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कब छंटेगा कुहासा – आखिर गैरसैंण गैर क्यों?

–दिनेश शास्त्री
उत्तराखंड की पांचवीं विधानसभा का बजट सत्र गैरसैंण में होने जा रहा है। सरकारी अमला देहरादून से रवाना हो गया है। पिकनिक का पूरा इंतजाम है, रहने, ठहरने, खाने – पीने की व्यवस्था में कोई कमी न रह जाए, इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है। सेहत के लिए चमोली जिले के अस्पतालों से बुला कर मेडिकल स्टाफ तैनात हो गया है। सुरक्षा के लिए पुलिस तैनात हो गई है। कुछ लोग पहुंच गए हैं तो कुछ पहुंचने वाले हैं। यह व्यवस्था अनिवार्य है लेकिन मूल सवाल जो अस्कोट से आराकोट तक को मथता है, वह गायब है। सवा दो दशक बीतने जा रहे हैं लेकिन स्थाई राजधानी के नाम पर सबको सांप सूंघ जाता है। इस पर कोई बात नहीं करना चाहता, हालांकि राजनीतिक दलों के कुछेक नेता चाहते तो हैं कि इस मुद्दे का समाधान हो किंतु कुछ अदृश्य हाथ उनके मुंह को ऐसे रोके हुए हैं कि वाणी पंगु हो जाती दिखती है। वस्तुत: उत्तराखंड में आम जनभावनाएं हमेशा से गैरसैंण के पक्ष में रही हैं। तब भी जब उत्तराखंड के लिए संघर्ष चरम पर था और आज भी। 1992 में उत्तराखंड क्रांति दल ने अपने 14वें महाधिवेशन में बाकायदा गैरसैंण को चंद्रनगर नाम देते हुए वहां राजधानी का शिलान्यास तक कर दिया था। बाद में उत्तर प्रदेश विधानसभा की कौशिक समिति ने भी 1994 में गैरसैंण की मांग पर सहमति जताई लेकिन जब राज्य बना तो गैरसैंण चक्रव्यूह में फंस गया और आज तक उससे बाहर नहीं निकल पाया है। यह हाल तब है जबकि प्रदेश की आम जनता गैरसैंण के पक्ष में खड़ी रही है।
यही कारण है कि प्रदेश में कोई भी राजनीतिक दल कभी इस स्थिति में नहीं रहा कि गैरसैंण राजधानी बनाए जाने की बात को सिरे से ख़ारिज कर सके। लिहाजा इस मांग को टालते रहना और स्थायी राजधानी के मुद्दे को लंबित रखना ही हर राजनीतिक दल को सबसे मुफ़ीद विकल्प लगता रहा है लेकिन एक बार फिर जिस तरह से यह मांग धीरे-धीरे व्यापक हो रही है, उसे देख कर लगता है कि इसे और ज्यादा टाल पाना शायद सरकार के लिए बेहद मुश्किल हो। वैसे अभी तक का अनुभव यही बताता है कि टालमटोल की नीति के सहारे राजनीतिक दल अपना हितसाधन करने में सफल भी हुए हैं।
सच यह है कि देहरादून का मोह छोड़ने के लिए नौकरशाही तैयार नहीं है और राजनीतिक नेतृत्व में इतना साहस नहीं कि वह जनभावनाओं का सम्मान करवा सके। यह बात किसी एक दल की नहीं, बल्कि राज्य स्थापना के पहले दिन से लकीर की तरह खिंच गई है। नतीजतन स्थाई राजधानी का मुद्दा हाशिए पर जस का तस खड़ा है।
देहरादून जो शिक्षा केंद्र के रूप में देश दुनिया में जाना जाता था, उसकी आज खिचड़ी पहचान बन गई है। शहर पर इतना अधिक बोझ लाद दिया गया है कि वह कराह रहा है। नतीजा यह हुआ कि न तो गैरसैंण के मुद्दे का समाधान हुआ और न ही देहरादून का। मन बहलाने के लिए स्मार्ट सिटी का झुनझुना जरूर हमारे पास है लेकिन जब स्कूलों की छुट्टी होती है या फिर दफ्तरों की, उस समय लगने वाला जाम कोफ्त ही पैदा करता है। खासकर मासूम बच्चों पर होने वाली ज्यादती को कोई महसूस करने को तैयार नहीं है।
