अमर शौर्य की गौरव-गाथा: राष्ट्रपति भवन में परम वीर दीर्घा का भव्य उद्घाटन
The Param Vir Dirgha honours all 21 Param Vir Chakra awardees and showcases India’s major military engagements, including the 1947–48 Jammu and Kashmir operations, the 1962 conflict with China, the 1965 and 1971 wars against Pakistan (with the Bangladesh Liberation War), and the 1999 Kargil conflict. Each name etched into the Dirgha represents a life defined by extraordinary resolve, soldiers who stood their ground against overwhelming odds, pilots who flew into peril with unwavering focus, and officers who led from the front, even unto death.

-A PIB FEATURE-
राष्ट्रपति भवन के भव्य कॉरिडोर आज एक ऐतिहासिक और गौरवशाली परिवर्तन के साक्षी बने हैं। 16 दिसंबर को विजय दिवस के गौरवशाली अवसर पर, राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मु ने राष्ट्रपति भवन में परम वीर दीर्घा का उद्घाटन किया। इस ऐतिहासिक बदलाव के साथ ही, राष्ट्रपति भवन के कॉरिडोर में अब तक लगीं ब्रिटिश एडीसी की तस्वीरों के स्थान पर अब भारत के सर्वोच्च सैन्य सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित 21 वीर सपूतों के चित्रों को सुशोभित किया गया है। जो कॉरिडोर कभी औपनिवेशिक सत्ता का प्रतीक हुआ करता था, वह अब राष्ट्रीय गौरव और हमारे उन राष्ट्र-नायकों की अदम्य भावना का प्रतीक बन गया है, जिन्होंने देश की रक्षा में अद्वितीय और अदम्य साहस का परिचय दिया।
इस भव्य उद्घाटन समारोह में रक्षा मंत्री श्री राजनाथ सिंह, चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल अनिल चौहान, थल सेनाध्यक्ष जनरल उपेंद्र द्विवेदी, वायु सेनाध्यक्ष एयर चीफ मार्शल ए. पी. सिंह, नौसेना अध्यक्ष एडमिरल दिनेश के. त्रिपाठी और अन्य गणमान्य व्यक्ति उपस्थित रहे। यह आयोजन न केवल हमारे जीवित नायकों को सम्मानित करने का अवसर था, बल्कि उन अमर बलिदानियों के परिजनों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का भी माध्यम बना, जिन्होंने राष्ट्र की रक्षा में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया।

राजसत्ता से लोकसत्ता का सफर
औपनिवेशिक काल के दौरान, राष्ट्रपति भवन—जो उस समय वायसराय हाउस के रूप में जाना जाता था—अपनी वास्तुकला और आंतरिक सज्जा के माध्यम से ब्रिटिश साम्राज्य की सत्ता का प्रदर्शन करता था। इसके कॉरिडोर में ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों के चित्र लगे हुए थे, जो विदेशी शासन की जड़ों में रची-बसी एक पदानुक्रमित व्यवस्था को दर्शाते थे। स्वतंत्रता के पश्चात, इन स्थानों को धीरे-धीरे नया रूप दिया गया और इन्हें एक संप्रभु राष्ट्र के मूल्यों, संघर्षों और आकांक्षाओं के अनुरूप ढाला गया।

परम वीर दीर्घा उस ऐतिहासिक यात्रा की पूर्णता को दर्शाती है। औपनिवेशिक प्रतीकों को हटाकर भारत के वीरतम सैनिकों की शौर्य गाथाओं को स्थापित करना इस बात का प्रतीक है कि अब यह सम्मान वास्तव में उन्हीं का है, जिनके साहस और बलिदान ने राष्ट्र की रक्षा की।
परमवीर चक्र: भारत का सर्वोच्च सम्मान
