति- धान, सफेद क्रांति-दूध, नीली क्रांति- मछली पालन, भूरी क्रांति- चाय, और गोल्डन क्रांति- फल और सब्जियों इन क्रांतियों ने देश को आत्मनिर्भर बनाने में बड़ा योगदान दिया है। उन्होंने होलिस्टिक अप्रोच के महत्व पर बल देते हुए कहा कि स्वदेशी ज्ञान के साथ आधुनिक कृषि तकनीकों का समन्वय करके हम पर्यावरण के अनुकूल और आर्थिक रूप से टिकाऊ कृषि प्रणाली विकसित कर सकते हैं।
उत्तराखंड ओपन यूनिवर्सिटी, हल्द्वानी के वनस्पति विज्ञान विभाग के एचओडी डॉ. सरस्वती नंदन ओझा ने पारंपरिक ज्ञान और स्वदेशी ज्ञान प्रणाली को लोगों की दैनिक गतिविधियों में केंद्रीय भूमिका देते हुए बताया कि यह ज्ञान हमारे भूमि, जल, और मिट्टी के प्रबंधन में महत्वपूर्ण योगदान देता है। जल संकट और भूमि क्षरण जैसी समस्याओं से निपटने के लिए स्थानीय समुदायों ने प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए कई उपाय विकसित किए हैं, जो आज भी प्रभावी साबित हो रहे हैं। स्वदेशी ज्ञान न केवल कृषि विकास के लिए उपयोगी है, बल्कि यह भूमि, जल और मिट्टी के संरक्षण में भी एक समग्र और टिकाऊ दृष्टिकोण प्रदान करता है।
