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धन बल की महिमा: जेब में कम से कम 3 करोड़ नहीं तो मत कूदो चुनाव मैदान में

     -जयसिंह रावत

भारत निर्वाचन आयोग ने पांच राज्यों में चुनाव कार्यक्रम की घोषणा से पहले हरीश कुमार की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय कमेटी की सिफारिश पर वर्ष 2014 की तुलना में नवीनतम मूल्य सूचकांक के आधार पर पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में 32.08 प्रतिशत वृद्धि करते हुये चुनाव खर्च की सीमा तय कर ली। इसके अनुसार अब उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड और पंजाब के लिये चुनाव खर्च की सीमा 28 लाख से बढ़ कर 40 लाख और मणिपुर तथा गोवा जैसे छोटे राज्यों के लिये यह सीमा 20 लाख से बढ़ कर 28 लाख हो गयी। लेकिन सच्चाई यह है कि अगर कोई प्रत्याशी सचमुच इस खर्च सीमा में बंध गया तो चुनाव जीतना तो रहा दूर वह अपनी जमानत तक नहीं बचा पायेगा। क्योंकि आज के माहौल में चुनाव इतने महंगे हो गये कि अगर आप की जेब में कम से कम 3 करोड़ की रकम चाहिये। इसीलिये आज की तारीख में जिस पार्टी के पास जितने संसाधन होंगे उसकी जीत की संभावनाएं उतनी ही अधिक होंगी। चुनाव खर्च का 40 लाख से लेकर 3 करोड़  के बीच का जो अंतर है वही देश में भ्रष्टाचार की गंगोत्री भी है। चुनाव जीतने वाला या टक्कर देने वाला कभी नहीं बतायेगा कि शेष 2 करोड़ 60 लाख की रकम किन अंधेरी गलियों से आयी और किन गलियों में बिछ गयी।

चुनाव से ही बहती है भ्रष्टाचार की गंगोत्री

लोकतंत्र के महायज्ञ, चुनाव की सुचिता और सरकार गठन में जनता की वास्तविक राय तय करने के लिये चुनाव में धन बल और बाहुबल को रोकने के प्रयास शुरू से होते रहे हैं। समय-समय पर चुनाव सुधारों और मतदान की आधुनिक व्यवस्था के कारण बाहुबल से तो लगभग मुक्ति मिल गयी मगर धन बल की भूमिका कहीं अधिक बढ़ गयी। हालांकि समस्या मतदाताओं को बरगलाने की भी है। धन बल के आगे अगर कोई अपनी ईमान्दारी और योग्यता के बल पर चुनाव लड़ेगा तो उसकी जमानत भी जब्त हो जायेगी। राजनीति में अपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों की बढ़ती संख्या का सबसे बड़ा कारण धनबल ही है। उसके बाद सम्प्रदायवाद, जातिवाद और क्षेत्रवाद का नम्बर आता है। ढौंग करना झूठ बोलना भी भ्रष्टाचार ही है। जो जितना बड़ा ढौंगी वह उतना बड़ा नेता। इस तरह के भ्रष्टाचार के बलबूते पर बनी सरकारों से अगर हम ईमान्दारी और सुशासन की कल्पना करते हैं तो हम मूर्खों के स्वर्ग में रहते हैं।

चुनाव लड़ने के लिये कम से कम 3.50 करोड़ रुपये चाहिये

चुनावी खर्च के इस गोरख धन्धे पर से हल्का सा पर्दा अगर उत्तराखण्ड से ही उठाया जाय तो शेष राज्यों की स्थिति का आंकलन किया जा सकता है। एक अजेय प्रत्याशी के चुनाव प्रबंधक रहे एक अनुभवी नेता का कहना है कि मैदानी क्षेत्र में 2017 में एक प्रत्याशी को औसतन 2 करोड़ रुपये खर्च करने पड़े, लेकिन इस बार यह रकम 3.50 करोड़ तक जा सकती है। यह रकम केवल साधारण मैदानी प्रत्याशी के लिये है। पहाड़ों की दुर्गम स्थिति और अत्यंत ठण्ड के कारण वहां का चुनाव खर्च कहीं अधिक जा सकता है। इनके अलावा कुछ ऐसी भी प्रतिष्ठा की सीटें होती हैं या जहां धनाड्य प्रत्याशियों के बीच मुकाबला होता है, वहां एक-एक वोट की बोली लगती है।

