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बद्रीनाथ और मंगलोर उपचुनाव :नाक का सवाल- इधर भी, उधर भी !

 

-दिनेश शास्त्री-

दस जुलाई को उत्तराखंड में दो विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव हो रहा है। पृथक राज्य गठन के बाद अब तक कुल 15 उपचुनाव हो चुके हैं। अंतिम उपचुनाव बागेश्वर सीट पर हुआ था। वह सीट कैबिनेट मंत्री चंदन राम दास के निधन के बाद रिक्त हुई थी और उसमें भाजपा प्रत्याशी पार्वती दास जीती थी। उस चुनाव में प्रभारी मंत्री के नाते सौरभ बहुगुणा के कंधों पर जीत का दायित्व था। पार्वती दास जीती जरूर लेकिन इस मार्जिन से नहीं, जितने मार्जिन से उनके पति चंदन राम दास जीते थे।

बहरहाल जीत भाजपा हुई और उससे पहले हुए चंपावत उपचुनाव में भाजपा को जो जीत मिली वह ऐतिहासिक रही है जिसमें कांग्रेस प्रत्याशी निर्मला गहतोड़ी पांच अंकों में वोट हासिल नहीं कर पाई। फिर जमानत कैसे बचती। वैसे प्रदेश में हुए पहले उपचुनाव में एन डी तिवारी ने भी रिकॉर्ड मतों के अंतर से जीत दर्ज की थी। तिवारी ने 75 प्रतिशत से अधिक मत हासिल कर रिकॉर्ड जीत दर्ज की थी, जबकि भाजपा प्रत्याशी महज ढाई हजार मत ही हासिल कर पाए थे। किंतु उस उपचुनाव की विशेषता यह थी कि नामांकन के बाद तिवारी कभी वोट मांगने नहीं गए थे।

उन्होंने नामांकन के साथ ही लोगों से पूछ लिया था कि उन्हें चुनाव प्रचार के लिए आना चाहिए या नहीं तो लोगों ने हाथ हिला कर कह दिया था कि उनके आने की जरूरत नहीं है और वह उपचुनाव विशुद्ध रूप से पार्टी ने लड़ा और कांग्रेस को 75 फीसदी मत मिले। उसके बाद वर्ष 2022 में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के खटीमा से हारने के बाद उनके लिए विजयी प्रत्याशी कैलाश चंद्र गहतोड़ी ने सीट खाली की थी।

धामी ने एन डी तिवारी से बड़ी लकीर खींचते हुए 97 प्रतिशत वोट हासिल किए थे। उस उपचुनाव में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और कांग्रेस की निर्मला गहतोड़ी के बीच सीधा मुकाबला था लेकिन निर्मला को सिर्फ 3,233 वोट मिले जबकि धामी को 58,258 वोट प्राप्त हुए थे। याद रहे कि उस उपचुनाव मात्र 61 हजार लोगों ने ही वोट किया था। यानी करीब 97 फीसदी वोट धामी के खाते में गए। आप कह सकते हैं कि उस तरह का चुनाव अतीत में न कभी हुआ और भविष्य में भी शायद हो।

उससे पहले तीन और मुख्यमंत्रियों के लिए भी उपचुनाव हुए हैं। मुख्यमंत्री का पहला उपचुनाव मेजर जनरल बी सी खंडूड़ी के लिए धुमाकोट में हुआ था और उनके लिए कांग्रेस के ले. जनरल टीपीएस रावत ने सीट खाली की थी। धुमाकोट सीट के नाम से वह अंतिम चुनाव था।

उसके बाद वह क्षेत्र लैंसडाउन का हिस्सा हो गया। उस उपचुनाव में खंडूड़ी ने कांग्रेस के सुरेंद्र सिंह नेगी को 14 हजार वोटों से हराया था। यहां एक दिलचस्प बात यह है कि 2007 में खंडूड़ी चाहते थे कि पौड़ी से निर्वाचित विधायक यशपाल बेनाम उनके लिए सीट खाली करें लेकिन बेनाम ने साफ इंकार कर दिया था। तब बेनाम विधानसभा की राजनीति में पहली बार आए थे।

उन्होंने खंडूड़ी के खासुलखास तीरथ सिंह रावत को मात्र 11 वोटों के अंतर से पराजित किया था। बेनाम द्वारा भाजपा का आग्रह ठुकराए जाने का नतीजा यह हुआ कि जहां चमोली जिले से जीते निर्दलीय राजेंद्र भंडारी को मंत्री पद मिला, उसके विपरीत बेनाम महज बेनाम बन कर रह गए थे। बेशक उनका भाजपा सरकार को समर्थन था किंतु सरकार में उन्हें कभी तवज्जो नहीं मिली।

