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गढ़वाली आठवीं अनुसूची में शामिल हो या नाटक बंद हो

–दिनेश सेमवाल शास्त्री

बीती चार दिसंबर को देहरादून की जनसभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का अपने भाषण की शुरुआत गढ़वाली भाषा से की। इसी महीने के अंत में कुमाऊं में प्रधानमंत्री की रैली होनी है, जाहिर है वहां भी भाषण की शुरुआत कुमाऊंनी के साथ होगी, क्योकि चुनाव पास आ रहे हैं। बहरहाल लोकभाषा में सम्बोधन स्वागतयोग्य है लेकिन सोने में सुहागा तो तब होता जब जनमानस की आकान्क्षा के अनुरूप गढ़वाली और कुमाऊंनी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हो। यह माँग इसलिए भी स्वभाविक है कि जब हर काम के लिए कहा जाने लगा है कि ‘मोदी है तो मुमकिन है’ तो फिर उत्तराखण्ड के लोगों की चिरप्रतिक्षित माँग की उपेक्षा क्यों हो? दरअसल मोदी के सम्बोधन के बाद ही हाल के दिनों में आठवीं अनुसुची की मांग का मुद्दा विमर्श के केंद्र में आ गया है।

उत्तराखण्ड की मातृभाषाओं, गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किये जाने के प्रति प्रधानमंत्री का भाषण निसंदेह एक उम्मीद जगा गया है। आप भी भूले नहीं होंगे कि पहले 2014 के लोकसभा चुनाव, उसके बाद 2017 के विधानसभा चुनाव और फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में भी श्री मोदी ने अपने भाषणों की शुरुआत गढ़वाल में गढ़वाली, कुमाऊं में कुमाऊंनी से की थी लेकिन चार दिसंबर के भाषण में तो उन्होंने बिना पढ़े ही अपने भाषण की शुरुआत गढ़वाली के चार वाक्यों से की। यानी प्रधानमंत्री ने लोकभाषा में सम्बोधन के जरिये जनमानस को उद्वेलित किया है। वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत के इस कथन से असहमति का कोई कारण नहीं है कि लोकभाषा में सम्बोधन के जरिये आप अपना काम निकाल जाते हैं लेकिन गढ़वाली और कुमाउनी को आठवीं अनुसूचि में शामिल करने की कोई बात नहीं होती, लिहाजा उत्तराखण्डवासियों की इस भावनात्मक मांग नहीं मानी गयी तो मोदी जी का गढ़वाली प्रेम नाटक ही माना जायेगा। यही नहीं डबल इंजन का वायदा भी महज एक जुमला ही साबित होगा। इस बेबाक टिप्पणी से श्री रावत ने सत्ता प्रतिष्ठान को न सिर्फ आईना दिखाया है, बल्कि जनभावनाओं की कद्र करने का आग्रह भी किया है।

आप भूले नहीं होंगे, श्री मोदी ने अपने भाषण की शुरुआत में कहा था – “उत्तराखंड का, सभी दाणा सयाणौ, दीदी-भूलियौं, चच्ची-बोडियों और भै-बैणो। आप सबु थैं, म्यारू प्रणाम ! मिथै भरोसा छ, कि आप लोग कुशल मंगल होला ! मी आप लोगों थे सेवा लगौण छू, आप स्वीकार करा।” जाहिर है उनका यह सम्बोधन लोगों की सम्वेदनाओ को छू गया था। इस पर प्रसिद्ध रंगकर्मी और दून विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डा. राकेश भट्ट कहते हैं कि प्रधानमंत्री ने जो भाषाबोध करवाया, उससे लोगों की संवेदनाओं को छूने

की कोशिश की। जरूरत इस बात की है कि यह राजनीतिक स्टंट न हो बल्कि जन भावना के अनुरूप लोकभाषा गढ़वाली और कुमाउनी को आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाए, क्योकि यह माँग अरसे से की जा रही है।

वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत कहते हैं कि  उत्तराखण्ड सहित देश के विभन्न भागों में 50 लाख से अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली उत्तराखण्ड की गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी को संविधान की आठवीं सूची में शामिल किये जाने की मांग कोई नयी नहीं है। चूंकि यह मांग भारत सरकार द्वारा पूरी की जानी है और इसे विधिवत संसद द्वारा संविधान संशोधन के जरिये पूरी होना है, इसलिए उत्तराखण्ड के सांसद समय-समय पर यह मांग संसद में उठाते रहे हैं। इस मांग को लेकर भाजपा और कांग्रेस समेत उत्तराखण्ड में प्रभाव रखने वाले दल एकमत रहे हैं। ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। भाजपा के ही नैनीताल के सांसद और केन्द्रीय रक्षा राज्यमंत्री अजय भट्ट ने 22 नवम्बर 2019 को गढ़वाली- कुमाऊंनी- जौनसारी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए संविधान संशोधन बिल लोकसभा में पेश किया था। उनसे पहले हरिद्वार के सांसद रमेश पोखरियाल निशंक केन्द्र में शिक्षा मंत्री बनने से पहले इस मांग को लोकसभा में जोरदार ढंग से उठा चुके हैं। उनसे भी पहले पौड़ी गढ़वाल का प्रतिनिधित्व कर रहे सतपाल महाराज ने जुलाई 2011 में लोकसभा में इस मांग पर जोर देने के लिए प्राइवेट मेंबर बिल पेश किया था। उन्होंने इस मांग को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहनसिंह को एक ज्ञापन भी सौंपा था, लेकिन इस माँग को आज तक पूरा नहीं किया गया जबकि गढ़वाल और कुमाऊं दोनों जगह यह बात शिद्द्त से की जाती रही है। उत्तराखण्ड की कदाचित एकमात्र गढ़वाली और कुमाऊंनी की पत्रिका कुमूगढ़ के सम्पादक दामोदर जोशी ‘देवान्शु’ कहते हैं कि उत्तराखण्ड की लोकभाषाओ को आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाना वक़्त की जरूरत है अन्यथा भाषा विलुप्त होते देर नहीं लगती। वे मानते हैं कि राजनीतिक लाभ के लिए लोकभाषा के इस्तेमाल में कोई आपत्ति नहीं है लेकिन जनभावना के अनुरूप काम हो तो उससे प्रतिष्ठा बढ़ेगी।

कुमाऊं के कवि हेमंत बिष्ट कहते हैं कि लोकभाषा में सम्बोधन जनता को ऊर्जा देता है, यदि प्रधानमंत्री हमारी लोकभाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करते हैं तो उससे जनता का उत्साह भी द्विगुणित हो जाएगा। लम्बे समय से की जा रही माँग पूरी करने की जिम्मेदारी सत्ता की ही होती है। इसी तरह गढ़वाली भाषा के लिए प्रयत्नशील रमाकांत बेजवाल मानते हैं कि इस काम के लिए लोगों को आगे आना चाहिए। जनप्रतिनिधियों को इस दिशा में पहल करनी होगी। साहित्यकारों के स्तर पर तो अरसे से काम चल ही रहा है।

निष्कर्ष यह की अब वक़्त आ गया है कि उत्तराखंड के अस्तित्व में आने के साथ ही यहाँ की लोकभाषाओ को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग की जा रही है।  प्रधानमंत्री मोदी ने इस मांग को और तीव्र किया है।

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