राम भक्त ही भूल गये उत्तर भारत के पौराणिक राम मंदिर को
Devprayag is the place where the holy rivers Bhagirathi and Alaknanda meet, merge into one and take the name Ganga, making it a unique pilgrimage. It is believed that Lord Rama and his father King Dasharath (from the epic Ramayana) performed penance here. The main temple of the town is Raghunathji Temple and is dedicated to Lord Rama. According to Hindu legend, the temple had existed since the Ramayana days. It is believed that Raghunathji or Rama performed penance there to free himself from the curse of killing Ravana, the demonic Brahman king. The temple is originally in existence from the 9th to 10th century. The temple was originally believed to have been established by Adi Gur Shankaracharya during the 8th century, with later expansions by the Panwar rulers of Garhwal Kingdome.
-जयसिंह रावत
भगवान राम की जन्मस्थली अयोध्या में करोड़ों सनातन धर्मावम्बियों की आस्था का प्रतीक भव्यतम् मंदिर के रूप में आकार ले चुका है और अब दर्शनार्थ द्वार खुलने के लिये 22 जनवरी की प्रतीक्षा की जा रही है। लेकिन करोड़ों धर्मावलम्बियों में से शायद कुछ ही को पता होगा कि अयोध्या के अलावा उत्तर भारत का पहला और प्राचीनतम राम मंदिर उत्तराखण्ड के टिहरी जिले के देवप्रयाग में है। भारत की सबसे पवित्र नदी गंगा के उद्गम पर बना यह रधुनाथ मंदिर जम्मू के डोगरा शासकों द्वारा निर्मित रघुनाथ मंदिर से भी कई सदियों पुराना है। यह ऐसा मंदिर है जिसका उल्लेख न केवल पुराणों और चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा वृतांत में है बल्कि इसका प्रमाणिक इतिहास मंदिर परिसर के शिलालेखों और गढ़वाल राज्य के प्राचीन पंवार शासकों के कई सदियों पुराने ताम्र पत्रों में भी दर्ज है। ईटी एटकिंसन ने तो हिमालयन गजेटियर में अल्मोड़ा में भी रामचन्द्र मंदिर का उल्लेख किया है। लेकिन बिडम्बना यह कि पौराणिक काल के इन राम मंदिरों का नामलेवा कुछ स्थानीय निवासियों के अलावा कोई नहीं है।
रघुनाथ मंदिर ही है पतित पावनी गंगा का उद्गम स्थल
मध्य हिमालय की कई पवित्र धाराओं से बनी अलकनन्दा एवं भागीरथी नदियों के संगम से भारत की सबसे पवित्र नदी गंगा का उद्भव होता है। इसी पवित्र स्थल पर एक छोटा सा ऐतिहासिक और पौराणिक नगर है जो कि अपने धार्मिक महत्व के कारण देवप्रयाग के नाम से जाना जाता है। गंगा के उद्गम और रघुनाथ मंदिर के कारण धार्मिक दृष्टि से यह प्रयाग (संगाम) अपने नाम के अनुकूल उत्तराखण्ड के पंच प्रयागों में सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। यह स्थान देश के चार सर्वोच्च धामों में से एक बदरीनाथ धाम और भारत तथा नेपाल में भगवान शिव के द्वादस ज्योतिर्लिंगों में से एक केदारनाथ धाम के यात्रा मार्ग पर ऋषिकेश से 73 किमी दूर और समुद्रपल से लगभग 830 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। फिर भी इस पवित्रतम् रघुनाथ मंदिर को अपने स्वर्णिम अतीत के लिये राजनीतिक संरक्षण की जरूरत पड़ रही है।
