होली: रंगों का उत्सव और बदलते समय की चुनौतियां
Holi is a festival of joy and colors, where people celebrate by applying colors to each other with love and enthusiasm. It symbolizes the victory of good over evil and is linked to the story of Prahlad’s unwavering devotion and the downfall of the arrogant king Hiranyakashipu. This festival promotes brotherhood and unity in society, breaking barriers of caste, religion, and social class as everyone comes together to celebrate. However, with time, the way Holi is celebrated has also changed. Earlier, this festival was enjoyed with natural colors and harmony, but today, it is accompanied by chemical-based colors, excessive water wastage, plastic waste, and unruly behavior. These changes have led to significant environmental damage, depleting natural resources and causing various health hazards. Therefore, it is crucial to honor our traditions while also being responsible towards the environment, ensuring that Holi remains clean, safe, and eco-friendly. Several factors contribute to environmental degradation during Holi, primarily the use of chemical-based colors, excessive water consumption, and pollution from Holika Dahan. In earlier times, people used natural colors made from flowers, turmeric, sandalwood, and herbal ingredients. However, most colors available in the market today are synthetic and contain harmful chemicals like lead, mercury, and chromium. These colors harm the skin and eyes and pollute water sources. After Holi, when these colors are washed away, they mix into rivers, ponds, and lakes, posing a serious threat to aquatic life.
–जयसिंह रावत –
होली खुशियों और रंगों का त्योहार है, जिसमें लोग प्रेम और उमंग के साथ एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। यह अच्छाई की बुराई पर जीत का प्रतीक है, जिसका संबंध प्रह्लाद की भक्ति और अहंकारी राजा हिरण्यकश्यप के अंत की कथा से जुड़ा हुआ है। यह पर्व समाज में भाईचारे और एकता को मजबूत करता है, जहां जाति, धर्म और वर्ग की दीवारें टूट जाती हैं और सभी मिलकर उत्सव मनाते हैं। हालांकि, समय के साथ होली मनाने की परंपराएं भी बदली हैं। पहले यह त्योहार प्राकृतिक रंगों और सौहार्द के साथ मनाया जाता था, लेकिन अब इसमें रासायनिक रंगों, पानी की अत्यधिक बर्बादी, प्लास्टिक कचरे और हुड़दंग जैसी समस्याएं जुड़ गई हैं। इन बदलावों के कारण पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है, जिससे प्राकृतिक संसाधनों की हानि हो रही है और कई स्वास्थ्य संबंधी जोखिम भी बढ़ रहे हैं। ऐसे में जरूरत है कि हम अपनी सांस्कृतिक परंपराओं का सम्मान करते हुए पर्यावरण के प्रति भी संवेदनशील रहें और होली को स्वच्छ, सुरक्षित तथा प्रकृति के अनुकूल बनाने की दिशा में प्रयास करें।
पर्यावरण पर होली के प्रभाव
होली के दौरान पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले कई कारक सामने आते हैं, जिनमें मुख्य रूप से रासायनिक रंगों का प्रयोग, पानी की अत्यधिक खपत और होलिका दहन से उत्पन्न प्रदूषण शामिल हैं। पहले के समय में होली में प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया जाता था, जो फूलों, हल्दी, चंदन और अन्य हर्बल सामग्रियों से बनाए जाते थे। लेकिन आज बाजार में मिलने वाले अधिकतर रंग सिंथेटिक होते हैं, जिनमें लेड, पारा, क्रोमियम और अन्य विषैले तत्व होते हैं। ये न केवल त्वचा और आंखों के लिए हानिकारक होते हैं, बल्कि जल स्रोतों को भी प्रदूषित करते हैं। होली के बाद जब ये रंग पानी में बहाए जाते हैं, तो ये नदियों, तालाबों और झीलों में मिलकर जलीय जीवों के लिए खतरा पैदा करते हैं।
इसी तरह, होलिका दहन भी पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है। यह परंपरा बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है, लेकिन वर्तमान में इसका स्वरूप बदल गया है। भारी मात्रा में लकड़ी जलाने से वनों की कटाई को बढ़ावा मिलता है, साथ ही इससे निकलने वाला धुआं वायु प्रदूषण को बढ़ाता है। कुछ स्थानों पर लोग प्लास्टिक, कचरा और अन्य हानिकारक सामग्री जलाते हैं, जिससे कार्बन मोनोऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड और अन्य जहरीली गैसें निकलती हैं। इससे न केवल पर्यावरण दूषित होता है, बल्कि सांस संबंधी बीमारियों का खतरा भी बढ़ जाता है। इसलिए यह जरूरी है कि हम होली मनाने के पारंपरिक तरीकों को पुनर्जीवित करें और इसे पर्यावरण के अनुकूल बनाने की दिशा में सार्थक प्रयास करें।