भारत सरकार द्वारा 26 जनवरी 1950 को शुरू किया गया परमवीर चक्र, रणभूमि में शत्रु के सामने दिखाए गए अदम्य साहस और अद्वितीय पराक्रम की सर्वोच्च स्वीकृति है। अक्सर मरणोपरांत दिया जाने वाला यह सम्मान उस शौर्य का प्रतीक है जो कर्तव्य की सीमाओं से परे है—जहाँ राष्ट्र की रक्षा की पुकार के सामने सैनिक का अपना जीवन और अस्तित्व भी फीका पड़ जाता है।
यह मेडल गोलाकार है और इसे कांस्य धातु से बना होता है। इसके केंद्र में एक उभरे हुए घेरे के भीतर अशोक स्तंभ चिन्ह अंकित है, जिसके चारों ओर इंद्र के वज्र की चार प्रतिकृतियां बनी हुई हैं। मेडल के पीछे की ओर हिंदी और अंग्रेजी में “परमवीर चक्र” उत्कीर्ण है। “परमवीर चक्र” का अर्थ है “सर्वोच्च वीर का चक्र”, जो उस धर्मपरायण और न्यायसंगत साहस को दर्शाता है जो अडिग और अविनाशी है।

इस सर्वोच्च वीरता पुरस्कार से सम्मानित 21 विजेताओं में से 14 को यह सम्मान मरणोपरांत प्रदान किया गया, जो राष्ट्र की स्वतंत्रता और सुरक्षा के लिए चुकाई गई उस सर्वोच्च कीमत को रेखांकित करता है।
परम वीर दीर्घा न केवल उन 21 परमवीर चक्र विजेताओं को नमन करती है, बल्कि भारत के गौरवशाली सैन्य इतिहास के उन अभियानों को भी जीवंत करती है, जिनमें 1947-48 का जम्मू-कश्मीर अभियान, चीन के साथ 1962 का संघर्ष, पाकिस्तान के विरुद्ध 1965 और 1971 के ऐतिहासिक युद्ध (बांग्लादेश मुक्ति संग्राम सहित) और 1999 की कारगिल विजय की वीरगाथाएँ रची गईं। इस दीर्घा में अंकित हर एक नाम असाधारण संकल्प की एक महागाथा है—उन जांबाज सैनिकों की, जो विपरीत परिस्थितियों में भी अडिग रहे, वे पायलट जो अटूट एकाग्रता के साथ जोखिमों के बीच विमानों को ले कर उड़े और उन जांबाज अफसरों की, जिन्होंने अंतिम सांस तक अग्रिम मोर्चे पर रहकर अपनी सेना का नेतृत्व किया।
परमवीर चक्र पाने वाले पहले व्यक्ति मेजर सोमनाथ शर्मा ने नवंबर 1947 में कश्मीर के बड़गाम की रक्षा के दौरान असाधारण नेतृत्व का परिचय दिया। संख्या में कहीं अधिक दुश्मन सेना का सामना करते हुए, उन्होंने अपने जवानों का मार्गदर्शन करने के लिए दुश्मन की भारी गोलीबारी के बीच बार-बार खुले मैदान में जाने का साहस किया। अपने जीवन के गंभीर खतरे की परवाह किए बिना, उन्होंने दुश्मन की नजर के सामने कपड़े की पट्टियों से लक्ष्यों को चिह्नित किया ताकि भारतीय विमानों को सही दिशा निर्देश प्राप्त हो सकें। भारी क्षति होने और स्वयं के हाथ में प्लास्टर होने के बावजूद, वे लगातार गोला-बारूद बाँटते रहे और अपने सैनिकों का उत्साह बढ़ाते रहे। उनके इस साहसिक कार्य ने दुश्मन को अहम छह घंटों तक रोके रखा और जिससे मातृभूमि की रक्षा हुई। अपने असाधारण साहस, अडिग संकल्प और सर्वोच्च बलिदान से, मेजर सोमनाथ शर्मा ने भारतीय सेना की उच्चतम परंपराओं को अक्षुण्ण रखा।
6 फरवरी 1948 को, तैनधार स्थित पिकेट नंबर 2 पर नायक जदुनाथ सिंह एक छोटी सी पोस्ट की कमान संभाल रहे थे, जिस पर दुश्मन ने बार-बार हमले कर रहा था। संख्या में बहुत कम होने और घायल होने के बावजूद, उन्होंने अपने असाधारण नेतृत्व और सटीक फायरिंग पावर से दुश्मन के लगातार हो रहे हमलों को नाकाम कर दिया। जब उनके सभी साथी हताहत हो गए, तब भी उन्होंने अकेले ही मोर्चा संभाले रखा और वीरगति प्राप्त करने से पहले दुश्मन पर अंतिम प्रहार किया। उनके इस अदम्य साहस ने दुश्मन को चौकी पर कब्जा करने से रोक दिया और नौशेरा की सुरक्षा सुनिश्चित की।