आज विडंबना देखिए कि खुद बेनाम आज भाजपा में हैं किंतु वह जलवा ए जोश नहीं मिला जो उन्हें 2007 में मिल सकता था। आखिर मुख्यमंत्री को सीट खाली करने का बड़ा पुरस्कार तो मिलता ही है। रामनगर में तिवारी के लिए सीट खाली करने वाले योगम्बर सिंह रावत को भी तो मिला ही था।

अब बात करते हैं अगले मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की। 2012 में कांग्रेस की सरकार बनी तो तिवारी सरकार में योजना आयोग संभाल चुके विजय बहुगुणा की मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी हुई। वे विधायक नहीं थे तो उनके लिए कांग्रेस ने धुमाकोट का हिसाब सितारगंज में बराबर किया।

धुमाकोट में भाजपा ने कांग्रेस के विधायक को तोड़ा तो सितारगंज में कांग्रेस ने भाजपा विधायक किरन मंडल का इस्तीफा करवाया। 2012 के सितारगंज उपचुनाव में विजय बहुगुणा ने भाजपा के प्रकाश पंत को करीब 40 हजार मतों के अंतर से पराजित किया था। उसके बाद अगले मुख्यमंत्री हरीश रावत बने तो उनके लिए पिथौरागढ़ जिले की धारचूला सीट खाली कराई गई।

धारचूला से कांग्रेस के विधायक हरीश धामी थे। धामी ने रावत के लिए सीट खाली कर अपना कद बढ़ा लिया था। उस उपचुनाव में हरीश रावत ने धारचूला विधानसभा सीट से 30260 वोट पाकर जीत दर्ज की थी। उन्‍होंने भाजपा के उम्‍मीदवार बीडी जोशी को 19605 वोटों से हाराया था। जोशी को मात्र 10608 वोट मिले थे।

खास बात यह कि इस उपचुनाव से कुछ महीने पहले ही लोकसभा चुनाव हुए थे, जिसमें प्रदेश से कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया था अलबत्ता अल्मोड़ा – पिथौरागढ़ सीट के अंतर्गत आने वाले धारचूला विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस ने तब भी करीब ढाई हजार वोटों की बढ़त ली थी, बेशक बाकी क्षेत्रों में कांग्रेस का प्रदर्शन निराशाजनक रहा था। कदाचित इसी कारण हरीश रावत के लिए इस सेफ सीट को चुना गया था। हालांकि उसी समय दो अन्य सीटों के लिए हुए उपचुनाव में भी कांग्रेस की ही जीत दर्ज हुई थी और एक तरह से तीन माह पहले का मोदी मैजिक उन उपचुनावों में बिल्कुल नहीं चला था।

एक तथ्य यह भी है कि धारचूला विजय के बाद हरीश रावत कोई चुनाव नहीं जीते अलबत्ता हरिद्वार ग्रामीण से 2022 में वे अपनी बेटी को चुनाव जिताने में जरूर सफल रहे किंतु 2024 के लोकसभा चुनाव में उसी सीट पर वे अपने बेटे वीरेंद्र रावत को बढ़त नहीं दिलवा पाए। इस सीट पर उनका बेटा करीब पांच हजार वोटों से पिछड़ गया जबकि यहां से उम्मीद थी कि हरीश रावत बेटी से ज्यादा जनसमर्थन बेटे को दिलवाएंगे किंतु यह धारणा भी धरी रह गई।

कुल मिलाकर उत्तराखंड में विधानसभा उपचुनाव का गणित हमेशा सत्ताधारी दल के पक्ष में झुका रहा है। अब तक हुए कुल 15 में से 14 उपचुनावों में सत्ता पक्ष को जीत मिली है। 2002 में रामनगर से तिवारी के निर्वाचन के बाद प्रथम विधानसभा में ही द्वाराहाट में यूकेडी के विधायक विपिन त्रिपाठी के निधन से उपचुनाव कराना पड़ा था, जिसमें यूकेडी के टिकट पर त्रिपाठी के पुत्र पुष्पेश त्रिपाठी निर्वाचित हुए। यही एकमात्र अपवाद है जब इसके बाद प्रदेश में 13 सीटों पर अलग- अलग समय में उपचुनाव हो चुके हैं, जिसमें हर बार हमेशा की तरह सत्ताधारी दल को ही सफलता मिली है।

