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बदरी-केदार मंदिर समिति की संपत्तियों पर बढ़ते कब्ज़े : आस्था और व्यवस्था के लिए खतरा

 

-प्रकाश कपरुवाण, ज्योतिर्मठ-

विश्व के प्रसिद्ध धाम श्री बद्रीनाथ एवं श्री केदारनाथ का संचालन करने वाली श्री बदरी-केदारनाथ मंदिर समिति (बीकेटीसी) आज सबसे बड़ी चुनौती से जूझ रही है—अपनी ही संपत्तियों को कब्ज़ा मुक्त कराने की। सवाल यह उठता है कि जब डबल इंजन की सरकार होने का दावा किया जाता है, तब भी समिति अपनी दर्ज संपत्तियों को अतिक्रमण से क्यों नहीं बचा पा रही? यदि समय रहते इन संपत्तियों को मुक्त नहीं कराया गया तो वह दिन दूर नहीं जब बची-खुची ज़मीन और भवन भी कब्ज़ाधारियों के हाथ चले जाएंगे और समिति मात्र तमाशबीन बनकर रह जाएगी।

किसी भी मंदिर प्रबंधन का पहला दायित्व होता है श्रद्धालुओं के लिए सुगम व सुलभ दर्शन की व्यवस्था करना। लेकिन संपत्तियों पर लगातार बढ़ते अतिक्रमण इस मूल उद्देश्य को ही चुनौती दे रहे हैं।

कब्ज़े की जटिलस्थिति

पिछले कई वर्षों से बीकेटीसी ने देशभर में अपनी संपत्तियों की पहचान की है। उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊँ क्षेत्रों में ही अधिकांश संपत्तियाँ कब्ज़ाधारियों के चंगुल में हैं। अदालतों में मुकदमे भी दायर हुए, कुछ मामलों में कब्ज़े छूटे भी हैं, लेकिन सवाल अब भी वही है—भगवान बद्रीविशाल और बाबा केदार के नाम दानस्वरूप मिली इन संपत्तियों से आखिर कब तक कब्ज़ा हटेगा?

उत्तर प्रदेश के अमीनाबाद (लखनऊ) और फतेहपुर की भूमि-भवन समिति के कब्ज़े में वापस आ चुके हैं। महाराष्ट्र के चितली-बुढ़ाना की भूमि का मामला हाई कोर्ट में विचाराधीन है। लेकिन गढ़वाल और कुमाऊँ के कई स्थानों—द्वाराहाट, बांसुरी सेरा, पनेर गाँव, भंडार गाँव, डोभालवाला आदि—में आज भी कब्ज़ाधारी मज़े से टिके हुए हैं।

समिति की व्यवस्थाएँ और विफलता

मंदिर समिति ने संपत्तियों के रखरखाव और सुरक्षा के लिए संपत्ति प्रकोष्ठ बनाया है, जिसमें निरीक्षक और विधि अधिकारी तक नियुक्त हैं। फिर भी ज़मीन-जायदाद को मुक्त कराने में तेज़ी नहीं दिख रही। कई बार तो स्थिति यहाँ तक पहुँच जाती है कि मंदिरों की चौखट तक रोजगार के नाम पर अतिक्रमण हो जाता है और समिति का प्रयास किसी न किसी षड्यंत्र का शिकार होकर विफल हो जाता है।

अतिक्रमण और श्रद्धालुओं की सुरक्षा

यह समस्या केवल बद्रीनाथ-केदारनाथ या उनके अधीनस्थ मंदिरों तक सीमित नहीं है। देश के कई अन्य मंदिरों में भी यही हाल है। हाल ही में हरिद्वार के मंशा देवी मंदिर में भगदड़ की घटना इसका उदाहरण है। वहाँ श्रद्धालुओं की मौत का एक बड़ा कारण था मंदिर मार्ग का अतिक्रमण, जिससे लोग सुरक्षित बाहर नहीं निकल सके।

सरकारें घटनाओं के बाद आदेश तो जारी करती हैं—जाँच के निर्देश, दोषियों पर कार्रवाई का आश्वासन और अतिक्रमण हटाने की घोषणाएँ—लेकिन धरातल पर नतीजा शून्य ही रहता है।

रोजगार बनाम अतिक्रमण

यह सही है कि मंदिर स्थानीय लोगों की आर्थिकी का प्रमुख साधन हैं। लाखों लोग मंदिरों के कारण रोजगार पाते हैं, लेकिन रोजगार के नाम पर मंदिर की दर्ज संपत्ति पर स्थाई या अस्थाई कब्ज़ा किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। दीर्घकालीन रोजगार तभी संभव है जब श्रद्धालुओं को सुगम दर्शन और साफ-सुथरी व्यवस्था मिले। यदि उनका अनुभव खराब रहा तो न केवल आस्था प्रभावित होगी बल्कि स्थानीय रोजगार भी खतरे में पड़ जाएगा।

मंदिरों से जुड़ी पूरी अर्थव्यवस्था भी प्रभावित होगी

यह समय है कि बदरी-केदार मंदिर समिति और सरकारें मिलकर अतिक्रमण के खिलाफ कठोर कार्रवाई करें। तीर्थधामों में सुचारु दर्शन, सुरक्षा और साफ-सफाई सुनिश्चित करना मंदिर प्रबंधन की पहली और सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है। अगर यह पूरा नहीं हुआ, तो न केवल आस्था को आघात पहुंचेगा बल्कि मंदिरों से जुड़ी पूरी अर्थव्यवस्था भी प्रभावित होगी।

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