अंबेडकर ने अकेले नहीं बनाया था भारत का संविधान
The moment the Indian Constitution is mentioned, the first name that comes to mind is Dr. B.R. Ambedkar, and rightly so. He was the Chairman of the Drafting Committee of the Constitution, and the clarity, foresight, and commitment to social justice with which he shaped the Constitution stands as a model for any democratic nation. He laid the foundation for India to become not just a political democracy, but also a social democracy. But is the Indian Constitution solely Ambedkar’s legacy? Was it the result of a single individual’s intellectual prowess, or was it a reflection of the collective consciousness and leadership of India at that time? Finding answers to these questions has become especially important today, because on the one hand, there is a tendency to limit the Constitution to Ambedkar alone, and on the other, there is a political effort underway to downplay his contributions.
– जयसिंह रावत
भारतीय संविधान की चर्चा होते ही पहला नाम डॉ. भीमराव अंबेडकर का आता है , और आना भी चाहिए। वे संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष थे और उन्होंने जिस स्पष्टता, दूरदृष्टि और सामाजिक न्याय की भावना के साथ संविधान को आकार दिया, वह किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए एक आदर्श है। उन्होंने भारत को केवल एक राजनीतिक लोकतंत्र नहीं, बल्कि सामाजिक लोकतंत्र बनाने की दिशा में नींव रखी। लेकिन क्या भारतीय संविधान केवल अंबेडकर की देन है? क्या यह एक व्यक्ति की बौद्धिक शक्ति का परिणाम था, या फिर यह उस समय के भारत की सामूहिक चेतना और नेतृत्व का प्रतिबिंब था? इन प्रश्नों का उत्तर तलाशना आज इसलिए भी ज़रूरी हो गया है क्योंकि एक तरफ संविधान को केवल अंबेडकर तक सीमित करने की प्रवृत्ति है, तो दूसरी ओर उनके योगदान को कमतर आँकने की राजनीति भी चल पड़ी है।
मसौदा समिति: कानूनी विद्वानों और नेतृत्व का संगम
संविधान मसौदा समिति केवल डॉ. अंबेडकर तक सीमित नहीं थी। इसमें अल्ली कृष्णास्वामी अय्यर, के. एम. मुंशी, एन. गोपालस्वामी अयंगार, मोहम्मद सादुल्ला, डी. पी. खेतान और बाद में शामिल हुए टी. टी. कृष्णमाचारी जैसे प्रतिष्ठित कानूनविद् और प्रशासक थे। प्रत्येक सदस्य ने संविधान को सशक्त और संतुलित बनाने में अपनी गहन विशेषज्ञता का योगदान दिया। के. एम. मुंशी ने जहां सांस्कृतिक स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों पर ज़ोर दिया, वहीं गोपालस्वामी अयंगार ने राज्यों के बीच शक्ति संतुलन की बारीक समझ प्रस्तुत की। मोहम्मद सादुल्ला ने अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए जोरदार पैरवी की। ये सभी विचार, मतभेदों के बावजूद, संविधान में समाहित किए गए — यही लोकतंत्र की बुनियाद है।
बी. एन. राव: एक अदृश्य शिल्पकार
संविधान निर्माण की प्रक्रिया में एक नाम बार-बार छूट जाता है — बी. एन. राव, जो संविधान सभा के आधिकारिक संविधानिक सलाहकार थे। उन्होंने विश्व के प्रमुख संविधानों का तुलनात्मक अध्ययन कर भारत के लिए एक प्रारंभिक मसौदा तैयार किया। उनका यह मसौदा बाद में मसौदा समिति के काम का आधार बना। यदि अंबेडकर ने संविधान को जीवन दिया, तो बी. एन. राव ने उसकी रूपरेखा तैयार की।
संविधान के राजनीतिक शिल्पकार
संविधान केवल कानून का ग्रंथ नहीं है, वह भारत के राजनीतिक और नैतिक दर्शन का दस्तावेज़ भी है। जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जैसे नेताओं ने इसकी विचारधारा को आकार दिया। नेहरू का उद्देश्य प्रस्ताव स्वतंत्रता, समानता, और धर्मनिरपेक्षता की आधारशिला बना। सरदार पटेल ने भारतीय संघ को एकीकृत कर संविधान को जमीन पर उतरने लायक बनाया। मौलाना आज़ाद ने शिक्षा और अल्पसंख्यक अधिकारों को संविधान का अभिन्न हिस्सा बनाने में निर्णायक भूमिका निभाई।
स्त्री और समाज की आवाज़
इस पुरुष प्रधान संविधान सभा में हंसा मेहता, राजकुमारी अमृत कौर, और दुर्गाबाई देशमुख जैसी महिलाओं ने स्त्री अधिकारों, शिक्षा और सामाजिक न्याय के पक्ष में प्रभावशाली आवाज़ उठाई। हंसा मेहता ने संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार घोषणापत्र में “पुरुष” के स्थान पर “मानव” शब्द जोड़कर वैश्विक विमर्श को भी दिशा दी। यह भारतीय संविधान की उदारता और दूरदृष्टि का प्रमाण है।
संविधान: संवाद का दस्तावेज़
भारतीय संविधान किसी एक व्यक्ति की बौद्धिक थाती नहीं, बल्कि वह संवाद, सहमति और सहिष्णुता का प्रतीक है। यह 299 सदस्यों वाली एक विविधतापूर्ण सभा का साझा प्रयास था, जिसमें हर विचारधारा, हर वर्ग, हर क्षेत्र की भागीदारी थी। इसमें मतभेद थे, बहसें थीं, टकराव थे — लेकिन इन सबसे ऊपर था एक साझा सपना: एक समावेशी, न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक भारत।
आज जब संविधान की मूल आत्मा को संकीर्ण राजनीतिक नजरिए से देखा जाने लगा है, तब यह याद दिलाना ज़रूरी है कि डॉ. अंबेडकर उस विराट परियोजना के ध्वजवाहक थे, जिसे अनेक महान व्यक्तित्वों ने मिलकर आकार दिया था। उन्हें सीमित करना उनके योगदान को सीमित करना होगा। और अन्य योगदानकर्ताओं को भुलाना, उस लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अपमानित करना होगा, जिससे यह संविधान जन्मा।
केवल अंबेडकर का नहीं
संविधान अंबेडकर का है, लेकिन वह केवल अंबेडकर का नहीं है। यह उस समय के भारत की बौद्धिक चेतना, राजनीतिक दूरदृष्टि और सामाजिक प्रतिबद्धता का समेकित दस्तावेज़ है। इसे केवल किसी एक व्यक्ति का काम मानना, उसके सामूहिक चरित्र को कमज़ोर करना है। और भारत जैसे विविध देश में, लोकतंत्र का कोई भी सपना तब तक मुकम्मल नहीं हो सकता, जब तक वह सबकी साझेदारी से न बुना गया हो।
(लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं –एडमिन)