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राजतंत्र की वंशबेल लोकतंत्र में भी गहरी जड़ें जमा चुकी

The story of Indian democracy is often celebrated as one of the most ambitious experiments in the world — a nation of immense diversity coming together under the ideals of equality, representation, and people’s sovereignty. Yet, beneath this democratic framework lies a paradox that continues to shape its political culture: dynastic politics. What once was the unquestioned norm under monarchy, where kings and queens passed their thrones to heirs by birth, has subtly persisted in India’s democratic journey. At the time of independence, nearly 560 princely states merged into the Union of India, marking the end of hereditary rule. However, instead of disappearing, dynastic privilege reinvented itself in electoral politics. From the heirs of erstwhile rulers to the children of modern political leaders, family lineage continues to dictate entry, survival, and even success in politics. Data from the Association for Democratic Reforms (ADR) and National Election Watch (NEW) confirms that a significant portion of India’s elected representatives belong to political families, raising fundamental questions about merit, accountability, and the very spirit of democracy. This article by Jay Singh Rawat, a senior journalist and an eminent author of several books, provides a critical and data-driven analysis of how dynastic politics thrives in India, its regional and party-wise patterns, and the urgent need for reforms to protect the soul of democracy…ADMIN

 -जयसिंह रावत

राजतंत्र में वंशवाद सहज था। राजा-महाराजा या महारानी के पुत्र और पुत्रियां ही सत्ता के उत्तराधिकारी माने जाते थे। सिंहासन रक्त-संबंधों की परंपरा से चलता था, जनता की इच्छा का वहां कोई स्थान नहीं था। भारत की स्वतंत्रता के समय तक देश में लगभग 560 रियासतें थीं, जिनमें यही व्यवस्था प्रचलित थी। जब वे रियासतें लोकतांत्रिक गणराज्य भारत में समाहित हुईं, तो विश्वास था कि वंशवाद की यह जकड़ अब टूट जाएगी। परंतु हुआ इसके ठीक विपरीत। लोकतंत्र में भी वही पुराना पैटर्न जारी रहा। पूर्व शासकों के उत्तराधिकारी चुनावी मैदान में उतरे और जनता ने उन्हें प्रतिनिधि बनाकर स्वीकार कर लिया। धीरे-धीरे अन्य नेताओं के वंशज भी राजनीति में उतरने लगे। इस प्रकार, लोकतंत्र में भी वंशवाद ने नई ज़मीन पा ली।

सत्ता का हस्तांतरण और लोकतांत्रिक आदर्श

लोकतंत्र का मूल आधार है समान अवसर, जनभागीदारी और योग्यता। परंतु वंशवाद इन आदर्शों को कमजोर करता है। जब राजनीतिक अवसर परिवारों में पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते हैं, तो सामान्य नागरिक राजनीति से दूर हो जाता है। नेता की कुर्सी एक परंपरा बन जाती है, जैसे राजतंत्र में सिंहासन। यह लोकतांत्रिक आदर्शों का एक प्रकार से अपमान है। खासकर तब, जब राष्ट्रीय सुरक्षा पर भाषण देने वाले बड़े नेता अपने बच्चों को सेना में नहीं भेजते, पर राजनीति की मलाईदार जगहों पर उन्हें आसानी से उतार देते हैं।

एडीआर और न्यू की चौंकाने वाली तस्वीर

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स और नेशनल इलेक्शन वॉच की रिपोर्ट भारत की राजनीति में वंशवाद की गहरी पैठ को उजागर करती है। देश के 5204 सांसदों, विधायकों और विधान परिषद सदस्यों में से 1107 यानी 21 प्रतिशत सीधे-सीधे वंशवादी पृष्ठभूमि से आते हैं। सबसे अधिक 31 प्रतिशत लोकसभा सांसद वंशवाद की देन हैं। राज्य विधानसभाओं और राज्यसभा में यह अनुपात लगभग 20-21 प्रतिशत है। आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे राज्यों में वंशवाद की जड़ें और भी गहरी हैं।

