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वन्यजीवों का करिश्मा उन्हें स्क्रीन पर उतारने का कारण बनता है

The charisma of an animal often dictates the possibility of it being featured in films and its screen time, said renowned wildlife filmmaker and cinematographer Shri Alphonse Roy. He was conducting a Master Class on the topic “Exploring the Wilderness: Indian Wildlife Documentaries and Conservation Efforts” at the 18th Mumbai International Film Festival. The session delved into the intricacies of creating documentaries about conservation initiatives and Indian wildlife.

 

-uttarakhandhimalaya.in-

प्रसिद्ध वन्यजीव फिल्म निर्माता और छायाकार श्री अल्फोंस रॉय ने कहा कि किसी वन्यजीव का करिश्मा अक्सर यह तय करता है कि उसे फिल्मों में दिखाया जाएगा या नहीं और उसे स्क्रीन पर कब दिखाया जाएगा। वे 18वें मुंबई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में “एक्सप्लोरिंग द विल्डरनेस: इंडियन वाइल्डलाइफ डॉक्यूमेंट्रीज एंड कन्जर्वेशन एफर्ट्स” विषय पर मास्टर क्लास में बोल रहे थे। इस सत्र में संरक्षण पहलों और भारतीय वन्यजीवों के बारे में वृत्तचित्र बनाने की बारीकियों पर चर्चा की गई।

श्री अल्फोंस रॉय ने आगे कहा कि टेलीविजन निर्माता पक्षी या किसी अन्य छोटी प्रजाति की तुलना में बाघ, शेर या ब्लू व्हेल जैसे जानवरों में अधिक रुचि रखते हैं। उन्होंने कहा, “वन्यजीव फिल्मों में जानवर के करिश्मे के आधार पर एक निश्चित पदानुक्रम मौजूद है।”

रॉय ने महत्वाकांक्षी वन्यजीव फिल्म निर्माताओं को सलाह दी कि इस क्षेत्र में जुनून सबसे महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा, “कोई एक जगह नहीं है जहां आप वन्यजीव फिल्म निर्माण सीख सकें। इसके लिए वन्यजीवों के प्रति जुनून की आवश्यकता होती है और भारत अपनी समृद्ध जैव विविधता के साथ इसे आगे बढ़ाने के लिए एकदम सही जगह है।”

(एमआईएफएफ मास्टर क्लास में श्री अल्फोंस रॉय का स्वागत)

श्री रॉय ने नैतिक फिल्म निर्माण के महत्व पर भी जोर दिया। उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि विषय और प्रकृति को हमेशा शूटिंग में अधिक प्राथमिकता दी जानी चाहिए। उन्होंने बताया, “हम वन्यजीवों को यह बताए बिना कि हम वहां हैं, बिना किसी बाधा के दृश्यों को उतारना  चाहते हैं।” उन्होंने अफसोस जाहिर किया कि 24X7 वन्यजीव चैनलों के युग में, किसी भी परिस्थिति में वन्यजीवों को परेशान न करने की यह नैतिकता पीछे छूट रही है।

वन्यजीव फिल्म निर्माण के विकास पर चर्चा करते हुए, रॉय ने डिजिटल प्रौद्योगिकी के प्रभाव को स्वीकार किया, जिसने मोबाइल कैमरों पर वन्यजीवों को कैद करना आसान बना दिया है। हालांकि, उन्होंने आज पेशेवर वन्यजीव फिल्म निर्माण से जुड़ी उच्च लागत की ओर भी संकेत किया।

रॉय ने भारत में वन्यजीव संरक्षण की वर्तमान स्थिति पर चिंता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि बढ़ती मानव आबादी और भूमि की कमी के कारण मानव व वन्यजीवों के बीच बार-बार संघर्ष हो रहे हैं। उन्होंने कहा, “हम वन्यजीव प्रबंधन के लिए अफ्रीका के दृष्टिकोण से सीख सकते हैं, जो जानवरों के झुंडों के चुनिंदा न्यूनीकरण की अनुमति देता है, हालांकि भारत में ऐसे तरीकों को लागू करना चुनौतीपूर्ण है।”

छात्रों को प्रकृति को आत्मसात करने के लिए प्रोत्साहित करते हुए, रॉय ने उनसे बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी या मद्रास नेचुरल साइंस सोसाइटी जैसे प्रकृति क्लबों और संगठनों में शामिल होने का आग्रह किया। उन्होंने वन शिल्प सीखने और जनजातीय ज्ञान से प्रेरणा लेने के महत्व पर जोर दिया।

वन्यजीव फिल्म निर्माण में कथात्मक सामग्री को शामिल करने के बारे में सवालों के जवाब में, रॉय ने खुलासा किया कि वह मुख्यधारा के सिनेमा में अधिक वन्यजीवों को लाने के लिए एक स्क्रिप्ट पर काम कर रहे हैं। उन्होंने कहा, “ओटीटी प्लेटफॉर्म के साथ, बड़े सितारों पर निर्भर हुए बिना वन्यजीवों को प्रदर्शित करने के अपार अवसर हैं।”

 

अपने निजी अनुभवों पर चर्चा करते हुए रॉय ने बताया कि पहली बार बाघों को फिल्माते समय उन्हें किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा। उन्होंने बताया, “हमने पेड़ों पर चढ़ने और शाखाओं पर बैठने की कोशिश की, फिर जायरो स्टेबलाइजर का इस्तेमाल किया, लेकिन शोर से बाघ परेशान हो गए। आखिरकार, हमने बांस से 14 फीट ऊंची एक मचान बनाई।”

अंत में उन्होंने कहा कि कम-ज्ञात प्रजातियों की ओर ध्यान आकर्षित करने में सोशल मीडिया में बहुत क्षमता है। उन्होंने सलाह दी, “यदि आपके पास किसी प्रजाति के बारे में कोई दिलचस्प कहानी है, तो आप इसे अपने मोबाइल फोन के माध्यम से बता सकते हैं और इसे लोगों तक पहुंचा सकते हैं।”

तमिलनाडु के फिल्म और टीवी संस्थान के पूर्व छात्र श्री अल्फोंस रॉय के फोटोग्राफी निदेशक के रूप में उल्लेखनीय कार्यों में ‘गौर हरि दास्तान’, ‘लाइफ इज गुड’ और ‘उरुमी’ जैसी प्रशंसित फिल्में शामिल हैं। रॉय की सिनेमाई दृष्टि ने उन्हें कई पुरस्कार दिलाए हैं, जिनमें ‘तिब्बत द एंड ऑफ टाइम’ (1995) के लिए प्राइम टाइम एमी पुरस्कार और ‘टाइगर किल’ (2008) के लिए ह्यूगो टेलीविजन पुरस्कार, साथ ही ‘आमिर’ (2009) के लिए सर्वश्रेष्ठ छायांकन के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार नामांकन शामिल है।

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