महाराजाओं, जमींदारों और बड़े साहिबों का आभामंडल :वीआईपी संस्कृति का समाजशास्त्र

—देवेन्द्र कुमार बुडाकोटी
मेरे पड़ोसी कमोडोर (सेनि) रवि नौटियाल जब भी किसी वीआईपी को लाइन तोड़ते, विशेष सुविधाएँ हथियाते या रुतबा दिखाते देखते हैं, खिन्न हो उठते हैं। वे मुझसे कहते हैं, “लिखो इस बीमारी पर।” मैंने सोचा, लिखता हूँ।
दरअसल हम सब यही करते हैं—दूसरों के वीआईपी होने पर बिफरते हैं, अपने होने पर गर्व करते हैं। जो व्यक्ति वीआईपी लक्षण नहीं दिखाता, उसे अक्सर वह सम्मान भी नहीं मिलता जिसका वह हकदार है। कई बार तो वीआईपी होना मजबूरी बन जाता है—रुतबा न दिखाओ तो लोग दर्जा ही नहीं मानते।
एक सच्ची घटना याद आती है। उत्तराखंड के एक गाँव में छुट्टी पर गए युवा कप्तान बीरू पानी भरने निकले। कंधे पर बाल्टी टाँगे पंडित जी से मुलाकात हुई। पंडित जी ने उन्हें छोटा भाई सूरू समझ लिया और पूछा, “सुना है तुम्हारा कप्तान भाई आया है?”
कप्तान हँसे, बातें करते रहे, घर लाए, चाय बनाकर पिलाई। पंडित जी अब भी नहीं पहचान पाए। फिर पूछा, “कप्तान कहाँ है?” बीरू बोले, “पंडित जी, मैं ही कप्तान हूँ।”
पंडित जी हक्के-बक्के। हैरानी से बोले, “किस फौज ने तुझे कप्तान बनाया?” उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि कप्तान बाल्टी उठा सकता है, चाय बना सकता है। उन्हें तो वह पुराना ‘आभामंडल’ चाहिए था—महाराजाओं वाला, साहिबों वाला।
हमारी सामंती जड़ें बहुत गहरी हैं। सरकारी-निजी दफ्तरों में चपरासी, ड्राइवर, चाय वाला अलग होते हैं। मध्यमवर्गीय घरों में भी कामवाली बाई। अगर कभी बेटा-बेटी से कहा जाए कि बर्तन धो दो, तो तपाक से जवाब आता है—“मुझे नौकर समझ रखा है?”
इस एक वाक्य में वर्ग, जाति और सामंती मानसिकता की सारी परतें समोई हैं।
गहराई में जाइए तो भारत दो तरह के सपने देखता है—एक हिस्सा नेता या अभिनेता बनना चाहता है, दूसरा मंत्री या सिपाही। लेकिन दोनों के पीछे दौड़ एक ही है—चार P: Power, Prestige, Paisa और Pahchan। वीआईपी की असली पहचान यही चार तत्व हैं।
थॉमस हॉब्स कहते थे कि सत्ता की भूख कभी शांत नहीं होती; वह आत्मरक्षा की प्रवृत्ति से उपजती है और मनुष्य को “सबका सबके खिलाफ युद्ध” की स्थिति में धकेल देती है।
भारत में वीआईपी संस्कृति और भी गहरी क्यों है? क्योंकि हमारे यहाँ महाराजाओं-नवाबों का आभामंडल कभी गया ही नहीं। ब्रिटिश साहिबों ने उसे और पुख्ता किया। आज भी हमारे सैन्य और असैन्य प्रोटोकॉल में रजवाड़ों और अंग्रेजी राज की झलक साफ दिखती है। अंग्रेजों ने भी प्रशासन में बहुत कुछ देशी सामंतों से उधार लिया था—उसी मिश्रण ने वीआईपी संस्कृति को अमर कर दिया।
अब सवाल यह है—जब हर हिन्दुस्तानी खुद वीआईपी बनना चाहता है, तब इस मानसिकता से मुक्ति कैसे मिलेगी?
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(लेखक समाजशास्त्री हैं और चार दशकों से विकास क्षेत्र में कार्यरत हैं।–Admin)
