भ्रष्टाचार मामलों में बरी न होने तक सरकारी सेवक को दुबारा सेवा में लेने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए : सुप्रीम कोर्ट
नई दिल्ली: भ्रष्टाचार में लिप्त सरकारी अधिकारियों के प्रति कड़ा रुख अपनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को कहा कि ऐसे मामलों में दोषसिद्धि पर स्थगन नहीं दिया जाना चाहिए जिससे वे दोबारा सेवा में लौट सकें। यह स्थिति उन राजनेताओं से अलग है, जिन्हें चुनाव लड़ने के लिए राहत दी जा सकती है।
न्यायमूर्ति संदीप मेहता और न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी. वरले की पीठ ने संकेत दिया कि जब तक कोई सरकारी अधिकारी न्यायिक प्रक्रिया में पूर्णतः निर्दोष घोषित नहीं हो जाता, उसे किसी पद पर बने रहने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। कोर्ट ने रेलवे में कार्यरत एक निरीक्षक की उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उसने घूसखोरी के मामले में दोषसिद्धि पर रोक लगाने की मांग की थी। पीठ ने पूछा, “एक भ्रष्ट अधिकारी को दोबारा नौकरी क्यों करने दी जाए?”
याचिकाकर्ता के वकील नितिन कुमार सिन्हा ने दलील दी कि ट्रायल कोर्ट ने उनके मुवक्किल को दोषी ठहराने और दो साल की सजा देने में गलती की। उन्होंने कहा कि उन पर रिश्वत मांगने और लेने का कोई प्रमाण नहीं है, और कोर्ट से दोषसिद्धि पर रोक लगाने का अनुरोध किया।
रेलवे सुरक्षा बल (RPF) के नियमों के अनुसार, यदि बल का कोई सदस्य नैतिक पतन से जुड़े अपराध—जैसे चोरी, झूठी गवाही, बलात्कार—या किसी भी अन्य अपराध में एक महीने से अधिक की सजा पाता है, तो उसे सेवा से बर्खास्त कर दिया जाता है।
पीठ अपने रुख पर अडिग रही और निरीक्षक को कोई राहत देने से इनकार कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने पहले के फैसलों का हवाला दिया, विशेषकर के.सी. सरीन केस, जिसमें यह कहा गया था कि जब कोई लोक सेवक भ्रष्टाचार के मामले में दोषी ठहराया जाता है, तो जब तक उच्च न्यायालय उसे बरी न कर दे, उसे भ्रष्ट ही माना जाना चाहिए।
सरीन केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, “सिर्फ इतना कि किसी अपीलीय या पुनरीक्षण मंच ने उस लोक सेवक की अपील सुनने का निर्णय लिया है, इसका मतलब यह नहीं कि उसे अस्थायी रूप से भी आरोपों से मुक्त मान लिया जाए। यदि ऐसे व्यक्ति को तब तक सार्वजनिक पद पर बने रहने दिया जाए जब तक कि वह न्यायिक रूप से दोषमुक्त न हो जाए, तो इससे सार्वजनिक हित को—कई बार अपूरणीय रूप से—नुकसान पहुंचता है।”
कोर्ट ने आगे कहा, “जब किसी भ्रष्ट लोक सेवक को सेवा में बने रहने दिया जाता है, तो यह अन्य कर्मचारियों के मनोबल को प्रभावित करता है, और जनता के उन संस्थानों में पहले से ही कमज़ोर हो चुके विश्वास को और भी खत्म करता है। यह ईमानदार कर्मचारियों को भी हतोत्साहित करता है, जो या तो उसके सहकर्मी होते हैं या अधीनस्थ।”
सरीन केस का हवाला देते हुए पीठ ने रेलवे निरीक्षक की याचिका खारिज कर दी।