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घरजवें (1986): पर्वत का वह चलचित्र-दीपक, जिसकी रोशनी आज भी दिलों में जलती है

शीशपाल गुसाईं

पर्वतीय समाज के सांस्कृतिक इतिहास में कुछ क्षण ऐसे आते हैं, जो केवल कला का नहीं, बल्कि एक युग के भावों का दस्तावेज बन जाते हैं। 1986 में प्रदर्शित गढ़वाली फ़िल्म ‘घरजवें’ भी ऐसा ही एक दैदीप्यमान अध्याय है—एक ऐसी कृति, जिसने अपनी निर्मल संवेदना, लोकगंध और पर्वतीय जीवन की आत्मा को परदे पर उतारकर, लाखों हृदयों को जीत लिया। उस समय तक पहाड़ के लिए फ़िल्में बनना लगभग एक असंभव-सा स्वप्न था। गढ़वाल की पहली फ़िल्म ‘जगवाल’, दूसरी ‘कभी सुख कभी दुख’ और फिर यह तीसरी—‘घरजवें’—ने उस स्वप्न को आकार देकर नया इतिहास रचा। यह पर्वतीय अंचल की सच्ची ‘सोले’ फ़िल्म कही गई—क्योंकि इसकी लोकप्रियता उतनी व्यापक, उतनी ही दीर्घजीवी थी जितनी हिंदी सिनेमा की क्लासिक ‘शोले’ की।

जब ‘घरजवें’ ने पहाड़ से मैदान तक दिलों में डेरा डाला

मुंबई, देहरादून, हल्द्वानी, श्रीनगर, उत्तरकाशी, टिहरी, ऋषिकेश, कोटद्वार, अल्मोड़ा, पौड़ी—कहां नहीं चली यह फ़िल्म? दिल्ली में तो यह लगातार 25 सप्ताह तक प्रदर्शित होकर सिल्वर जुबली का गौरव लेकर लौटी। देहरादून के कनक सिनेमा में यह 10 सप्ताह तक चली—उस दौर में जब पहाड़ी भाषा की फ़िल्मों का इतना लंबे समय तक चलना कल्पना से भी परे था। सहारनपुर के हॉल हों या मेरठ के सिनेमा, बेंगलुरु के सिकंदराबाद हो या चंडीगढ़, फरिदाबाद—जहां भी पहाड़ी समाज था, वहाँ घरजवें का जादू था। उस समय फ़िल्म देखना केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक उत्सव था—एक पहचान का पर्व, जिसमें पूरी समुदाय की भावनाएँ शामिल रहती थीं। मुंबई के जोगेश्वरी में दोनों टॉकीज़ में यह फ़िल्म हटने का नाम ही नहीं ले रही थी। उत्तरकाशी के दोनों सिनेमाघरों में यह फ़िल्म मानो बारी-बारी से लगती रहती थी, और चारों शो हमेशा हाउसफुल होते थे। बीच-बीच में, शो के अंतराल पर, फ़िल्म को दूसरे पिक्चर हॉल में शिफ्ट कर दिया जाता था—क्योंकि उस समय फ़िल्म एक छोटी-सी अटैची में भौतिक रूप से लाई जाती थी। जो रीलें आज इंटरनेट के कोड से सेकंडों में पहुँच जाती हैं, तब वे हाथों से ढोई जाती थीं—और इसी यात्रा में भी एक रोमांच छिपा रहता था। उपला टकनौर और हर्षिल के गाँवों में लोग पहले से तारीख तय कर लेते थे कि किस दिन उत्तरकाशी जाकर घरजवें देखनी है। फ़िल्म का दीदार लोगों के लिए केवल सिनेमा नहीं था—यह एक यात्रा, एक उत्सव, और एक सामूहिक अनुभव था, जिसे आज भी लोग भावुकता और गर्व के साथ याद करते हैं।

फ़िल्म के नायक—बलराज नेगी: शिखर से संघर्ष तक की यात्रा

फ़िल्म घरजवें के नायक बलराज नेगी मुंबई के रंगमंच की तपस्या से निकले एक सिद्ध कलाकार थे। गढ़वाली नाटक उनके लिए केवल कला नहीं, बल्कि साधना था। घरजवें की सफलता के बाद जब वे उत्तरकाशी, देहरादून, श्रीनगर जैसे शहरों में पहुँचे, तो उनसे मिलने और हाथ मिलाने वालों की लंबी कतारें लगी रहती थीं। उनका स्वागत ठीक वैसा ही होता था, जैसे शोले की सफलता के बाद— रामगढ़ (बेंगलुरु) से अमिताभ बच्चन और धर्मेंद्र किसी नए शहर में पहुँचे हों। लोकप्रियता का वह उभार, वह उत्साह—उसी ऊँचाई पर बलराज नेगी को भी पहाड़ के लोगों ने अपनाया। लोगों ने उनके प्रति इतनी ममता दिखाई, मानो घर का ही कोई बेटा लौट आया हो। बलराज नेगी ने मुंबई में रहकर जीतू बगड़वाल, सत्यवान–सावित्री जैसे कई गढ़वाली नाटकों में अभिनय किया था। जब वे पहाड़ लौटे, तो लोग उन्हें देखते ही कह उठते—“अरे! ये तो घरजवें वाला हीरो!” यह वह समय था जब पहाड़ का युवक अपने ही भाषा-फ़िल्म के नायक से प्रेरणा पाता था—अपनी आकांक्षाएँ गढ़ता था। गढ़वाल के भगवती गाँव (नारायण बगड़, चमोली) से आए बलराज नेगी, जिन्होंने फ़िल्म में श्यामू का किरदार निभाया था, वास्तव में पहाड़ की उस युवा पीढ़ी का स्वप्न बन चुके थे। उत्तराखंड राज्य गठन के बाद वे संस्कृति विभाग में सेवाएँ देने लगे। लेकिन समय का पहिया किसी पर स्थिर नहीं रहता—जिस कलाकार को कभी भीड़ कंधों पर उठाकर ले जाती थी, वही आज अत्यंत साधारण और संघर्षपूर्ण जीवन जी रहा है। यह केवल एक कलाकार की कहानी नहीं—बल्कि पहाड़ी सिनेमा की विडंबना और हमारी सांस्कृतिक स्मृति के लिए एक गहरी चेतावनी है।