संयुक्त राष्ट्र के शांति मिशन के तहत, 5 दिसंबर 1961 को कटांगा के एलिजाबेथविले की धरती भारतीय शौर्य की गवाह बनी। कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया ने गोरखा सैनिकों की एक छोटी सी टुकड़ी के साथ उस दुश्मन सेना का रास्ता रोका, जो रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण गोलचक्कर पर कब्जा करने के इरादे से आगे बढ़ रही थी। दुश्मन की बड़ी संख्या और भारी गोलीबारी के बावजूद उनके कदम नहीं डगमगाए। उन्होंने अत्यंत निकट की लड़ाई में ऐसा भीषण हमला किया कि दुश्मन के ठिकाने और बख्तरबंद गाड़ियाँ नष्ट कर दीं। बुरी तरह से घायल होने के बावजूद, कैप्टन सलारिया तब तक नहीं रूके जब तक मिशन सफल नहीं हो गया। उनके इस अदम्य साहस ने न केवल संयुक्त राष्ट्र की सेनाओं को घेराबंदी से बचाया, बल्कि नेतृत्व और वीरता की एक ऐसी मिसाल पेश की, जो युगों-युगों तक भारतीय सेना का गौरव बनी रहेगी।

10 सितंबर 1965 को, खेमकरण सेक्टर में कंपनी क्वार्टर मास्टर हवलदार अब्दुल हामिद ने पाकिस्तान के एक भीषण टैंक हमले का डटकर मुकाबला किया। दुश्मन की भारी गोलाबारी के बीच, अपनी जान की परवाह न करते हुए उन्होंने अपनी ‘रिकॉइलेस गन’ (जीप पर लगी तोप) को अत्यंत कुशलता से संचालित किया और बेहद करीब से दुश्मन के कई टैंकों को ध्वस्त कर दिया। भारी गोलाबारी का निशाना बनने के बावजूद, वे तब तक लड़ते रहे जब तक कि वे गंभीर रूप से घायल नहीं हो गए। उनके इस असाधारण साहस और निस्वार्थ बलिदान ने उनकी यूनिट में जोश भर दिया, जिससे प्रेरित होकर भारतीय जवानों ने दुश्मन के उस बख्तरबंद हमले को पूरी तरह विफल कर दिया।
1971 के युद्ध के दौरान, लांस नायक अल्बर्ट एक्का ने पूर्वी मोर्चे पर गंगासागर की लड़ाई में अभूतपूर्व वीरता का परिचय दिया। गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद, उन्होंने अदम्य साहस दिखाते हुए दुश्मन के कई मशीन-गन ठिकानों पर हमला कर उन्हें समाप्त कर दिया। उनके इस पराक्रम ने उनकी बटालियन को उस महत्वपूर्ण लक्ष्य को हासिल करने में सक्षम बनाया, जिससे भारतीय सेना को बांग्लादेश की ओर बढ़ने में मदद मिली। दुश्मन की एक बेहद सुरक्षित और मजबूत किलेबंदी को भेदने में उनकी कार्रवाई निर्णायक साबित हुई।
16 दिसंबर 1971 को शकूरगढ़ की लड़ाई के दौरान, सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल ने जरपाल में पाकिस्तान के बख्तरबंद हमले के खिलाफ अपनी टुकड़ी का नेतृत्व किया। भीषण गोलाबारी के बीच असाधारण साहस का परिचय देते हुए उन्होंने दुश्मन के कई टैंकों को ध्वस्त कर दिया। जब उनके खुद के टैंक पर गोला लगा और वे गंभीर रूप से घायल हो गए, तब भी उन्होंने पीछे हटने से इनकार कर दिया और लगातार दुश्मन के टैंकों से लोहा लेते रहे। उनके इस अडिग साहस ने एक महत्वपूर्ण सेक्टर की सुरक्षा सुनिश्चित की। उनके बलिदान के कारण ही उस सेक्टर को भेदने की दुश्मन की हताशापूर्ण कोशिश नाकाम हो गई।

