पर्यावरणब्लॉगमौसम

भारत में गर्मी से कितने लोग मरते हैं? किसी को ठीक-ठीक पता नहीं

 

विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार अभी तक गर्मी से होने वाली मौतों की वास्तविक संख्या समझ ही नहीं पाई है, और न ही इस बढ़ती समस्या से निपटने के लिए पर्याप्त रूप से तैयार है।

-अनुप्रीता दास, नई दिल्ली से रिपोर्टिंग-

भारत पहले से कहीं ज़्यादा और कहीं तेज़ गर्म हो रहा है। दुनिया के सबसे अधिक जनसंख्या वाले देश में गर्मी की लहरें अब अधिक आवृत्ति और अधिक तीव्रता के साथ आ रही हैं। लेकिन 1.4 अरब आबादी वाले भारत—जहाँ बड़ी संख्या में लोग गरीब हैं और जलवायु परिवर्तन के असर के प्रति अत्यधिक संवेदनशील—ने अभी तक इस संकट की व्यापकता को पूरी तरह समझा ही नहीं है। सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों का कहना है कि देश इस समस्या से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए भी पर्याप्त रूप से तैयार नहीं है।

गर्मी से होने वाली मौतें कैसे गिनी जाती हैं?

समस्या की शुरुआत गिनती से ही हो जाती है। गर्मी से होने वाली मौतें आमतौर पर तब होती हैं जब शरीर अत्यधिक गर्म हो जाता है और खुद को ठंडा नहीं कर पाता—विशेषकर तब, जब तापमान और नमी दोनों बहुत ज़्यादा हों। लेकिन कई मौतें ऐसी भी होती हैं, जिनमें किसी मूल बीमारी के कारण व्यक्ति की गर्मी सहने की क्षमता पहले से ही कम होती है। अनेक अध्ययनों से संकेत मिलता है कि भारत में ऐसी मौतों की गिनती बहुत कम की जाती है।

इसका एक कारण यह है कि सरकारी डॉक्टर गर्मी-संबंधी मृत्यु की परिभाषा को बहुत संकीर्ण तरीके से लेते हैं और केवल स्पष्ट मामलों—जैसे हीट स्ट्रोक—को ही दर्ज करते हैं। सरकारी दिशानिर्देशों के अनुसार, किसी मृत्यु को गर्मी-संबंधी मानने के लिए डॉक्टरों को परिवेशीय तापमान और मृत्यु की परिस्थितियों को ध्यान में रखना चाहिए, भले ही शरीर का तापमान बाद में ठंडा कर दिया गया हो। निर्देशों में यह भी कहा गया है कि ऐसी मृत्यु का निर्धारण एक जांच-आधारित प्रक्रिया है, जो पहले से ही अधिक बोझ झेल रही भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली पर अतिरिक्त समय और श्रम का दबाव बढ़ा देती है।

भारतीय लोक स्वास्थ्य संस्थान, गांधीनगर के पूर्व निदेशक दिलीप मावलंकर कहते हैं,
“सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर अक्सर अत्यधिक काम में दबे होते हैं और मृत्यु-कारण पहचानने में पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित नहीं होते।’’ निजी अस्पताल, जो भारत में बड़ी मात्रा में चिकित्सा सेवाएँ देते हैं, गर्मी-संबंधी मौतों को अलग से दर्ज ही नहीं करते।

सस्टेनेबल फ्यूचर्स कोलेबोरेटिव के पर्यावरण स्वास्थ्य और नीति शोधकर्ता भार्गव कृष्णा के अनुसार, गर्मी से बीमार होकर अस्पताल पहुँचने और सही ढंग से निदान हो पाने वाले लोग, वास्तविक पीड़ितों का “बहुत छोटा प्रतिशत’’ होते हैं। इसीलिए रिपोर्ट की गई मौतें, वास्तव में होने वाली मौतों की सही तस्वीर बिल्कुल नहीं दर्शातीं।

पिछले वर्ष भारतीय गैर-लाभकारी संस्था ‘हीटवॉच’ ने पाया कि सरकारी आंकड़े मीडिया में रिपोर्ट की गई गर्मी-संबंधी मौतों से बहुत कम थे। कारण यह भी है कि अलग-अलग सरकारी एजेंसियों के मानक और गिनती की पद्धति अलग-अलग हैं। उदाहरण के लिए मार्च–जून 2024 के बीच ओडिशा में अख़बारों ने 41 पुष्टि-शुदा मौतें दर्ज कीं, जबकि जुलाई में संसद में दिए उत्तर में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने राज्य में केवल 26 मौतें बताईं।

अध्ययन क्या बताते हैं?

