भाजपा का स्थापना दिवस: विचारधारा की निरंतरता और सत्ता की यात्रा
The Bharatiya Janata Party (BJP) is often described as the political front of the Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS)—and this is not merely a charge, but a historical reality. Founded in 1925, the RSS laid the foundation for an alternative cultural vision of India, one that viewed the nation as a “cultural unit” rather than a constitutional entity built on unity and diversity. When Dr. Syama Prasad Mookerjee established the Bharatiya Jana Sangh in 1951, RSS volunteers supported it as an ideological offspring. This association extended far beyond shared beliefs—it shaped the party’s organization, strategy, and discipline. The imprint of the RSS has remained visible at every stage of the BJP’s evolution. Even in 1980, when the BJP was formed, it emerged under the ideological umbrella of the RSS. Although the party initially adopted the rhetoric of “Gandhian socialism,” by 1989, the Ram Janmabhoomi movement and L.K. Advani’s Rath Yatra marked its return to the RSS’s core principles—cultural nationalism and Hindu pride.–J. Singh Rawat
–जयसिंह रावत –
भारतीय जनता पार्टी को अक्सर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस ) का राजनीतिक मुखौटा कहा जाता है—और यह केवल आरोप नहीं, ऐतिहासिक तथ्य है। 1925 में स्थापित संघ ने भारत में एक वैकल्पिक सांस्कृतिक दृष्टिकोण की नींव रखी। जहाँ राष्ट्र को एक ‘सांस्कृतिक इकाई’ माना गया, न कि विविधता में एकता वाले संवैधानिक विचार के रूप में। 1951 में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जब जनसंघ की स्थापना की, तब संघ के स्वयंसेवकों ने इसे वैचारिक संतान की तरह पोषित किया। यह संबंध केवल विचारों तक सीमित नहीं रहा। संगठन, रणनीति और अनुशासन, सभी स्तरों पर संघ की छाया भाजपा की यात्रा में साफ दिखती रही है। 1980 में जब भाजपा का जन्म हुआ, तब भी यह संघ की गोद में ही हुआ। पार्टी ने शुरू में ‘गांधीवादी समाजवाद’ का मुखौटा जरूर अपनाया, लेकिन 1989 के बाद राम जन्मभूमि आंदोलन और आडवाणी की रथ यात्रा ने भाजपा को संघ की मूल विचारधारा की ओर पुनः प्रवृत्त कर दिया—सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और हिंदू गौरव की ओर।
राजनीति और विचारधारा: संघर्ष, अवसर और स्पष्टता
भाजपा की राजनीतिक यात्रा संघर्ष और अवसर के बीच संतुलन साधने की कहानी है। 1984 में जब पार्टी को केवल दो सीटें मिलीं, तब भी उसने संगठन को कमजोर नहीं होने दिया। 1990 के बाद, राम मंदिर आंदोलन के साथ भाजपा ने अपनी विचारधारा को जनांदोलन में बदल दिया। इसने पार्टी को 1996 में केंद्र तक पहुंचाया, और 1998-2004 तक अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सत्ता का स्थायित्व दिया। वाजपेयी युग भाजपा का उदार चेहरा था, जहाँ विचारधारा के साथ-साथ लोकतांत्रिक गरिमा और गठबंधन की राजनीति का सामंजस्य भी दिखा। वहीं 2014 में नरेंद्र मोदी युग का आगमन एक निर्णायक, केंद्रीयकृत और आक्रामक राजनीतिक शैली की वापसी के रूप में देखा गया। इस दौर में भाजपा ने राष्ट्रवाद, सुरक्षा और विकास को एक सूत्र में पिरोया और उसे आम जन तक पहुँचाया।
संघ और भाजपा: सत्ता में विचारधारा का विस्तार या संक्रमण?
एक बड़ा सवाल यह है कि भाजपा के सत्ता में आने के साथ क्या आर एस एस की विचारधारा भी प्रशासनिक रूप से प्रभावी हुई है? इसका उत्तर आंशिक रूप से ‘हाँ’ है—अनुच्छेद 370 का हटाया जाना, तीन तलाक पर कानून, राम मंदिर निर्माण जैसे निर्णयों से संघ की वर्षों पुरानी मांगें पूरी हुईं। लेकिन दूसरी ओर भाजपा को अपनी वैचारिक सीमाओं में भी राजनीतिक समझौते करने पड़े हैं—चाहे वो आर्थिक नीतियों में वैश्वीकरण का समर्थन हो, या सामाजिक विविधता के साथ ‘सबका साथ, सबका विकास’ का संतुलन बनाना। यह भी ध्यान देने योग्य है कि भाजपा सरकारों में कई वरिष्ठ पदों पर संघ के प्रचारक या समर्थक व्यक्ति नियुक्त होते रहे हैं—जिससे प्रशासनिक नीति निर्धारण में संघ की अप्रत्यक्ष भागीदारी मानी जाती रही है।
हिंदू राष्ट्र की अवधारणा बनाम भारत का बहुलतावादी संविधान
