ब्लॉग

वर्षों से मना रहे हैं दो -दो बालिका दिवस, फिर भी नहीं बदला बालिकाओं के प्रति नजरिया

 

The United Nations General Assembly adopted resolution number 66 by 170 on 19 December 2011 and declared 11 October as International Girl Child Day. The purpose of this resolution was to focus on the need to address the challenges faced by girls and promote their empowerment and their human rights. Earlier in 2008  India had already declared January 24 as National Girl Child Day to highlight the inequalities faced by girls and promote awareness about their rights, including the importance of education, health, and nutrition. Thus, despite two Girls’ Days being celebrated in India today and widely publicized schemes like Beti Bachao, and Beti Padhao of the Government of India, the goal of international and national resolutions is not coming close in India.–JAY S.RAWAT

 

-जयसिंह रावत

संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 19 दिसम्बर 2011 को संकल्प संख्या 66 बटा 170 अपनाते हुये 11 अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस घोषित किया था। इस संकल्प का उदे्श्य बालिकाओं के सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान करने और उनके सशक्तिकरण और उनके मानवाधिकारों को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित करना था। भारत उससे भी पहले 2008 में बालिकाओं के सामने आने वाली असमानताओं को उजागर करने और उनके अधिकारों, शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण के महत्व सहित जागरूकता को बढ़ावा देने के लिये 24 जनवरी को राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाने की घोषणा कर चुका था। इस प्रकार आज भारत में दो-दो बालिका दिवस मनाये जाने और भारत सरकार के बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसी व्यापक प्रचारित योजना के बावजूद भारत में अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय संकल्पों का लक्ष्य करीब नहीं आ पा रहा है।

भारत में मरती हैं सर्वाधिक शिशु बालिका

यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व स्तर पर बालिका शिशुओं में जन्म के समय जीवित रहने की दर बालकों से अधिक होती है, और उनके शारीरिक-मानसिक विकास की राह पर होने की अधिक संभावना होती है। बालिकाओं की प्रीस्कूल में भाग लेने की भी उतनी ही संभावना होती है। लेकिन भारत एकमात्र बड़ा देश है जहां बालकों की तुलना में अधिक बालिकाएं मरती हैं। बालिकाओं की स्कूल छोड़ने की संभावना भी अधिक है। भारत में रोजगार, भीख मांगने, यौन शोषण और बाल मजदूरी जैसे कई उद्देश्यों के लिए असंख्य बच्चों की तस्करी की जाती है। तस्करी की जाने वाली लड़कियों और महिलाओं का सबसे बड़ा प्रतिशत मुंबई और कोलकाता शहरों से पाया गया है। प्रत्येक वर्ष 60 हजार सें अधिक बच्चे गायब हो जाते हैं जिनमें लड़कियों का प्रतिशत अधिक होता है। देश में लड़कियों के कुछ जोखिम, उल्लंघन और कमजोरियाँ हैं जिनका सामना उन्हें केवल इसलिए करना पड़ता है, क्योंकि वे लड़की हैं। इनमें से अधिकांश जोखिम सीधे तौर पर उन आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक नुकसानों से जुड़े हैं जिनका सामना लड़कियां अपने दैनिक जीवन में करती हैं।

 

इंदिरा गांधी के देश में पिछड़ी रह गयीं बालिकाएं

इंदिरा गांधी जैसी कुछ भारतीय महिलाएँ विभिन्न क्षेत्रों में वैश्विक स्तर पर शक्तिशाली आवाज रही हैं। भारत ने विश्व को कल्पना चावला जैसी अंतरिक्ष यात्री दी हैं। आज भारत की बेटियां न केवल फाइटर प्लेन चला रही हैं बल्कि युद्ध के मोर्चे पर भी तैनात हो गयी है। चन्द्रयान-3 की सफलता में भी भारत की बेटियों का महत्वपूर्ण योगदान है। फिर भी भारतीय समाज में पितृसत्तात्मक विचारों, मानदंडों, परंपराओं और संरचनाओं के कारण ज्यादातर बालिकाएं अपने कई अधिकारों का पूरी तरह से उपभोग नहीं कर पाती हैं। लैंगिक भेदभाव और सामाजिक मानदंडों और प्रथाओं के प्रचलन के कारण, बालिकाओं को बाल विवाह, किशोर गर्भावस्था, घरेलू काम, खराब शिक्षा और स्वास्थ्य, यौन शोषण और हिंसा की संभावनाओं का सामना करना पड़ता है।

बालिका दिवस मानाना महज औपचारिकता

भारत में लिंग असमानता के परिणामस्वरूप बालिकाओं को असमान अवसर मिलते हैं। देश में लड़कियों और लड़कों को किशोरावस्था का अनुभव अलग-अलग होता है। जहां लड़कों को अधिक स्वतंत्रता का अनुभव होता है, वहीं लड़कियों को स्वतंत्र रूप से घूमने और अपने काम, शिक्षा, विवाह और सामाजिक रिश्तों को प्रभावित करने वाले निर्णय लेने की क्षमता पर व्यापक सीमाओं का सामना करना पड़ता है। जैसे-जैसे लड़कियों और लड़कों की उम्र बढ़ती है, लैंगिक बाधाएं बढ़ती जाती हैं और वयस्कता तक जारी रहती हैं। राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय बालिका दिवसों के आयोजनों और सरकारी कार्यक्रमों तथा योजनाओं के बावजूद बालिकाओं के प्रति समाज के नजरिये में अब तक कोई खास बदलाव नहीं आ पाया है।

