मजबूरी में घाटे के और काले बजट भी आते रहे भारत में
-जयसिंह रावत. .
केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण 1 फरवरी 2025 को लगातार अपना आठवां बजट प्रस्तुत करेंगी। इससे पहले, उन्होंने वित्तीय वर्ष 2019-20 से 2024-25 तक सात बजट पेश किए हैं। जाहिर है कि सारा देश वित्त मंत्री के बजट के पिटारे के खुलने का बेसब्री से इंतजार कर रहा है। नये बजट की उम्मीदों के साथ ही उन पुराने बजटों की याद भी आ जाती है जो कि असाधारण वित्तीय परिस्थितियों में तैसार हुये थे और जिन्होंने आर्थिक तंगी के बावजूद देश के चहुमुखी विकास की उम्मीदों को धूमिल होने नहीं दिया।
उधारी मजबूरी है
भारत के इतिहास में कई ऐसे बजट पेश किए गए हैं, जिनमें सरकार को भारी कर्ज लेना पड़ा। आमतौर पर यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब देश किसी बड़े आर्थिक संकट, वैश्विक मंदी, या अप्रत्याशित परिस्थितियों का सामना कर रहा हो। भारतीय अर्थव्यवस्था ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं, और प्रत्येक वित्तीय संकट के दौरान सरकार को राजकोषीय घाटे को पाटने और विकास को बनाए रखने के लिए उधारी पर निर्भर रहना पड़ा है। कर्ज वाला बजट लाना सरकार की एक मजबूरी होती है, क्योंकि जब देश किसी वित्तीय संकट में होता है, तो सरकार के पास सीमित संसाधन होते हैं और उसे उधारी लेकर अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से चलाना पड़ता है। हालांकि, अत्यधिक कर्ज लेने के अपने जोखिम भी होते हैं। इससे देश की अर्थव्यवस्था पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ता है, क्योंकि सरकार को इस कर्ज को चुकाने के लिए या तो करों में वृद्धि करनी पड़ती है या फिर खर्चों में कटौती करनी होती है।
सबसे अधिक कर्ज वाला बजट
भारत में सबसे अधिक कर्ज वाला बजट 1991-92 में पेश किया गया था। उस समय भारत गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा था। देश का विदेशी मुद्रा भंडार लगभग समाप्त हो गया था और आयात के लिए भी धन की भारी कमी थी। सरकार के पास मात्र दो सप्ताह के आयात भुगतान के लिए विदेशी मुद्रा बची थी। ऐसे में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव और उनके वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकरण की दिशा में बड़ा कदम उठाया। इस बजट में कई बड़े आर्थिक सुधार किए गए, जैसे लाइसेंस राज की समाप्ति, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करना और बाजार को अधिक उदार बनाना। हालांकि, इसके लिए सरकार को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से ऋण लेना पड़ा। इस बजट का मुख्य उद्देश्य था भारतीय अर्थव्यवस्था को स्थिर करना और उसे वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार करना।
वैश्विक आर्थिक मंदी केे चरम का बजट
इसके बाद 2008-09 में भी सरकार को भारी कर्ज लेना पड़ा। यह वह समय था जब वैश्विक आर्थिक मंदी अपने चरम पर थी। अमेरिका में आई वित्तीय गिरावट का प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ा, और भारत भी इससे अछूता नहीं रहा। तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने इस बजट में कई राहत पैकेजों की घोषणा की, ताकि अर्थव्यवस्था को मंदी से बचाया जा सके। इस दौरान सरकार को विभिन्न योजनाओं और आर्थिक गतिविधियों को बनाए रखने के लिए भारी उधारी लेनी पड़ी। 2008-09 का वित्तीय घाटा 6 प्रतिशत तक पहुंच गया था, जबकि बजट में इसे मात्र 2.5 प्रतिशत दिखाया गया था। वैश्विक आर्थिक संकट के कारण निर्यात में गिरावट आई और सरकार को सामाजिक कल्याण योजनाओं में अधिक निवेश करना पड़ा। इस बजट का मुख्य उद्देश्य आर्थिक स्थिरता बनाए रखना और भारतीय बाजार को वैश्विक संकट से बचाना था।
बजट पर पड़ी कोरोना की मार
हाल ही में, 2020-21 का बजट भी सबसे अधिक कर्ज वाले बजटों में शामिल माना जा सकता है। इस समय पूरी दुनिया कोविड-19 महामारी की चपेट में थी और भारत भी इससे अछूता नहीं रहा। महामारी के कारण देशव्यापी लॉकडाउन लगाया गया, जिससे आर्थिक गतिविधियां ठप हो गईं। इस दौरान सरकार को स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करने, गरीबों को राहत देने और अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए भारी उधारी लेनी पड़ी। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस बजट में कई राहत पैकेजों की घोषणा की, जिससे सरकार का राजकोषीय घाटा 9.5ः तक पहुंच गया, जो अब तक का सबसे अधिक था। महामारी के कारण सरकारी खर्च में अत्यधिक वृद्धि हुई, और इस खर्च को पूरा करने के लिए सरकार को अधिक उधारी लेनी पड़ी।