टूटी-फूटी और असंगत जानकारी के बावजूद कुछ अध्ययन इस स्थिति की गंभीरता दिखाते हैं। 2024 में एन्वायरनमेंट इंटरनेशनल जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, “हीट वेव” वाले दिनों में होने वाली कुल मौतों में 14.7% की वृद्धि देखी गई। यह निष्कर्ष 10 भारतीय शहरों के लगभग एक दशक के औसत तापमान और कुल मृत्यु-आंकड़ों के विश्लेषण पर आधारित था।

इस अध्ययन को आगे बढ़ाते हुए कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले के दो शोधकर्ताओं ने पाया कि यदि भारत में हर वर्ष पाँच हीट वेव्स आएँ और प्रत्येक पाँच दिन चले, तो गर्मियों में कम से कम 1.5 लाख अतिरिक्त मौतें हो सकती हैं।

उन्होंने सरकारी एजेंसियों के आँकड़ों में असमानता भी उजागर की। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार 2000–2020 के बीच 17,706 मौतें हुईं, जबकि भारतीय मौसम विभाग ने इसी अवधि में 10,545 मौतें दर्ज कीं। यह अंतर अलग-अलग पद्धतियों और आंकड़ों के स्रोतों के कारण बताया गया।

कई वैज्ञानिक चाहते हैं कि भारत एक एकीकृत डिजिटल डेटाबेस बनाए, जिसमें शहर और जिला स्तर पर मौसम और मृत्यु के सूक्ष्म आंकड़े हों, ताकि यह समझा जा सके कि गर्मी विभिन्न वर्गों को कैसे प्रभावित करती है और किस प्रकार अनुकूलन नीतियाँ बनाई जाएँ।

भारत इससे निपटने के लिए क्या कर रहा है?

भारत मौसम विज्ञान विभाग किसी क्षेत्र में तापमान सामान्य से निश्चित सीमा तक अधिक होने पर, या अधिकतम तापमान 45°C (113°F) से ऊपर जाने पर “हीट वेव’’ घोषित करता है—शर्त यह है कि यह स्थिति कम से कम दो लगातार दिनों तक बनी रहे।आपदा प्रबंधन एजेंसियाँ, मंत्रालय और मौसम विभाग मानते हैं कि गर्मी की लहरें एक गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या हैं और इन्हें संभालने के लिए बेहतर पूर्वानुमान और प्रबंधन उपकरणों की जरूरत है। सैकड़ों शहरों और राज्यों ने हीट एक्शन प्लान बनाए हैं, हालांकि इनका अनुपालन असमान है।
जागरूकता अभियानों और सलाहों ने लोगों की दिनचर्या और आदतों में कुछ बदलाव तो लाए हैं, पर विशेषज्ञ मानते हैं कि यह काफी नहीं है।

मार्च में हार्वर्ड विश्वविद्यालय और भारतीय सरकार द्वारा आयोजित जलवायु सम्मेलन के बाद विश्वविद्यालय ने कहा कि सरकार को पूर्वानुमान प्रणाली और प्रभावी बनानी होगी तथा स्वास्थ्य जानकारी का संग्रहण अभी भी खंडित है।
संस्थान ने कहा,
“शहर-स्तर पर हमारी मृत्यु और गर्मी-एक्सपोज़र की समझ अभी बहुत सतही है, लेकिन उपलब्ध जानकारी भी पर्याप्त है कि हम बेहतर सार्वजनिक स्वास्थ्य फैसले ले सकें।”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!