प्रत्येक बूथ के बस्ते के अंदर 10 से 20 हजार रुपये

उत्तराखण्ड के 70 विधासभा क्षेत्रों में इस बार 11,647 पोलिंग बूथ हैं। इस प्रकार एक विधानसभा क्षेत्र में इस बार औसतन 167 पोलिंग बूथ होंगे। हालांकि कपकोट जैसे कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जहां एक 186 तक बूथ हैं। जीत की आशा लेकर मैदान में कूदे एक प्रत्याशी को मतदान के दिन तक बूथ मैनेजमेंट के लिये बस्ते थमाने होते हैं जिनमें कम से कम प्रति बस्ता 10 हजार की रकम रखी जाती है। अनुभवी चुनाव प्रबंधकों के अनुसार सक्षम दल के सक्षम प्रत्याशी जीत सुनिश्चित करने के लिये प्रत्येक बस्ते में 20 हजार तक की रकम डाल देते हैं। कई बार सुदूर क्षेत्रों में बस्तों पर बोलियां लग जाती हैं और गरीब प्रत्याशी या दलों के बस्ते उठाने वाले नहीं मिलते। अगर 10 हजार के हिसाब से ही देखा जाय तो एक प्रत्त्याशी को औसतन 11.67 लाख की रकम केवल पोलिंग के बस्तों के लिये चाहिये।

चुनाव कार्यालयों का खर्च भी 20 लाख से कम नहीं

बस्तों से पहले प्रत्येक प्रत्याशी को कुछ घोषित और उनसे ज्यादा अघोषित चुनाव कार्यालय खोलने होते हैं। मैदान में ऐसे लगभग 10 से 15 और पहाड़ में 20 से लेकर 25 के बीच कार्यालय खोलने होते हैं। प्रत्येक कार्यालय पर 2-2 लाख भी खर्च आया तो पहाड़ में औसतन 40 लाख और मैदान में 20 लाख का खर्च चुनाव कार्यालयों पर आता है। पहाड़ों में एक बूथ से 4 या 5 गांव जुड़े होते हैं। इसलिये मनोरंजन के लिये प्रति बूथ 2 पेटी शराब की आवश्यकता होती है। एक बार एक चुनाव में बोतल के साथ आधा किलो मुर्गा भी मतदाताओं को बांटने की चर्चा आम हुयी थी। इस प्रकार देखा जाय तो एक टक्कर देने वाले प्रत्याशी को कम से 350 पेटियां शराब की चाहिये।

वोटों के लिये नोटों के साथ बोतलें भी जरूरी

चुनाव में वोटों के लिये नोटों के अलावा बोतलें भी चाहिये होती है। अगर एक बूथ पर कम से कम एक पेटी शराब भी पहुंचाई जाय तो औसतन 5 हजार रुपये प्रति पेटी के हिसाब से 167 बूथों के लिये 8.35 लाख की शराब केवल बूथ मैनेजमेंट के लिये चाहिये। पिछली बार के एक जिताऊ प्रत्याशी का कहना था कि संसाधनों के अभाव के बावजूद पूरे चुनाव के दौरान उसने 38 लाख की रुपये केवल शराब पर खर्च किये। जबकि करोड़ रुपये की शराब बांट कर भी प्रतिद्वन्दी जीत नहीं पाया। प्रत्याशी अब सीधे शराब के ट्रक मंगाने के बजाय शराब की दुकानों एक, पांच, दस और बीस का नोट देते हैं। नोटों की इस सांकेतिक भाषा के अनुसार कार्यकर्ता को दुकान वाले शराब की बोतलें दे देते हैं। इससे पहले पर्ची सिस्टम भी रहा।