विशेष आर्थिक संकट से निपटने वाले बजट
अगर हम इन तीनों बजटों की तुलना करें, तो यह स्पष्ट होता है कि प्रत्येक बजट एक विशेष आर्थिक संकट से निपटने के लिए लाया गया था। 1991-92 का बजट आर्थिक सुधारों की नींव रखने के लिए बनाया गया था, जबकि 2008-09 का बजट वैश्विक मंदी के प्रभाव को कम करने के लिए था। वहीं, 2020-21 का बजट महामारी से उत्पन्न वित्तीय संकट को संभालने के लिए बनाया गया था। इन तीनों ही बजटों में सरकार को अत्यधिक उधारी लेनी पड़ी, जिससे देश पर कर्ज का बोझ बढ़ा। इन तीनों बजटों से हमें यह सीख मिलती है कि सरकार को वित्तीय संकट के समय संतुलित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। कर्ज लेना एक आवश्यक उपाय हो सकता है, लेकिन इसे जिम्मेदारी से प्रबंधित करना भी उतना ही जरूरी है। सरकार को नीतिगत सुधारों और आर्थिक प्रबंधन के माध्यम से सुनिश्चित करना चाहिए कि उधारी का सदुपयोग हो और इसे समय पर चुकाने की योजना भी बनाई जाए।
दो काले बजट भी झेले भारत ने
इनके अलावा, भारत में कुछ बजट अत्यधिक घाटे और बढ़ते कर्ज के कारण ष्काला बजटष् के रूप में भी जाने जाते हैं। सबसे प्रसिद्ध ‘‘काला बजट’’ 1973-74 में पेश किया गया था, जिसे तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंतराव चव्हाण ने प्रस्तुत किया था। इस बजट में भारत का वित्तीय घाटा 550 करोड़ रुपये तक पहुंच गया था, जो उस समय की अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ी चिंता थी। इस दौरान वैश्विक तेल संकट और खाद्य संकट के कारण भारत को भारी वित्तीय दबाव का सामना करना पड़ा। इसी तरह, 1986-87 में वी.पी. सिंह द्वारा पेश किया गया बजट भी ‘‘काला बजट’’ कहा गया, क्योंकि इसमें भारी वित्तीय घाटा था और सरकार को बड़े पैमाने पर उधारी लेनी पड़ी थी। इस बजट का मुख्य उद्देश्य कर सुधार और काले धन पर नियंत्रण था, लेकिन इसके बावजूद वित्तीय असंतुलन बना रहा।
घाटे के बजटों की आलोचना
कई बार घाटे के बजटों की आलोचना भी की जाती है, क्योंकि वे भविष्य के वित्तीय संकटों का कारण बन सकते हैं। उदाहरण के लिए, 1991-92 के बजट ने भारत को आर्थिक सुधारों की दिशा में आगे बढ़ाया, लेकिन इसके कारण सरकारी उपक्रमों का निजीकरण बढ़ा, जिससे कुछ लोगों को रोजगार सुरक्षा की चिंता सताने लगी। इसी तरह, 2008-09 के बजट ने भारतीय अर्थव्यवस्था को मंदी से बचा लिया, लेकिन इसके कारण सरकार पर वित्तीय बोझ बढ़ गया। 2020-21 का बजट भी महामारी के प्रभावों को कम करने में सहायक रहा, लेकिन इससे सरकारी उधारी अत्यधिक बढ़ गई, जिससे भविष्य में आर्थिक संतुलन बनाए रखना एक चुनौती बन सकता है। भारत की अर्थव्यवस्था अब अधिक विकसित और आत्मनिर्भर हो रही है, जिससे भविष्य में इस तरह की स्थिति से बचने की संभावना बढ़ रही है। हालांकि, वैश्विक और राष्ट्रीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए सरकार को हमेशा एक दीर्घकालिक आर्थिक नीति बनानी चाहिए, ताकि देश को कर्ज के बोझ से बचाया जा सके और आर्थिक स्थिरता सुनिश्चित की जा सके।
वित्तमंत्री सीतारमण के सामने चुनौतियां
देश के सामने मौजूदा परिस्थितियों और खास कर वित्तीय स्थिति तथा विकास की जरूरतों को देखते हुये निर्मला सीतारमण के सामने राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करने और कर्ज के बढ़ते बोझ को कम करने की चुनौती है। उनके लिये वैश्विक आर्थिक परिस्थितियों और घरेलू महंगाई को संतुलित रखते हुए खर्चों को सीमित करना आवश्यक होगा। सरकारी योजनाओं और बुनियादी ढांचे पर निवेश बनाए रखते हुए राजस्व बढ़ाने की रणनीति अपनानी होगी। सार्वजनिक उधारी को सीमित रखते हुए आर्थिक विकास को गति देने के उपाय करने होंगे। कर संग्रह बढ़ाने और वित्तीय घाटे को कम करने के लिए कर सुधारों और विनिवेश को प्रभावी बनाना जरूरी होगा।
(लेखक इस न्यूज़ पोर्टल के अवैतनिक/मानद सम्पादकीय सहयोगी हैं और उनके निजी विचारों से एडमिन का सहमत होना जरूरी नहीं है- उषा रावत, एडमिन)