हर दल की समान बीमारी

वंशवाद का संक्रमण किसी एक पार्टी तक सीमित नहीं है। राष्ट्रीय पार्टियां: एडीआर और न्यू के अनुसार, 3,214 सदस्यों में से 657 (20%) वंशवादी। कांग्रेस में 32%, भाजपा में 18%, जबकि सीपीआई(एम) में केवल 8%। राज्य पार्टियां: 1,809 सदस्यों में से 406 (22%) वंशवादी। एनसीपी-शरदचंद्र पवार (42%), जेकेएनसी (42%), वाईएसआरसीपी (38%), टीडीपी (36%) और एनसीपी (34%) में मजबूत वंशवादी प्रवृत्ति। वहीं, एआईटीसी (10%) और एआईएडीएमके (4%) में कम, संभवतः करिश्माई गैर-वंशवादी नेतृत्व के कारण। समाजवादी पार्टी, जनता दल (यूनाइटेड), असम गण परिषद और राष्ट्रीय जनता दल में 30% या अधिक वंशवादी। मान्यता प्राप्त पार्टियां: 87 सदस्यों में से 21 (24%) वंशवादी, कई में 100% वंशवादी सदस्य। स्वतंत्र: 94 में से 23 (24%) वंशवादी। पार्टी श्रेणी-वार प्रतिशत से पता चलता है कि छोटी पार्टियों में वंशवादीता अधिक है। इस स्थिति को देखकर लगता है कि राजनीतिक दल चुनाव में विचारधारा से ज्यादा परिवारवाद को प्राथमिकता देते हैं।

महिलाओं की राजनीति और वंशवाद की छाया

रिपोर्ट का सबसे मार्मिक पहलू है कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी लगभग पूरी तरह वंशवाद पर निर्भर है। एडीआर और न्यू के आंकड़ों के आधार पर, 4,665 पुरुष सदस्यों में से 856 (18%) वंशवादी, जबकि 539 महिला सदस्यों में से 251 (47%) वंशवादी हैं। महिलाओं में यह अनुपात पुरुषों से दोगुना अधिक है। राज्य-वार, लगभग सभी राज्यों में महिलाओं का वंशवादी अनुपात पुरुषों से अधिक (जैसे महाराष्ट्र: 69% महिला बनाम 28% पुरुष; आंध्र प्रदेश: 69% महिला बनाम 29% पुरुष)। गोवा, पुदुच्चेरी और दादरा-नागर हवेली व दमन-दीव में महिलाओं का 100% वंशवादी। सबसे अधिक वंशवादी महिलाएं: उत्तर प्रदेश (42%, 29), महाराष्ट्र (69%, 27), बिहार (57%, 25)। सबसे कम: पश्चिम बंगाल (28% महिला, 5% पुरुष)। पार्टी-वार भी महिलाओं का अनुपात अधिक (जैसे कांग्रेस: 53% महिला बनाम 29% पुरुष)। भाजपा में सबसे अधिक वंशवादी महिलाएं (41%, 91), उसके बाद कांग्रेस (53%, 46)। छोटी पार्टियों में छोटे सैंपल के कारण उच्च प्रतिशत। वामपंथी सीपीआई(एम) (38% महिला, 5% पुरुष) और आप (15% महिला, 11% पुरुष) में कम। छोटे राज्यों में तो स्थिति और गंभीर है, जहां लगभग हर महिला प्रतिनिधि किसी न किसी राजनीतिक परिवार से जुड़ी होती है। यह परिघटना दिखाती है कि राजनीति में महिलाओं के लिए स्वतंत्र रास्ते अभी भी मुश्किल हैं, और पारिवारिक पहचान उनके लिए सबसे आसान दरवाजा है।

लोकतंत्र पर वंशवाद का प्रभाव

वंशवाद लोकतंत्र की आत्मा को चोट पहुंचाता है। जनता की अपेक्षा होती है कि नेता अपने काम और योग्यता से चुने जाएं, परंतु जब टिकट और पद परिवारों में बंटते हैं, तो आम नागरिकों के लिए राजनीति में प्रवेश लगभग असंभव हो जाता है। जनता के प्रति जवाबदेही भी कम हो जाती है, क्योंकि वंशवादी नेता अपने परिवारिक नाम पर चुनाव जीतने लगते हैं, न कि अपनी कार्यक्षमता पर। इससे लोकतंत्र धीरे-धीरे परिवारों की बपौती बनता जाता है।

