भगोरिया होली: रंगों, प्रेम और परंपरा का अनूठा संगम
-जयसिंह रावत
मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के भील व भिलाला जनजातियों में होली का उत्सव सिर्फ रंगों का पर्व नहीं, बल्कि जीवनसाथी चुनने का एक अनूठा अवसर भी होता है। इसे भगोरिया कहते हैं, जो न केवल एक त्योहार है, बल्कि एक सांस्कृतिक परंपरा भी है, जिसमें प्रेम, स्वतंत्रता और समुदाय की सहमति का सुंदर समन्वय देखने को मिलता है।
भगोरिया उत्सव होली से एक सप्ताह पहले शुरू हो जाता है और यह झाबुआ, आलीराजपुर, खरगोन, धार जैसे आदिवासी बहुल जिलों में बड़े मेलों के रूप में आयोजित होता है। यह मेला विभिन्न गाँवों में घूम-घूमकर मनाया जाता है। यहां युवक और युवतियां पारंपरिक वेशभूषा में सजकर आते हैं। रंगों के इस त्योहार में प्रेम की अभिव्यक्ति का भी एक खास तरीका है—यदि कोई युवक किसी युवती को पसंद करता है, तो वह उसे गुलाल लगाता है। अगर युवती भी उसे पसंद करती है, तो वह भी बदले में उसे गुलाल लगा देती है, जो इस बात का संकेत होता है कि वे एक-दूसरे को जीवनसाथी के रूप में स्वीकार कर रहे हैं।
प्राचीन काल में यह परंपरा प्रेम विवाह का एक स्वीकृत तरीका थी। यदि युवक-युवती एक-दूसरे को पसंद कर लेते थे, तो वे परिवार की सहमति से भागकर शादी कर लेते थे। इसी कारण इसे “भगोरिया” नाम दिया गया, जो “भगने” यानी भागकर विवाह करने की परंपरा से जुड़ा हुआ है। हालाँकि, समय के साथ अब यह अधिक सामाजिक हो गया है और परिवारों की सहमति से विवाह संपन्न होते हैं।
इस त्योहार में आदिवासी समाज की संस्कृति, संगीत और नृत्य की भी झलक देखने को मिलती है। ढोल-मांदल की धुनों पर युवक-युवतियां थिरकते हैं, पारंपरिक गीत गाए जाते हैं, और संपूर्ण वातावरण उत्साह से भर जाता है। बाजारों में पारंपरिक आभूषण, कपड़े और घरेलू सामानों की दुकानें सजती हैं, जिससे यह सिर्फ एक प्रेम का उत्सव नहीं, बल्कि एक व्यापारिक मेला भी बन जाता है।
भगोरिया सिर्फ एक पर्व नहीं, बल्कि एक जीवनशैली का प्रतीक है। यह आदिवासी समाज की खुली सोच और उनकी सांस्कृतिक समृद्धि को दर्शाता है। जहां मुख्यधारा के समाज में विवाह को लेकर कई औपचारिकताएं होती हैं, वहीं यह परंपरा प्रेम और सामाजिक सहमति का सहज मेल है। रंगों और उल्लास से भरा यह पर्व न केवल आदिवासी समुदाय के लिए विशेष है, बल्कि बाहरी लोगों के लिए भी आकर्षण का केंद्र बन चुका है।