1971 के युद्ध के दौरान, श्रीनगर में तैनात नैट (Gnat) विमान के पायलट फ्लाइंग ऑफिसर निर्मल जीत सिंह सेखों ने मुश्किल परिस्थितियों और अत्यधिक ऊँचाई की चुनौतियों के बावजूद कश्मीर घाटी की रक्षा की। 14 दिसंबर 1971 को, जब पाकिस्तान के छह ‘सेबर’ (Sabre) जेट विमानों ने श्रीनगर हवाई अड्डे पर हमला बोला, तब वे मुश्किल परिस्थितियों के बावजूद उड़ान भरकर दुश्मन से भिड़ गए। दुश्मन की भारी तादाद और भीषण गोलाबारी के बीच उन्होंने आसमान में बेहद कम ऊँचाई पर उन लड़ाकू विमानों से डटकर लोहा लिया। इस डॉगफाइट के दौरान उनका विमान दुश्मन की गोलीबारी का शिकार होकर गिर गया। उनके इस अदम्य साहस ने न केवल दुश्मन के हमले को नाकाम कर दिया बल्कि श्रीनगर हवाई अड्डे को भी सुरक्षित रखा। फ्लाइंग ऑफिसर सेखों का यह सर्वोच्च बलिदान भारतीय वायु सेना में वीरता और शौर्य का एक शाश्वत मानक बन गया है।

दुनिया के सबसे ऊंचे युद्धक्षेत्र सियाचिन ग्लेशियर पर भारत की विजय गाथा में नायब सूबेदार बाना सिंह का नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। जून 1987 में ऑपरेशन मेघदूत के दौरान, उन्होंने 21,000 फीट की शून्य से नीचे जमा देने वाली ऊंचाई पर स्थित दुश्मन की एक अभेद्य पोस्ट को फतह करने के लिए स्वेच्छा से हिस्सा लिया। बर्फ की सीधी और फिसलन भरी दीवारों के बीच एक बेहद जोखिम भरे रास्ते को पार करते हुए बाना सिंह ने अपनी टुकड़ी का नेतृत्व किया। हड्डियां गला देने वाली ठंड और ऑक्सीजन की भारी कमी के बीच, उन्होंने दुश्मन के साथ आमने-सामने की भीषण जंग लड़ी। अपने अदम्य साहस और बेजोड़ नेतृत्व के दम पर उन्होंने अंततः उस पोस्ट पर भारतीय तिरंगा फहरा दिया।
25 नवंबर 1987 को, मेजर रामास्वामी परमेश्वरन श्रीलंका में एक तलाशी अभियान से लौट रहे थे, तभी रात के अंधेरे में आतंकवादियों ने उनकी टुकड़ी पर घात लगाकर हमला कर दिया। असाधारण सूझबूझ का परिचय देते हुए, उन्होंने कुशलता से अपने सैनिकों को संगठित किया और हमलावरों को चारों ओर से घेरकर जवाबी हमला बोला। आमने-सामने की भीषण लड़ाई के दौरान उनके सीने में गोली लगी, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। वे अंतिम सांस तक लड़ते रहे और अपने जवानों को आदेश देते हुए उनका हौसला बढ़ाते रहे। उनके इस शौर्य ने न केवल दुश्मन के हमले को नाकाम कर दिया, बल्कि राष्ट्र के लिए सर्वोच्च बलिदान देकर उन्होंने वीरता की एक नई मिसाल पेश की।
1999 का कारगिल युद्ध दुर्गम पहाड़ियों और भीषण गोलाबारी के बीच भारतीय शौर्य का गवाह बना। 7 जुलाई 1999 को, पॉइंट 4875 पर एक महत्वपूर्ण सैन्य अभियान के दौरान, कैप्टन विक्रम बत्रा की कंपनी को एक संकरी और खतरनाक पहाड़ी चोटी को दुश्मन से मुक्त कराने का जिम्मा सौंपा गया, जिसके दोनों ओर गहरी खाईयाँ थीं और जहाँ दुश्मन ने मजबूत किलेबंदी कर रखी थी। बेहद करीब से दुश्मन का सामना करते हुए, वे पूरी ताकत से लड़े और आमने-सामने की लड़ाई में पाँच दुश्मन सैनिकों को ढेर कर दिया। गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद, उन्होंने पीछे हटने के बजाय अग्रिम मोर्चे पर रहकर अपनी टुकड़ी का नेतृत्व करना जारी रखा और अंततः मातृभूमि की रक्षा में वीरगति प्राप्त की। उनके इस असाधारण साहस और नेतृत्व से प्रेरित होकर, उनके जवानों ने दुश्मन पर भीषण जवाबी हमला किया। भारतीय सेना ने दुश्मन का सर्वनाश करते हुए पॉइंट 4875 पर विजय का परचम फहराया।