यह भी उल्लेखनीय है कि प्रारंभिक वर्षों में भाजपा ‘गांधीवादी समाजवाद’ की बात करती थी। परंतु समय के साथ उसने अपने वैचारिक मूल में निहित ‘एकात्म मानववाद’ और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को मुखर रूप में प्रस्तुत किया, जिससे उसका वैचारिक आधार स्पष्ट और स्थायी हुआ। 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता प्राप्त की। यह भारतीय राजनीति में एक निर्णायक मोड़ था, जहां मतदाता पहली बार विकास, नेतृत्व और मजबूत सरकार की अपेक्षा लेकर भाजपा की ओर मुखातिब हुआ। इसके बाद 2019 की विजय ने इस विश्वास को और पुख्ता किया।भाजपा के उद्भव से अब तक यह सवाल बना हुआ है कि क्या भारत जैसे धार्मिक, भाषायी और जातीय विविधताओं वाले देश में ‘हिंदू राष्ट्र’ की अवधारणा व्यावहारिक या संवैधानिक रूप से संभव है? आर एस एस और उससे जुड़े कई संगठनों का मानना है कि भारत का मूल स्वभाव हिंदू है और राष्ट्र की परिभाषा इसी सांस्कृतिक अधिष्ठान से तय होनी चाहिए। लेकिन संविधान भारत को “धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी, लोकतांत्रिक गणराज्य” के रूप में परिभाषित करता है। इसमें बहुलता और विविधता की रक्षा को मूल कर्तव्य माना गया है।समाजशास्त्री यह चेतावनी देते हैं कि जब विचारधारा, राष्ट्र की विविधता को चुनौती देती है, तब लोकतंत्र की आत्मा कमजोर होती है। यह चिंता केवल अल्पसंख्यकों की नहीं, बल्कि संविधान में आस्था रखने वाले हर नागरिक की होनी चाहिए।
स्थापना दिवस पर आत्ममंथन का अवसर
6 अप्रैल केवल एक तिथि नहीं है, यह उस विचार यात्रा का प्रतीक है जो राजनीति में विचार को केंद्र में रखती है। भाजपा को यह श्रेय अवश्य जाता है कि उसने संगठन और विचार को मिलाकर भारतीय राजनीति को एक नई दिशा दी। लेकिन आज, जब वह केंद्र और अधिकांश राज्यों में सत्ता में है, उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि विचारधारा की आड़ में संवैधानिक मूल्यों और लोकतांत्रिक संस्थाओं को क्षीण न किया जाए। 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता प्राप्त की। यह भारतीय राजनीति में एक निर्णायक मोड़ था, जहां मतदाता पहली बार विकास, नेतृत्व और मजबूत सरकार की अपेक्षा लेकर भाजपा की ओर मुखातिब हुआ। इसके बाद 2019 की विजय ने इस विश्वास को और पुख्ता किया।
“सबका साथ, सबका विश्वास” बनाम ज़मीनी सच्चाई
प्रधानमंत्री मोदी का नारा “सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास” सुनने में समावेशी लगता है, लेकिन कई भाजपा-शासित राज्यों की नीतियाँ और बयान इसका उलट संदेश देती हैं। उत्तराखंड में “लव जिहाद”, “भूमि जिहाद”, “मज़ार जिहाद” और हाल ही में “थूक जिहाद” जैसे शब्द सरकारी विमर्श का हिस्सा बन चुके हैं। ये केवल शब्द नहीं, बल्कि एक खास समुदाय को कलंकित करने के औज़ार बनते जा रहे हैं। समान नागरिक संहिता (UCC) का प्रस्ताव भी कई मुस्लिम संगठनों द्वारा संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है। असम में मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा लगातार मुसलमानों को जनसंख्या विस्फोट, आतंक और कट्टरपंथ से जोड़ते रहे हैं। यह रुख़ राज्य की नीति निर्धारण में अल्पसंख्यकों के लिए भय का वातावरण बनाता है। उत्तर प्रदेश में ‘बुलडोज़र राज’ अक्सर मुस्लिम विरोधी कार्रवाई के प्रतीक के रूप में देखा जाता है, जहाँ बिना पर्याप्त न्यायिक प्रक्रिया के घर तोड़ने जैसे कदम सवाल खड़े करते हैं। इन उदाहरणों के आलोक में यह पूछा जाना लाज़मी है कि क्या “सबका विश्वास” वाकई कोई नीति है या केवल एक राजनीतिक नारा?
नरेंद्र मोदी का योगदान: भाजपा की ऊँचाइयों की सीढ़ी
नरेंद्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी को न केवल चुनावी जीत दिलाई, बल्कि उसे राष्ट्रीय राजनीति का सबसे शक्तिशाली ध्रुव भी बनाया। 2014 में उन्होंने पार्टी को पूर्ण बहुमत दिलाकर पहली बार कांग्रेस के बाद किसी दल को स्वतंत्र बहुमत दिलाने का इतिहास रचा। उनके नेतृत्व में भाजपा ने विकास, राष्ट्रवाद और मज़बूत नेतृत्व को एक सूत्र में पिरोया। मोदी ने चुनावी राजनीति को व्यक्तित्व–केंद्रित बना दिया और जमीनी संगठन को डिजिटल रणनीति से जोड़ा। पार्टी को गांव-गांव तक पहुँचाया और कई राज्यों में कांग्रेस को उखाड़ फेंका। उनके करिश्माई नेतृत्व ने भाजपा को एक विचारधारा आधारित आंदोलन से सत्ता की स्थायी मशीन में बदल दिया।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कई पुस्तकों के लेखक हैं , लेकिन उनके विचार से एडमिन का सहमत या असहमत होना जरुरी नहीं है। –एडमिन)