‘घरजवें’ की लोकेशन—पर्वत की गोद में रचा गया सौंदर्य

घरजवें को मुख्यतः पौड़ी प्रॉपर, पौड़ी जनपद, श्रीकोट, कुलसारी, नारायणबगड़ और चोपता में फिल्माया गया था। यह दृश्य—जो इस वीडियो में दिखता है—चोपता का है,
जो वास्तव में उत्तराखंड की प्राकृतिक सुंदरता का दिव्य खजाना है। देवदार, बुरांश, हिमरेखा और खुलते सूर्य के साथ चमकते हिमालय— फिल्म के हर फ्रेम में पहाड़ का सौंदर्य ऐसे घुला था कि वह केवल परदे पर नहीं, बल्कि दर्शकों के हृदय में बस गया।

निर्माण की तपस्या: नौटियाल, तरंग धस्माना और देवी प्रसाद सेमवाल

मुंबई में बनी इस फ़िल्म के निर्माता विशम्भर दत्त नौटियाल और निर्देशक तरंग धस्माना थे। इसके गीतकार/ लेखक घुत्तू टिहरी वाले—देवी प्रसाद सेमवाल, जो अपने समय के अत्यंत संवेदनशील कथा-चित्रकार माने जाते थे। गीतकारों ने लोकधुनों की मिठास में आधुनिकता की कोमलता मिलाई। तीन गीत स्वयं लोकनायक नरेंद्र सिंह नेगी ने गाए—और महिला स्वर के रूप में थीं सुषमा श्रेष्ठ अल्मोड़ा मूल की (जिसे बॉलीवुड में नंदीता के नाम से भी जाना जाता है) वह दौर तकनीक से नहीं, भावनाओं की शक्त‍ि से फ़िल्में बनाता था।

जब सिनेमाहॉल तीर्थ बन जाते थे

“1986 में मैं 11 साल का था…” गाँव से 5 किलोमीटर दूर कैलाश टॉकीज, नागणी–चिन्यालीसौड़— यह दूरी उस समय के पहाड़ी दर्शक के उत्साह को और अधिक पवित्र बना देती थी। हम लोग अपने अभिभावकों के साथ बसों में भरकर फ़िल्म देखने गए थे। चारों शो हाउसफुल होते, टिकटों की लंबी लाइनें लगतीं, और जब परदा उठता था, तो ऐसा लगता था मानो गढ़वाल अपने पूरे अस्तित्व के साथ शहर के हृदय में उतर आया हो। पर आज? बहुत से सिनेमाहॉल खंडहर बन चुके हैं। कैलाश टॉकीज भी अब खंडहर में बदल गया है— वह टॉकीज जिसे उत्तरकाशी के एक व्यक्ति ने गंगा घाटी के लोगों के लिए बनाया था। डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म, नेटफ्लिक्स और मोबाइल स्क्रीन ने घर-आँगन में नया मनोरंजन दे दिया है। और सिनेमा की वह साझा, सामूहिक अनुभूति—अब धीरे-धीरे स्मृति बनती जा रही है। मेरे मन में श्यामू की वह छवि आज भी ताज़ा है। जब मैं उन्हें पहली बार संस्कृति निदेशालय में भौतिक रूप से मिला, तो कुछ क्षण मैं उन्हें देखता ही रह गया—और आश्चर्य यह कि वे भी मुझसे प्रभावित से प्रतीत हुए।

सरकारी अनुदान और वर्तमान का संकट

आज सरकार 50% तक अनुदान दे रही है। फिल्में भी अब 1–3 करोड़ के बजट में बनने लगी हैं। अपने यहाँ फ़िल्म नीति भी बन गई है। पर दुख यह है कि इतना निवेश होने के बाद भी ‘घरजवें’ जैसी आत्मा और प्रभाव वाली फ़िल्में कम ही दिख रही हैं। कला केवल बजट से नहीं बनती—वह लोकजीवन की आत्मा से बनती है। यह वही आत्मा है जिसने 1986 में एक सरल, सच्ची कहानी को अमर बना दिया।

घरजवें: एक धार्मिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक प्रतीक

पहाड़ के जीवन में फ़िल्में केवल मनोरंजन नहीं, भाषा की रक्षा, संस्कृति की सेवा और लोकआत्मा को पुष्ट करने का साधन रही हैं। घरजवें भी एक प्रकार का संस्कृति-दीपक था— जिसकी लौ ने हजारों युवा मनों में अपने पहाड़, अपनी भाषा और अपनी पहचान के प्रति गर्व का भाव जगाया। यह फ़िल्म आज भी बताती है कि— जब सिनेमा लोकमानस का दर्पण बनता है, तब वह केवल देखा नहीं जाता—पूजा जाता है। और 1986 में ‘घरजवें’ सचमुच पूजी गई थी—सिनेमाघरों में, उत्सवों में, और लोगों के दिलों में।

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