शरारत के लिए पानी की बर्बादी
इसके अलावा, होली खेलने में पानी की अत्यधिक खपत होती है। विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों में पानी के गुब्बारों और रंगों से भीगे कपड़ों को धोने के कारण हजारों लीटर पानी बर्बाद होता है। कई शहर और गांव पहले से ही जल संकट का सामना कर रहे हैं, ऐसे में होली के दौरान पानी का असावधानीपूर्वक उपयोग पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। हमें यह समझना होगा कि पानी एक अनमोल संसाधन है और इसकी बर्बादी को रोकना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है।
हुड़दंग और सामाजिक चुनौतियां
होली को खुशी और मेल-जोल का पर्व माना जाता है, लेकिन कई बार यह अनुशासनहीनता और हुड़दंग का रूप भी ले लेता है। कई जगहों पर होली के नाम पर शराबखोरी, अभद्रता और जबरदस्ती रंग लगाने जैसी घटनाएं देखने को मिलती हैं। विशेष रूप से महिलाओं के लिए यह त्योहार असहज हो सकता है, क्योंकि कई बार लोग जबरन रंग लगाने और छेड़छाड़ जैसी घटनाओं को “होली का मजाक” कहकर टालने की कोशिश करते हैं। यह न केवल सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन है, बल्कि त्योहार की पवित्रता को भी दूषित करता है।
इसके अलावा, कुछ लोग होली के दौरान तेज आवाज में डीजे और पटाखों का उपयोग करते हैं, जिससे ध्वनि प्रदूषण बढ़ता है। यह विशेष रूप से वृद्ध लोगों, बीमार व्यक्तियों और छोटे बच्चों के लिए परेशानी का कारण बनता है। त्योहार का आनंद उठाना सभी का अधिकार है, लेकिन यह दूसरों की असुविधा का कारण नहीं बनना चाहिए। इसलिए होली को संयम और मर्यादा के साथ मनाना आवश्यक है, ताकि यह वास्तव में भाईचारे और आनंद का प्रतीक बना रहे।
पर्यावरण–अनुकूल होली के उपाय
होली को पर्यावरण-संवेदनशील बनाना मुश्किल नहीं है, बस इसके लिए थोड़ी जागरूकता और सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता है। सबसे पहले, हमें रासायनिक रंगों के स्थान पर प्राकृतिक रंगों का उपयोग करना चाहिए। फूलों से बने रंग, हल्दी, चंदन और मेंहदी जैसे विकल्प न केवल पर्यावरण के लिए सुरक्षित हैं, बल्कि त्वचा और स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक हैं। इसके अलावा, यदि बाजार में हर्बल रंग उपलब्ध नहीं हैं, तो घर पर ही आटा, बेसन या मैदा से सूखा गुलाल तैयार किया जा सकता है।
“सूखी होली” मनाने पर जोर दिया जाना चाहिए
पानी की बचत के लिए “सूखी होली” मनाने पर जोर दिया जाना चाहिए। रंगों से खेलने का आनंद सूखे गुलाल से भी लिया जा सकता है, जिससे पानी की बर्बादी को रोका जा सकता है। यदि पानी का उपयोग करना ही है, तो इसे सीमित मात्रा में और सोच-समझकर किया जाए। पानी के गुब्बारों और पिचकारियों के अनावश्यक उपयोग से बचना चाहिए, क्योंकि इससे पानी की खपत बढ़ती है और कई बार चोट लगने की घटनाएं भी होती हैं।
लकड़ी की बचत हो तो अच्छा है
होलिका दहन को अधिक पर्यावरण-अनुकूल बनाने के लिए पारंपरिक लकड़ी के बजाय गोबर के उपले और कृषि अपशिष्ट का उपयोग किया जा सकता है। इससे लकड़ी की कटाई कम होगी और वायु प्रदूषण भी नियंत्रित रहेगा। कुछ स्थानों पर “सामूहिक होलिका दहन” की परंपरा शुरू की जा रही है, जिसमें एक ही स्थान पर सभी लोग मिलकर होली जलाते हैं, जिससे लकड़ी की बर्बादी कम होती है। इस तरह की पहल को अधिक बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
साथ ही, होली के दौरान स्वच्छता बनाए रखना भी बहुत जरूरी है। त्योहार के बाद प्लास्टिक की पन्नियों, रंगों और अन्य कचरे को इधर-उधर न फेंकें। सफाई का विशेष ध्यान रखें और सार्वजनिक स्थानों को स्वच्छ बनाए रखें। यदि हम अपने आस-पास के लोगों को भी सफाई के महत्व के बारे में जागरूक करें, तो यह त्योहार और भी अधिक सकारात्मक और अर्थपूर्ण बन सकता है।
रंग ऐसे खेलें जो दिलों को जोड़ें
इस बार होली मनाते समय संकल्प लें कि हम प्राकृतिक रंगों का उपयोग करेंगे, पानी की बचत करेंगे, सफाई का ध्यान रखेंगे और त्योहार को सम्मानजनक तरीके से मनाएंगे। आखिरकार, होली का असली मकसद खुशियां फैलाना और रिश्तों को मजबूत बनाना है, न कि प्रकृति को नुकसान पहुंचाना। जब हम पर्यावरण और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए होली मनाएंगे, तब यह वास्तव में रंगों का त्योहार बनेगा। “रंग ऐसे खेलें जो दिलों को जोड़ें, न कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाएं!”
(आलेख में लेखक के निजी विचार हैं.– एडमिन)