टाइगर हिल पर हमले के दौरान, ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह यादव ने लगभग 16,500 फीट की ऊंचाई पर, बर्फ से ढकी एक सीधी और पथरीली चट्टान पर चढ़ने वाली टीम का नेतृत्व करने के लिए खुद को स्वेच्छा से प्रस्तुत किया। शरीर पर गोलियों के कई घाव होने के बावजूद, वे अविचलित भाव से आगे बढ़ते रहे। उन्होंने आमने-सामने की भीषण लड़ाई में दुश्मन के ठिकानों को नेस्तनाबूद कर दिया, जिससे उनकी टुकड़ी इस युद्ध के सबसे महत्वपूर्ण और कठिन लक्ष्यों में से एक, टाइगर हिल पर कब्जा करने में सफल रही।
ये गाथाएँ न केवल युद्ध के मैदान में मिली सफलताओं को दर्शाती हैं, बल्कि कर्तव्य, नेतृत्व और आत्म-बलिदान के उस गहरे आदर्श को भी प्रतिबिंबित करती हैं जो भारतीय सेना की पहचान है। परम वीर दीर्घा इन सभी वृत्तांतों को एक स्थान पर संजोती है, जो आगंतुकों को साहस के उस जीवंत इतिहास से रूबरू होने का अवसर देती है जिसने हमारे गणतंत्र को स्वरूप दिया है और जो आने वाली पीढ़ियों को निरंतर प्रेरित करता रहेगा।
वो स्थान, जहाँ शौर्य की गूँज सुनाई देती है
एक गंभीर विचार वाले गलियारे के रूप में डिज़ाइन की गई परम वीर दीर्घा का उद्देश्य दर्शकों को केवल विस्मित करना नहीं, बल्कि उन्हें एक अमिट छाप छोड़ने वाला अनुभव देना है। इसकी संरचना कुछ इस तरह तैयार की गई है जो आगंतुकों को ठहरने, हर शौर्य गाथा की गंभीरता को गहराई से समझने और इस सर्वोच्च सम्मान के पीछे छिपी मानवीय कहानियों को महसूस करने के लिए प्रेरित करती है। यहाँ संजोई गई ऐतिहासिक तस्वीरें, आधिकारिक प्रशस्ति-पत्र और बेहद सलीके से तैयार की गई प्रदर्शनियाँ इन वीरगाथाओं को बिना किसी तड़क-भड़क या दिखावे के जीवंत कर देती हैं। यहाँ का शांत वातावरण और प्रस्तुतीकरण यह सुनिश्चित करता है कि मर्यादा और गरिमा ही इस दीर्घा का मुख्य केंद्र बनी रहे। यह स्थान केवल युद्धों का वर्णन नहीं करता, बल्कि वीरता के उन क्षणों को सहेजता है जिन्होंने देश की नियति बदली।
प्रकाश, विस्तार और निशब्दता इस अनुभव की आत्मा हैं। यह दीर्घा अपने गौरव को शोर के साथ उद्घोषित नहीं करती, बल्कि यह साहस को स्वयं अपनी कहानी कहने का अवसर देती है। ऐसा करके, यह एक साधारण गलियारे को एक ऐसे जीवंत कालक्रम में बदल देती है, जो पीढ़ियों के बीच के फासले को मिटा देता है और हर आगंतुक को इस स्वतंत्रता के लिए चुकाई गई कीमत पर आत्म-चिंतन करने के लिए आमंत्रित करता है।
विजय दिवस: राष्ट्र के नायकों को समर्पित सच्ची श्रद्धांजलि
विजय दिवस के अवसर पर किया गया यह उद्घाटन परम वीर दीर्घा को और भी अधिक प्रासंगिक और प्रभावशाली बनाता है। प्रतिवर्ष 16 दिसंबर को मनाया जाने वाला विजय दिवस, 1971 के युद्ध में पाकिस्तान पर भारत की निर्णायक जीत और बांग्लादेश की मुक्ति के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। इस ऐतिहासिक अवसर पर दीर्घा को राष्ट्र को समर्पित कर, देश विजय और वीरता के बीच के अटूट संबंध को रेखांकित कर रहा है—यह एक ऐसा सेतु है जो ऐतिहासिक जीतों को उन वीर नायकों से जोड़ता है, जिनके अदम्य साहस ने इन्हें संभव बनाया।
