धर्म/संस्कृति/ चारधाम यात्रा

फूलदेई खस संस्कृति का पारंपरिक लोकोत्सव

-श्याम सिंह रावत

उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में कल परंपरागत फूलदेई लोकोत्सव मनाया गया। यह कब और कैसे शुरू हुआ, ऐतिहासिक रूप से इसकी कोई जानकारी नहीं मिलती लेकिन यदि इस आयोजन को ध्यान से देखें तो इसमें आदिवासियों के लोकोत्सवों की झलक मिलती है। यह उत्सव बच्चों का माना जाता है और सम्भवत: दुनिया में अपनी तरह का अकेला ऐसा त्यौहार है जिसे छोटे-छोटे बच्चे स्वयं जंगलों से चुन-चुन कर लाये गए फूलों से मनाते हुए लोक-कल्याण की कामना करते हैं।

यह निर्विवाद सत्य है कि दुनियाभर के आदिवासी मूलत: प्रकृति पूजक रहे हैं और आज भी हैं। उनका जीवन वन-सम्पदा पर आधारित है। इसीलिए उनकी आस्था प्रकृति के इसके विभिन्न उपादानों से बहुत गहरे जुड़ी हुई रहती है।

फूलदेई उत्तराखंड का एक पारंपरिक लोक उत्सव है, जो बसंत ऋतु के आगमन पर चैत्र मास की संक्रांति को उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल दोनों क्षेत्रों में हर्षोल्लास के साथ खासतौर पर बच्चों द्वारा मनाया जाता है।

फूलदेई का महत्व और परंपरा—
फूलदेई का भावार्थ फूलों से देई (देहरी) को पूजना-सजाना है। इसके लिए बच्चे एक दिन पहले ही जंगलों या आसपास के पेड़-पौधों से मुख्यत: प्योली (फ्योंली), बुरांश, मेहल, हिसालू, गुल बनफ़्सा, ब्राह्मी आदि के फूल तोड़कर लाते हैं। उल्लेखनीय है कि ये सभी फूल जंगलों व खेतों से लाये जाते हैं जिनमें अगली सुबह आसपास खिले फूल तोड़कर मिलाए जाते हैं। इसके बाद इन्हें नन्हे-नन्हे बच्चे गाँव में घूम-घूम कर घरों की देहरी पर डालते हुए सौभाग्य और समृद्धि की कामना करते हैं। यह माना जाता है कि घर की देहरी पर फूल डालने से समृद्धि और खुशहाली आती है। बच्चे फूल बिखेरते हुए यह पारंपरिक लोकगीत गाते हैं—
फूलदेई, छम्मा देई,
दैणी द्वार, भर भकार…!
अर्थात—फूलों के इस त्यौहार पर हम तुम्हारे द्वार पर फूल चढ़ा रहे हैं, तुम्हारे घर में अन्न-धन भरा रहे!

जिन घरों की देहरी पर बच्चे फूल चढ़ाते हैं, वहाँ से उन्हें उपहार में गुड़, चावल, मिठाई या पैसे मिलते हैं। इस अवसर पर घरों में विशेष रूप से मीठे पकवान बनाए जाते हैं।

फूलदेई के दौरान बच्चों द्वारा गाए जाने वाले मांगलिक लोकगीत प्राचीन खस संस्कृति से जुड़े प्रतीत होते हैं। यह त्यौहार बच्चों को सामुदायिक जीवन का हिस्सा बनाने, बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद लेने और सामाजिक सहयोग की भावना सिखाने का एक पारंपरिक तरीका रहा है।

उत्तराखंड में फूलदेई का सांस्कृतिक महत्व—
यह लोकोत्सव उत्तराखंड की प्राचीन आदिवासी लोक-संस्कृति और पारंपरिक रीति-रिवाजों का एक उदाहरण है। फूलदेई त्यौहार की परंपरा उत्तराखंड के मूल पर्वतीय आदिवासी समाज से जुड़ी हुई है, जिसमें खस समुदाय का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

खस समुदाय का पारंपरिक जीवन प्रकृति और कृषि से गहराई से जुड़ा रहा है। बसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए जंगलों और खेतों से फूल लाकर घरों की देहरी पर चढ़ाने की परंपरा खसों की प्रकृति-पूजा और ऋतु-आधारित जीवनशैली से मेल खाती है। खस समाज का कृषि कर्म से जुड़ा होने से ऋतु-पर्वों को विशेष रूप से महत्व दिया जाता था।

ऐतिहासिक रूप से उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में खसों की एक मजबूत प्रशासनिक, सांस्कृतिक और सामाजिक उपस्थिति रही है। कुमाऊं के खस मूल के शासक कत्यूरी राजवंश (700-1025 ई.) तक इस पर्वतीय क्षेत्र के अलावा नेपाल तथा सुदूर मैदानी क्षेत्रों पर शासन करते रहे हैं।

आयरिश भाषाविद जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन के अनुसार कश्मीर से दार्जिलिंग तक निचले हिमालय की आर्यन भाषी आबादी का बड़ा हिस्सा महाभारत के प्राचीन खसों के वंशज जनजातियों द्वारा बसा हुआ है। ये आर्यन मूल के क्षत्रिय जनजाति में से एक थे। जिन्होंने वैदिक नियमों का पालन न करने के कारण वैदिक सभ्यता खो दी थी। इतिहासकार बाबूराम आचार्य का कहना है कि खस ईसा पूर्व तीसरी सहस्राब्दी में इडावृत्त में रहते थे और खस शब्द का मूल अर्थ राजा या क्षत्रिय (योद्धा) था।

बहरहाल, खसों की पारंपरिक मान्यताओं, प्रकृति से जुड़ाव और सामाजिक संरचना ने फूलदेई की तरह हरेला, खतड़ुआ, बग्वाल, हिल्जात्रा, रम्माण, हलिया दसैरा आदि जैसे विविध लोक उत्सवों को आकार दिया है।

यह खस समाज की एक प्रमुख विशेषता रही है कि उनमें महिलाओं को सांस्कृतिक-सामाजिक आयोजनों में महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता था। खस समाज की स्त्री प्रधान सांस्कृतिक धारा में लड़कियों की भागीदारी अहम थी। इसीलिए आज भी फूलदेई में विशेष रूप से लड़कियाँ सक्रिय रूप से भाग लेती हैं।

निष्कर्षत: फूलदेई का खसों से जुड़ा हुआ होने का कोई ठोस दस्तावेज़ी साक्ष्य तो नहीं मिलता, लेकिन फिर भी इसकी प्रकृति-प्रधान, कृषि-आधारित और सामुदायिक विशेषताएँ खस संस्कृति से मेल खाती हैं। उत्तराखंड के कई अन्य पर्वों की तरह यह त्यौहार भी सहस्त्राब्दियों से पर्वतीय समुदायों की मान्यताओं और परंपराओं का हिस्सा रहा है और इसमें खसों की सांस्कृतिक छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।

फूलदेई में जंगलों और खेतों में उगने वाले फूलों का प्रयोग कर शुभकामनाएँ देने की परंपरा इस समुदाय की प्राकृतिक आस्थाओं का प्रमाण है। हालाँकि, शहरीकरण और आधुनिक जीवनशैली के कारण यह परंपरा कुछ स्थानों पर कमजोर पड़ रही है, लेकिन अब कई विद्यालयों और सामाजिक संगठनों द्वारा इसे फिर से जीवंत करने के प्रयास किए जा रहे हैं।

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