वैसे यह बात दोहराने की जरूरत नहीं है कि पृथक राज्य स्थापना के साथ ही जनमानस ने गैरसैंण को राजधानी के रूप में परिकल्पित किया गया था । हालांकि, 9 नवंबर 2000 को राज्य के गठन के बाद, देहरादून को राज्य की अस्थाई राजधानी बना दिया गया। यह उस समय की तात्कालिक आवश्यकता मान भी ली जाए तो भी राजनीतिक नेतृत्व को बरी नहीं किया जा सकता कि उसने जनभावनाओं की घोर उपेक्षा की है। राज्य बन जाने के बाद उत्तराखंड सरकार ने स्थायी राजधानी की खोज के लिए दीक्षित आयोग का गठन किया गया था; लेकिन आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि “अंतरिम राजधानी, देहरादून, राष्ट्रीय राजधानी से इसकी दूरी, केंद्रीकृत जनसंख्या और प्राकृतिक प्रदूषण से सुरक्षा जैसे कारणों के कारण देहरादून ही ज्यादा मुफीद है”।
आपको याद होगा वर्ष 2012 में तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने पहली बार गैरसैंण में कैबिनेट बैठक कर पहाड़ियों के सपनों को पंख लगाए थे। उसके बाद उत्तराखंड विधानसभा का तीन दिवसीय विधानसभा सत्र 9 से 12 जून तक 2014 गैरसैंण में आयोजित किया गया था। इस घटना से, उम्मीद बढ़ी थी कि निकट भविष्य में राज्य की स्थायी राजधानी गैरसैंण ही बनेगा।  वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने का वादा किया तो त्रिवेंद्र सिंह रावत की सरकार ने चार मार्च 2020 को गैरसैंण में हुए विधानसभा के बजट सत्र में ग्रीष्मकालीन राजधानी की घोषणा कर चुनावी वादा पूरा कर डाला लेकिन चुनावी वादों की परिणिति क्या होती है, गैरसैंण की स्थिति को इसी से आंका जा सकता है कि उसके बाद अब वहां 13 मार्च से विधानसभा सत्र होने जा रहा है। हाल यह है कि अभी भी गैरसैंण में पर्याप्त अवसंरचना उपलब्ध नहीं है। ऐसे में ग्रीष्मकालीन राजधानी की बात तब तक अधूरी है जब तक कि वहां कुछ दिन रह कर राजकाज न चला दिया जाए। ग्रीष्मकालीन राजधानी सिर्फ तीन चार दिन का बजट सत्र चलाने से नहीं हो जाती। चार दिन की सैर से कोई मकसद हल नहीं होता। यह बात नेता बेशक न समझें लेकिन जनता जिसे अक्सर भोली माना जाता है, खूब समझती है। सीधी सी बात है जब तक एक चौमासा गैरसैंण से राजकाज नहीं चलता तब तक ये एक प्रहसन से अधिक कुछ नहीं है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गैरसैंण उत्तराखंड की जनता के लिए महज एक शहर बसाने भर जैसा नहीं बल्कि भावनाओं का मामला है। आप खुद चिंतन करें, गैरसैंण में सरकार बैठे तो पहाड़ों की कितनी समस्याएं एक झटके में दूर हो सकती हैं। पहाड़ों में शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, खाद्यान्न जैसी समस्याओं का समाधान होते देर नहीं लगेगी। जब सत्ता में बैठे लोग महसूस करेंगे की पहाड़ की जिंदगी पहाड़ जैसी है तो निश्चित रूप से हरकत में आएगी। मान लिया जाए कि भारी बारिश में सड़कें अवरुद्ध हो