शहरों में गावों से ज्यादा अन्याय

केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2019-21 के अनुसार भारत का कुल लिंगानुपात बढ़कर 1020 कन्या हो गया है। लेकिन यह लैंगिक तरक्की सुविधाभोगी और कथित पढ़े-लिखे जागरूक शहरियों के घरों में नहीं बल्कि ग्रामीण इलाकों में हुयी है। शहरों में आज भी प्रति हजार बालकों पर बालिकाओं की संख्या 985 ही है। मतलब यह कि शहरों में जहां गर्भावस्था में भ्रूण परीक्षण की सुविधाएं हैं, वहां बालिका भू्रण अब भी सुरक्षित नहीं है। ग्रामीण क्षेत्र में लिंगानुपात सनतोषजनक होने के बावजूद वहां चिकित्सा सुविधाओं की कमी के कारण नवजात से लेकर 5 साल से कम बच्चों की मृत्यु दर अधिक है जिनमें बालिकाओं का प्रतिशत अधिक है। इसी सर्वेक्षण के अनुसार देश में अब भी 18 साल से पहले 23 प्रतिशत किशोरों का विवाह हो जाता है जिनमें बालिकाएं ही अधिक होती है। सर्वेक्षण में बाल विवाह के कारण 15 से लेकर 19 साल उम्र की 6.8 प्रतिशत लड़कियां गर्भवती या माताएं पायीं गयीं।

बालिकाओं के खिलाफ बढ़ रहे अपराध

नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की 2021-22 की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2022 में कुल 83,350 बच्चों की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज हुयी जिनमें 20,380 बालक और 62,946 बालिकाएं थीं। बच्चों की यह गुमशुदगी 2012 की तुलना में 7.5 प्रतिशत अधिक थी। इन गुमशुदा बालिकाओं में से 60,281 बरामद तो हुयीं मगर 1,665 का कहीं पता नहीं चला। बच्चों के खिलाफ अपराधों में भी निरन्तर वृद्धि हो रही है। ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2022 में बच्चों के खिलाफ अपराध के कुल 1,62,449 मामले दर्ज हुये जबकि 2021 में 1,49,404 मामले दर्ज हुये थे। एक साल के अंदर यह वृद्धि 8.7 प्रतिशत थी। वर्ष 2021 में बच्चों के अपहरण के 45.7 प्रतिशत, पोस्को एक्ट के तहत यौन अपराध के 39.7 प्रतिशत मामले दर्ज हुये।

बालिका उत्पीड़कों को मिलता है राजनीतिक संरक्षण

भारतीय संस्कृति में कन्या को लक्ष्मी माना जाता है और कई अवसरों पर उनकी पूजा की जाती है। लेकिन समाज में ऐसे दानव मौजूद हैं जिनके कारण हमारे ही देश में देवियों के रूप में पूजी जाने वाली कन्याएं असुरक्षित है। एनसीआरबी की 2021-22 की रिपोर्ट के अनुसार 2021 में यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम 2012 (पोस्को एक्ट) के तहत देश में कुल 62,095 मामले दर्ज हुये थे। सन् 2022 में इन मामलों की संख्या बढ़ कर 63,116 हो गयी। जो कि 9.3 प्रतिशत की वृद्धि दर्शाता है। सन् 2021 में बालिकाओं से बलात्कार के 37,511 मामले दर्ज हुये थे जो 2022 में बढ़ कर 38,030 हो गये। इसी तरह यौन हमलों की संख्या में 3.1 प्रतिशत तथा यौन उत्पीड़न में दशमलब शून्य 4 की वृद्धि दर्ज की गयी। महिला पहलवानों द्वारा गत वर्ष लगाया गया यौन उत्पीड़न का मामला लोग भूले नहीं होंगे। पहलवानों ने सरकार पर व्यभिचारी को बचाने का आरोप लगाया था। उत्तराखण्ड में अंकिता हत्याकांड राजनीतिक संरक्षण प्राप्त अपराधियों की करतूतों के कई उदाहरणों में से एक उदाहरण है।

बलिकाओं के प्रति सोच बदलना सबसे जरूरी

भारत तब तक पूरी तरह से विकसित नहीं होगा जब तक कि लड़कियों और लड़कों, दोनों को उनकी पूरी क्षमता तक पहुंचने के लिए समान रूप से अवसर नहीं दिये जाते। प्रत्येक बच्चा अपनी पूरी क्षमता तक पहुंचने का हकदार है, लेकिन उनके जीवन में और उनकी देखभाल करने वालों के जीवन में लैंगिक असमानताएं इस वास्तविकता में बाधा डालती हैं। शिक्षा, जीवन कौशल, खेल और बहुत कुछ के साथ निवेश करके और उन्हें सशक्त बनाकर लड़कियों के महत्व को बढ़ाना महत्वपूर्ण है। लड़कियों के खिलाफ अत्याचार करने वालों को राजनीतिक आधार पर माफ करना या उनको बचाना घोर सामाजिक अपराध भी हैं। लड़कियों के महत्व में वृद्धि करके हम सामूहिक रूप से विशिष्ट परिणामों की उपलब्धि में योगदान दे सकते हैं, कुछ अल्पकालिक (शिक्षा तक पहुंच बढ़ाना, एनीमिया को कम करना), अन्य मध्यम अवधि जैसे बाल विवाह को समाप्त करना और अन्य दीर्घकालिक उपायों में लिंग-पक्षपाती व्यवस्था को समाप्त करना और लिंग चयन से मुक्ति पाना शामिल है।

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!