एक बात और 2014 में डोईवाला से भाजपा विधायक रमेश पोखरियाल निशंक के हरिद्वार लोकसभा सीट से चुने जाने के बाद हुए उपचुनाव में भी कांग्रेस को ही सफलता मिली थी जबकि खुद निशंक प्रचंड बहुमत से जीते थे लेकिन उनके कारण खाली हुई विधानसभा सीट भाजपा हार गई थी। भगवानपुर से कांग्रेस के विधायक के निधन से रिक्त हुई सीट पर उनकी पत्नी ममता राकेश जीती थी जबकि पिथौरागढ़ में प्रकाश पंत के निधन के बाद उनकी पत्नी जीती।

इसी तरह अल्मोड़ा की सल्ट सीट पर सुरेंद्र सिंह जीना के निधन के बाद उनके भाई जीते। थराली सीट का उपचुनाव भी इसी लीक पर रहा था।निष्कर्ष यह कि द्वाराहाट से पुष्पेश त्रिपाठी के निर्वाचन को छोड़ दें तो उपचुनाव में सत्तारूढ़ दल ही जीतता रहा है। 2002 से 2024 तक का इतिहास तो यही सिद्ध करता है।

अब 2024 में बदरीनाथ और मंगलौर सीटों के लिए उपचुनाव हो रहा है। बदरीनाथ में राजेंद्र भंडारी के कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल होने के कारण दिए इस्तीफे के चलते उपचुनाव हो रहा है तो मंगलौर में बसपा विधायक हाजी करीम अंसारी के निधन के कारण।

अब जबकि बुधवार को चुनाव हो रहा है तो देखना यह है कि इस बार रिवाज देखने को मिलेगा या अपवाद? अपवाद इसलिए कि मंगलौर सीट पर भाजपा की 2002 से 2024 तक कभी दाल नहीं गली। भाजपा यहां हमेशा तीसरे नंबर की खिलाड़ी रही है।

हालिया लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने यहां बेहद शानदार करीब 23 हजार से अधिक मतों की लीड ली थी। इस बार सूखा खत्म करने के उद्देश्य से भाजपा ने हरियाणा के पूर्व कैबिनेट मंत्री करतार भड़ाना को मैदान में उतारा है। इस लिहाज से यह उपचुनाव काफी रोचक बना हुआ है। उधर बदरीनाथ सीट पर जीत हार हमेशा मामूली अंतर से होती रही है। कभी भाजपा तो कभी कांग्रेस यहां जीत दर्ज करती रही।

हालांकि इस बार परिस्थितियां काफी बदली हुई हैं और उसी अनुपात में भाजपा और कांग्रेस दोनों की प्रतिष्ठा इस सीट पर दांव पर लगी है। देखा जाए तो कांग्रेस से ज्यादा भाजपा के लिए यह उपचुनाव प्रतिष्ठा का प्रश्न बना हुआ है। इस क्षेत्र से लोकसभा सदस्य अनिल बलूनी अभी करीब आठ हजार से अधिक मतों की बढ़त दर्ज करके गए हैं।

पिछले विधानसभा चुनाव में राजेंद्र भंडारी के प्रतिद्वंदी रहे महेंद्र भट्ट इस समय भाजपा के न सिर्फ प्रदेश अध्यक्ष हैं बल्कि राज्यसभा के नवनिर्वाचित सदस्य भी हैं। अब जबकि भंडारी उनके पाले में आ चुके हैं तो धुर विरोधी को चुनाव जिता कर विधानसभा पहुंचाना उनकी न सिर्फ मजबूरी बल्कि इज्जत का सवाल भी बना हुआ है और नाक का सवाल तो सबसे ज्यादा मुख्यमंत्री के लिए है।

इस उपचुनाव के परिणाम से तो कई लोगों का कद निर्धारित होना है। इंतजार कीजिए 13 जुलाई को दोनों सीटों के मतदाता क्या फैसला सुनाते हैं। वैसे इस उपचुनाव से राज्य अथवा केंद्र की सरकारों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ना है फर्क सिर्फ इकबाल और जलवा ए जलाल का है। कांग्रेस जीती तो उसका इकबाल बुलंद होगा, उससे ज्यादा उसके पास कुछ नहीं है और न ही उसके पास खोने के लिए कुछ है।

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