क्षेत्रीय और वैचारिक विविधता

वंशवाद हर जगह एक जैसा नहीं है। तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में इसकी पकड़ अपेक्षाकृत कम है, क्योंकि यहां वैचारिक और आंदोलनकारी राजनीति की परंपरा मजबूत रही है। इसके विपरीत झारखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे राज्यों में वंशवाद का अनुपात अधिक है। वामपंथी दलों और नई पार्टियों जैसे आम आदमी पार्टी में वंशवाद सीमित है, जबकि जाति आधारित और क्षेत्रीय दलों में यह अत्यधिक है। यह अंतर बताता है कि जहां विचारधारा और कैडर-आधारित राजनीति मजबूत होती है, वहां वंशवाद की जकड़ अपेक्षाकृत ढीली रहती है।

वंशवाद क्यों पनपता है

भारत में चुनाव लड़ना बेहद महंगा हो चुका है। ऐसे में जिन परिवारों के पास संसाधन और नेटवर्क पहले से मौजूद होते हैं, वही राजनीति में आगे बढ़ते हैं। राजनीतिक दलों में पारदर्शिता की कमी भी परिवारवाद को बढ़ावा देती है। जनता भी पहचान वाले नामों को वोट देने में अधिक सहज महसूस करती है। राजनीतिक दलों के भीतर आंतरिक लोकतंत्र का अभाव परिवारों को और मजबूत करता है।

लोकतंत्र को बचाने की राह

अगर भारत को स्वस्थ और सशक्त लोकतंत्र बनाना है, तो वंशवाद की इस जकड़ से बाहर निकलना ही होगा। इसके लिए राजनीतिक दलों के भीतर आंतरिक लोकतंत्र को लागू करना जरूरी है। टिकट वितरण पारदर्शी हो और उम्मीदवारों का चयन केवल परिवारिक पहचान पर न हो। महिलाओं को आरक्षण और अवसर मिलें, पर यह सुनिश्चित किया जाए कि वे केवल वंशवादी परिवारों से न आएं। चुनावी खर्च पर कठोर नियंत्रण और दलों को सूचना के अधिकार के दायरे में लाना जरूरी है। साथ ही, युवाओं और नए नेतृत्व को अवसर मिलें और मतदाता भी योग्यता और कार्यकुशलता को आधार बनाकर वोट करें, न कि केवल नाम और खानदान को।

राज्य-वार विश्लेषण

एडीआर और न्यू के आंकड़ों के आधार पर, राज्यों में उत्तर प्रदेश शीर्ष पर है, जहां 604 विश्लेषित सदस्यों में से 141 (23%) वंशवादी हैं। महाराष्ट्र में 403 सदस्यों में से 129 (32%), बिहार में 360 में से 96 (27%) और karnataka में 326 में से 94 (29%) वंशवादी हैं। अनुपात के आधार पर, आंध्र प्रदेश में सबसे अधिक 255 सदस्यों में से 86 (34%) वंशवादी हैं, उसके बाद महाराष्ट्र (32%) और कर्नाटक (29%)।

क्षेत्रीय पैटर्न:

  • उत्तर भारत: उत्तर प्रदेश (23%, 141 वंशवादी) और राजस्थान (18%, 43 वंशवादी) में उच्च।

  • दक्षिण भारत: कर्नाटक (29%, 94 वंशवादी) और आंध्र प्रदेश (34%, 86 वंशवादी) में ऊंचा।

  • पूर्व/उत्तर-पूर्व: बिहार (27%, 96 वंशवादी) में उच्च, लेकिन असम (9%, 13 वंशवादी) में कम।

ये आंकड़े राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण राज्यों में वंशवादी राजनीति की व्यापकता को उजागर करते हैं।

वंशवाद की बेल लोकतंत्र की ज़मीन में और गहरी

भारत ने राजतंत्र से लोकतंत्र तक की लंबी यात्रा तय की है। परंतु इस यात्रा में वंशवाद की बेल लोकतंत्र की ज़मीन में और गहरी जड़ें जमा चुकी है। राजाओं और नवाबों की संताने लोकतंत्र में नेता बनीं और उनकी देखादेखी हर पार्टी में परिवारवाद फैलता गया। एडीआर की रिपोर्ट इसकी सच्चाई को उजागर करती है। सवाल यही है कि क्या हम लोकतंत्र को सचमुच जनता का शासन बना पाएंगे, या उसे परिवारों की निजी संपत्ति बनने देंगे। लोकतंत्र की रक्षा अब केवल क़ानून या सुधारों से नहीं होगी, बल्कि मतदाताओं की जागरूकता और राजनीतिक दलों की ईमानदार नीयत से ही संभव होगी।

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