महिला और युवक मंगल दलों को भी बिगाड़ रहे हैं

उत्तराखण्ड में महिला मंगल दलों तथा युवक मंगल दलों को भी भ्रष्ट चुनावी व्यवस्था खराब कर रही है। उत्तराखण्ड में वर्तमान में  5,898 महिला मंगल दल और 5,627 युवक मंगल दल हैं। इस तरह औसतन एक विधानसभा क्षेत्र में औसतन 85 महिला मंगल दल हैं। सभी को खुश करने के लिये 5 से लेकर 15 हजार प्रति दल पत्रम् पुष्पम् का रिवाज शुरू हो गया है। इस तरह कम से कम 5 हजार प्रति मंगल दल के हिसाब से 4.25 लाख रु0 और युवक मंगल दलों को 4.05 रु0 लाख की भेंट पूजा करनी होती है।

मठाधीशों की भी भेंट पूजा

वोटों की ठेकेदारी कोई नयी बात नहीं है। ये ठेकेदार गांव स्तर से लेकर ब्लाक स्तर तक होते हैं जो कि अपने प्रभाव के अनुसार नजराने की मांग करते हैं। इनका नजराना 25 हजार से लेकर 1 लाख तक होता है। लेकिन कई बार कुछ मठाधीश वसूली के लिये स्वयं प्रत्याशी बन जाते हैं जिनसे वोट कटने का डर रहता है। इसलिये ऐसे प्रत्याशियों को मैदान से हटाने के लिये भारी रकम खर्च करनी होती है। इसी तरह अगर आपको अपने प्रतिद्वन्दी के वोट कटवाने हों तो उसी के क्षेत्र के या उसी की जाति का डमी प्रत्याशी खड़ा कराया जाता है और उसका सारा चुनावी खर्च भी प्रायोजक द्वारा उठाया जाता है, जो कि कई लाख में होता है।

कार्यकर्ताओं को चलाने के लिये दारू और गाड़ियों के लिये पेट्रोल

चुनाव बिना गाड़ी और बिना पेट्रोल के नहीं लड़ा जा सकता। चुनाव खर्च में भले ही केवल 5 या 6 कारें/गाड़ियां दिखाई जाती हों मगर वास्तव में पूरे चुनाव अभियान में एक जिताऊ प्रत्याशी को 20 से लेकर 30 तक गाड़ियों की जरूरत होती है। चुनाव अभियान के शुरू में 5-6 गाड़ियों से काम चल जाता है, मगर अंत में पूरा काफिला झोंकना होता है। एक गाड़ी पर प्रतिदिन कम से कम 3 हजार रु0 का खर्च आता है। इसके अलावा स्कूटर-मोटर साइकिल रैलियां निकाली जाती हैं जिसके लिये दारू की तरह पर्चियां दी जाती है। अगर 200 युवकों की भी रैली निकाली गयी और प्रति युवक 2 लीटर भी पेट्रोल दिया गया तो 400 लीटर पेट्रोल पर एक ही दिन में 40 हजार रुपये खर्च होते हैं।

यद्यपि मतदान के बाद प्रत्याशी के खर्चे कम हो जाते हैं। लेकिन फिर भी उसे मतगणना के लिये मानव संसाधन की आवश्यकता होती है। इसके लिये औसमन 100 लोगों की आवश्यकता होती है जो चुनाव कार्यालय से लेकर मतगणना स्थल तक तैनात होते हैं। इनके खाने और पीने के साथ ही आवागमन का खर्च भी प्रत्याशी को उठाना होता है। खाने का मतलव वैष्णव भोजन और पीने का मतलब शुद्ध पानी कतई नहीं होता।

जब्त नोटों और शराब के वारिशों का पता नहीं चलता

इन खर्चों के अलावा पार्टी स्तर पर भी चुनाव खर्च किया जाता है। पार्टी अपने प्रत्याशियों को पोस्टर बैनर आदि सामग्री के साथ ही नकदी भी देती है। धन बल की महत्ता को समझते हुये जो जितनी धनी पार्टी होती है वह उतना ही धन प्रत्याशियों पर झोंकती है। ईमान्दारी का डंका पीटने वाले दल धन बल का जम कर इस्तेमाल करते हैं। इस तरह देखा जाय तो भ्रष्टाचार की गंगोत्री चुनाव से ही बहने लग जाती है। हैरानी का विषय तो यह है कि प्रत्येक चुनाव में भारी मात्रा में शराब और करेंसी नोट पकड़े जाते हैं लेकिन आज तक पता नहीं चला कि वह शराब और रुपये किसके थे।

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