रघुनाथ मंदिर की पौराणिकता दस्तावेजों में
प्रायः मंदिरों का इतिहास जनश्रृतियों पर आधारित होता है और उन मंदिरों की सिद्धि रिद्धि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जनश्रृतियों के आधार पर चलती है। लेकिन देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर का इतिहास जनश्रृतियों पर नहीं बल्कि अठारह पवित्र पुराणों में से चार, पद्म पुराण, मत्स्य पुराण, कूर्म पुराण और अग्नि पुराण में मिलता है। इस मंदिर में संबत् 1512 याने कि सन् 1456 ई0 का तत्कालीन गढ़वाल नरेश जगतपाल को मंदिर की मठाधीशी के लिये शंकर भारती कृष्ण भट्ट को दिया गया ताम्र पत्र मौजूद है जिसे गढ़वाल के प्रसिद्ध इतिहासकार कैप्टन शूरवीर सिंह और डा0 यशवन्त सिंह कठौच ने संरक्षित किया है। जबकि जम्मू स्थित उत्तर भारत के विख्यात रघुनाथ मंदिर का इतिहास लगभ 200 साल से कम पुराना है। उस मंदिर का निर्माण 1835 में महाराजा गुलाब सिंह ने शुरू किया था जिसे महाराजा रणवीर सिंह ने 1860 में पूर्ण कराया।
गढवाल का इतिहास भी छिपा है देवप्रयाग मंदिर में
ऐसा माना जाता है कि मूल रूप से मंदिर की स्थापना 8वीं शताब्दी के दौरान आदि शंकराचार्य द्वारा की गई थी। बाद में गढ़वाल राज्य के नरेशों द्वारा इसका विस्तार किया गया। पंवार वंश के 34 वें राजा जगतपाल के बाद 44वें राजा मानशाह द्वारा दान संबंधी एक ताम्रपत्र भी मंदिर में मौजूद बताया गया है जो कि सम्बत 1610 याने कि सन् 1554 का माना जाता है। मानशाह की मृत्यु सन् 1575 में मानी जाती है। इसी वंश के 42 वें राजा सहजपाल द्वारा मंदिर को दान किये गये घंटे का उल्लेख भी मंदिर के शिला लेखों में मिलता है। कि 1664 के मंदिर के दरवाजे और चौखटों पर लगे शिलालेखों से पता चलता है कि इस क्षेत्र पर राजा पृथ्वीपति शाह का शासन था। राजा जयकीर्ति शाह, जिन्होंने 1780 के दौरान इस क्षेत्र पर शासन किया था, ने मंदिर में अपना जीवन समाप्त कर लिया क्योंकि उनके दरबारियों ने उन्हें धोखा दिया था। मंदिर के ठीक पीछे मौजूद शिलालेखों पर ब्राह्मी लिपि में 19 लोगों के नाम खुदे हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि स्वर्ग की प्राप्ति के लिए उन्होंने यहां संगम पर जल-समाधि ले ली थी।
ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति के लिये की थी राम ने तपस्या
माना जाता है कि धारानगरी के आये पंवार वंश के राजा कनकपाल के पुत्र श्याम पाल (722-782 ईस्वी) के गुरु शंकर ने काष्ठ का प्रयोग कर मंदिर शिखर का निर्माण करवाया था। गुरु शंकर और आद्य शंकराचार्य का काल आठवीं सदी का है। उस काल में मंदिर का शिखर परिवर्तित होने के कारण जनश्रुति है कि मंदिर का निर्माण शंकराचार्य ने कराया था। ’’स्कंद पुराण‘‘ के केदारखंड में उल्लेख है कि त्रेता युग में लंकाधिपति रावण से युद्ध के बाद ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्ति के लिए श्रीराम ने देवप्रयाग में तप किया और विश्वेश्वर शिवलिंगम की स्थापना की थी। रावण को महाबली ही नहीं बल्कि महाविद्वान ब्राह्मण और तपश्वी भी माना जाता है। मान्यता है कि राजा रामचन्द्र के गुरु भी इसी स्थान पर रहे थे, जिसे वशिष्ठ गुफा कहते हैं। गंगा के उत्तर में एक पर्वत को राजा दशरथ की तपोस्थली माना जाता है। महाभारत युद्ध से पहले पांडवों ने इसी स्थान पर तपस्या की थी। ऐसा माना जाता है कि ऋषि भारद्वाज ने भी इस स्थान पर तपस्या की थी और सात पवित्र ऋषियों, सप्तर्षियों में से एक बन गए थे।