स्मृति से परे: जहाँ बलिदान केवल इतिहास नहीं, बल्कि भविष्य की प्रेरणा है
यह दीर्घा केवल एक स्मारक नहीं है, यह एक संदेश है। यहाँ आने वाले युवा आगंतुकों के लिए यह उन आदर्शों का साक्षात्कार है जिन्हें पाठ्यपुस्तकें नहीं समझा सकतीं—निस्वार्थ भाव, अनुशासन और खुद से पहले सेवा का संकल्प। वहीं, वर्तमान सैनिकों और सेवानिवृत्त पूर्व सैनिकों के लिए यह इस विश्वास को पुख्ता करती है कि राष्ट्र अपने संरक्षकों को न केवल याद करता है और सम्मान देता है, बल्कि उनके बलिदानों से सीख भी लेता है।
व्यापक दृष्टि से देखें तो यह दीर्घा अपने अतीत के साथ भारत के विकसित होते संबंधों को दर्शाती है। यह इतिहास को स्वीकार करती है पर उसकी बेड़ियों में नहीं बंधती, बल्कि यह उन कहानियों को सामने लाती है जो हमारे गणतंत्र की नैतिक और संस्थागत नींव में अटूट विश्वास जगाती है।
स्मृति और सम्मान की यह भावना राष्ट्रपति भवन से कहीं आगे तक विस्तृत है। कुछ वर्ष पूर्व, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के 21 द्वीपों का नामकरण परम वीर चक्र विजेताओं के नाम पर करने की घोषणा की थी। यह कदम राष्ट्र की उस प्रतिबद्धता का प्रतीक है, जिसके तहत वह अपने नायकों को न केवल सांस्कृतिक पटल पर, बल्कि देश के भौगोलिक मानचित्र पर भी सर्वोच्च सम्मान प्रदान करना चाहता है।
परम वीर दीर्घा और सम्मान की ये तमाम पहलें एक साझा राष्ट्रीय दृष्टिकोण को अभिव्यक्त करती हैं। यह एक ऐसा दृष्टिकोण है, जो भारत के वर्तमान और भविष्य को उस साहस और बलिदान के साथ जोड़ता है जिसने इस राष्ट्र की विकास यात्रा को आकार दिया है।
एक जीवंत विरासत
जैसे-जैसे राष्ट्रपति भवन एक जन-मानस के स्थान के रूप में विकसित हो रहा है—जो अधिक खुला, सुलभ और भारत की विविधता का प्रतिबिंब है—वहाँ परम वीर दीर्घा एक शाश्वत उपस्थिति के रूप में अडिग खड़ी है। यह सुनिश्चित करती है कि साहस की ये सर्वोच्च मिसालें केवल इतिहास के पन्नों तक सीमित न रहें, बल्कि हमारे राष्ट्रीय जीवन के दैनिक ताने-बाने में रची-बसी रहें।
इस कॉरिडोर के कायाकल्प के माध्यम से भारत ने केवल दीवारों पर लगी तस्वीरों को ही नहीं बदला है, बल्कि सम्मान की पूरी परिभाषा को एक नया विस्तार दिया है। देश ने अपने सबसे बहादुर सपूतों को गणतंत्र की सबसे प्रतिष्ठित संस्था, राष्ट्रपति भवन के केंद्र में स्थान देकर एक नए युग की शुरुआत की है। परम वीर दीर्घा इस शाश्वत सत्य के जीवंत स्मारक के रूप में खड़ी है कि स्वतंत्रता कोई विरासत में मिलने वाली वस्तु नहीं है, इसे प्राप्त किया जाता है, इसकी रक्षा की जाती है और इसके लिए दिए गए बलिदानों को सदैव कृतज्ञता के साथ याद रखा जाता है।
इन चित्रों के माध्यम से मौन रूप में व्यक्त होते शब्दों ने वास्तव में इस कॉरिडोर के स्वरूप को बदल दिया है। यहाँ प्रदर्शित अदम्य साहस ने भारत की वीरतापूर्ण गौरवगाथा में एक ऐसा अमर अध्याय अंकित दिया है, जो समय की सीमाओं से परे है। यह दीर्घा अब केवल एक मार्ग नहीं, बल्कि भारतीय शौर्य का वह जीवंत दस्तावेज है जो आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का अटूट स्रोत बना रहेगा।