गई हों, उस स्थिति में सरकार की तत्परता कितनी हो सकती है, इसका आप अंदाजा लगा सकते हैं, जबकि देहरादून से उस तत्परता की उम्मीद करना बेमानी है। जब आप किसी तकलीफ से दो चार होते हैं, तभी उसके निवारण का रास्ता निकलता है। देहरादून से आदेश तो दिए जा सकते हैं लेकिन उन आदेशों का धरातल पर क्रियान्वयन देख नहीं सकते। आप केवल कागज़ पर भरोसा करने के लिए विवश होते हैं। गैरसैंण में चार माह बिता कर देख लीजिए, वन्य जीवों का आतंक समझ में आएगा तो खाली हो रहे गांवों की समस्या का समाधान भी निकल आएगा लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि वह भगीरथ कौन होगा जो जनता की आशाओं, आकांक्षाओं, अपेक्षाओं और उम्मीदों को पूरा करने का संकल्प लेकर आगे बढ़े।
लगे हाथ आपको एक किस्सा बता देना उचित रहेगा। अभी तक जो स्थिति है, उसे समझने के लिए यह किस्सा मुफीद रहेगा। हुआ यह कि बीते साल केदार घाटी में बंदरों के आतंक की एक के बाद एक घटनाएं हुई। करीब आधा दर्जन महिला और पुरुष बंदरों के हमलों में घायल हुए। धन संपत्ति, खेत खलिहान के नुकसान की कोई सीमा न तब थी, न अब है। बहरहाल कुछ लोगों ने सीएम हेल्पलाइन पर अपनी समस्या दर्ज कराई। हेल्पलाइन से बताया गया कि आपकी समस्या का निस्तारण कर दिया गया है। हालांकि बंदरों का आतंक आज भी जस का तस बरकरार है और कई लोगों ने खेती करना छोड़ दिया है। इस हालत में भोले लोग मानते हैं कि गैरसैंण में सरकार होती तो और कुछ नहीं तो कम से कम इन बंदरों का इलाज तो हो ही जाता। सरकार के ही मंत्री मानते हैं की बंदरों का बंध्याकरण बहुत कम हुआ है, इसे 70 फीसद तक होना चाहिए लेकिन सुई तो दस फीसद पर अटकी है। देहरादून से तो इतना ही हो सकता है, जितना हम स्मार्ट सिटी का हाल देख रहे हैं। देहरादून कितना स्मार्ट हुआ है, इसकी जानकारी आप मुझे भी दे सकें तो अनुग्रह होगा।
बात फिर वहीं आ जाती है कि नकली राजधानी के खतरे से हम कब वाकिफ होंगे। नौकरशाही के मिजाज को देखते हुए तो नहीं लगता कि देहरादून को कभी मुक्ति मिलेगी लेकिन उससे बड़ा सवाल यह है कि क्या सचमुच गैरसैंण ग्रीष्मकालीन राजधानी बन पाएगा? फिलहाल तो नहीं लगता। यदि आप चार दिन के सत्र को ग्रीष्मकालीन राजधानी मान बैठे हैं तो यह भ्रम से अधिक कुछ नहीं है। होना तो यह चाहिए कि पूरे छह माह राजधानी गैरसैंण में रहे। सब कुछ वहीं से संचालित हो लेकिन अभी यह सपना जैसा ही है या दूसरे शब्दों में कहें तो आसमान से तारे तोड़ने जैसा कहा जा सकता है। फिर भी उम्मीद की जानी चाहिए कि पहाड़ियों का यह सपना किसी दिन साकार हो जाए, यह कामना तो की ही जा सकती है। वैसे इस समय युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के पास युगपुरुष बनने का एक अवसर है। यदि वे यह सब कर पाए तो वे उत्तराखंड के लिए एक बड़ा काम कर सकते हैं। निसंदेह यह काम इतना आसान नहीं है लेकिन दृढ़ इच्छाशक्ति के आगे कुछ भी असंभव नहीं होता। जरूरत इसी बात की है।

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