राजन ! तुम *मिथ्याप्रतिज्ञ* हो

–गोविंद प्रसाद बहुगुणा-
किसी जमाने में गुरुकुल के आचार्यों और बुद्धिजीवियों में यह नैतिक साहस होता था कि वे अपने शासक के सामने जाकर कह सकते थे कि- तुम झूठे आदमी होIजब तुम हमारे सामने -सामने हमसे झूठा वादा कर सकते हो , तो साधारण जनता से तुम रोज कितना झूठ बोलते हो यह सहज अनुमान की बात है । तुम जिन लोगों से घिरे हो , वे तुम्हारे सामने तुम्हारी मन की बात कहते हैं , इसलिए तुम उनको अपना हितैषी समझते हो . .यह प्रसंग वाल्मीकि रामायण का है ,जब विश्वामित्र राजा दशरथ से यह अनुरोध करने गए गये थे कि अपने बेटों को कुछ समय के लिए मेरे आश्रम में भेज दीजिए ..दशरथ पुत्र मोह के कारण उन्हें भेजने को तैयार नहीं थे तब विश्वामित्र को यह सब कहना पड़ा कि – “यदीदं ते क्षमं राजन् गमिष्यामि यथागतम्।
मिथ्याप्रतिज्ञ काकुत्स्थ सुखी भव सुहृदवृतः”-राजन् !यदि तुम्हें ऐसा ही उचित प्रतीत होता है तो मैं जैसे आया था वैसे ही लौट जाऊंगा, अब तुम अपनी प्रतिज्ञा झूठी करके अपने हितैषी सुहृदों से घिरे रहकर सुखी रहो। …” विश्वामित्र के आश्रम का नाम सिद्धाश्रम था जिसमें राजकुमारों को अस्त्र शस्त्र का प्रशिक्षण दिया जाता था।
“सिद्धाश्रम इति ख्यात:सिद्धो ह्यत्र महातपा:।” आखिर वशिष्ठ के समझाने पर राजा दशरथ ने राम और लक्ष्मण को विश्वामित्र के आश्रम में भेजने के लिए तैयार हो गये थे । सिद्धाश्रम में विश्वामित्र अपने सहयोगी ऋषियों के साथ अनुसंधान और शोध कार्य करते रहते थे इसलिए उस आश्रम का नाम सिद्धाश्रम रखा गया था ।
सिद्धाश्रम में प्रशिक्षण के दौरान आश्रम की सुरक्षा व्यवस्था का दायित्व राम और लक्ष्मण द्वारा सफलतापूर्वक निभाने पर प्रसन्न हुए विश्वामित्र ने उन दोनों भाइयों की प्रशंसा में कहा था कि -“कृतार्थो स्मि महाबाहो कृते गुरुवचस्त्वया। सिद्धाश्रममिदं सत्यं कृतं वीर महायशः।।” -हे महाबाहु राम! मैं तुम्हें पाकर कृतार्थ हो गया।तुमने गुरु की आज्ञा का पूर्ण रूप से पालन किया। यशस्वी वीर ! तुमने इस सिद्धाश्रम का नाम सार्थक कर दिया ।
पढ़ाई- लिखाई के समय विश्वामित्र ने राम और लक्ष्मणको युद्धास्त्रों के बारे में भीउन्हें प्रशिक्षण दिया था ..जनकपुर में शिवधनुष का तोड़ना भी उसी प्रशिक्षण कार्यक्रम का एक हिस्सा था क्योंकि विश्वामित्र ही राम और लक्ष्मण को जनकपुरी ले गये थे , राम लक्ष्मण वहां विवाह करने थोडे़ ही गये थे , भले ही धनुषभंग करने की शर्त जीतने का मतलब जनक की पालित पुत्री सीता से विवाह करना एक अनुषांगिक शर्त थी इस अभियान के पीछे भी विश्वामित्र की एक योजना भी थी धनुष भंग के बहाने युद्धविशेषज्ञ परशुराम जी को चुनौति देने में सफल हुए और बेचारे परशुराम को *विष्णु अवतार* के पद से त्यागपत्र देना पड़ा -राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू॥ देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ॥ –
परशुराम जी ने भी चुपचाप विष्णु अवतारी वाले पद से त्यागपत्र देकर अज्ञात वास पर चले गये थे। यह भी रामायण काल की सर्वाधिक चर्चित घटना थी। सम्मान लौटाने की शुरुआत स्वाभिमानी बुद्धि जीवी परशुराम ने ही की थी। …