भगवान राम की प्रतिमा ग्रेनाइट पर
रघुनाथ जी के केंद्रीय मंदिर के चारों ओर बद्रीनाथ, आदि शंकराचार्य, शिव, सीता और हनुमान के कई छोटे मंदिर हैं। केंद्रीय मंदिर में रघुनाथजी की प्रतिमा है, जो खड़ी मुद्रा में एक ग्रेनाइट प्रतिमा है। केंद्रीय मंदिर में एक देउला है, जो गर्भगृह के ऊपर शंक्वाकार छत है। मंदिर के सिंहद्वार तक पहुंचने के लिए 101 सीढ़ियां बनी हुई हैं। मुख्य मंदिर के शीर्ष पर स्वर्ण कलश और गर्भगृह में भगवान राम की विशाल मूर्ति है। मूर्ति के चरण व हाथों पर आभूषण और सिर पर स्वर्ण मुकुट है। प्रतिमा के हाथों में धनुष-बाण और कमर में ढाल है। भगवान के एक ओर सीता और दूसरी ओर लक्ष्मण की मूर्ति है। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार यह मंदिर 1893 के दौरान आए भूकंप के दौरान क्षतिग्रस्त हो गया था। माना जाता है कि क्षतिग्रस्त मंदिर का पुनर्निमाण तत्कालीन ग्वालियर नरेश ने कराया था। वर्तमान में, मंदिर का रखरखाव और प्रबंधन उत्तराखंड सरकार के उत्तराखंड पर्यटन विकास बोर्ड द्वारा किया जाता है। इसे अभी तक यूनेस्को की धरोहर सूची में तक दर्ज नहीं कराया जा सका।
अन्यत्र भी हैं प्राचीन राम मंदिर उत्तराखण्ड में
देवप्रयाग के अलावा भी उत्तराखण्ड में राम मंदिर हैं जिनका उल्लेख ई.टी एटकिंसन ने ‘‘गजेटियर ऑफ हिमालयन डिस्ट्रिट्स‘‘ ग्रन्थ-.2 के भाग-2 में किया है। एटकिन्सन ने अल्मोड़ा में राम पादुक और उलियागांव तथा उदयपुर के रामजनी में राम मंदिरों का उल्लेख करते हुये कहा है कि रामजनी में राम वहां रहे थे और वहां उनका आश्रम था। इसलिये इसके पड़ोस के जंगल का नाम उनके वन वास के कारण वनास पड़ा। इन मंदिरों का इतिहास एटकिन्सन ने सन् 1884 में करीब तीन सौ साल बताया है। एटकिन्सन ने प्राचीन दानपत्रों के आधार पर कुमाऊं में वैष्णव मंदिरों का पूरा विवरण दिया है जिसमें अल्मोड़ा में रघुनाथ मंदिर के अलावा अल्मोड़ा के ही गिंवाड़ में रामचन्द्र, श्रीनगर गढ़वाल में सीता राम मंदिर, चाईं नागपुर में सीता मंदिर और उदयपुर रामजनी में राम मंदिर का उल्लेख किया है।
देश के अन्य विख्यात राम मंदिर
जम्मू और उत्तराखण्ड के अलावा देश के अन्य हिस्सों में और खास कर दक्षिण में भी कुछ राम मंदिर हैं जो कि देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर की तरह भूले बिसरे नहीं हैं। इमनें राम राजा मंदिर, मध्य प्रदेश, सीता रामचन्द्रस्वामी मंदिर, तेलंगाना, रामास्वामी मंदिर, तमिलनाडु, कालाराम मंदिर, नासिक, महाराष्ट्र त्रिप्रयार राम मंदिर, केरल, राम मंदिर, भुवनेश्वर, ओडिशा और कोदंडाराम मंदिर, कर्नाटक, श्रीराम तीर्थ अमृतसर और राम मंदिर हावड़ा पश्चिम बंगाल आदि शामिल हैं।