जनवरी में जब टिहरी की राजशाही का सिंहासन पलटा… पढ़िये फिर क्या हुआ ?
-जयसिंह रावत
टिहरी प्रजामण्डल द्वारा 14-15 जनवरी को राजशाही का तख्ता पलट किये जाने के बाद 16 जनवरी 1948 को भारत सरकार द्वारा टिहरी का प्रशासन अपने हाथ में लिये जाने के बाद अराजकता का महौल जारी रहा। नेता जहां स्वयं को राजा समझने लगे थे वहीं ग्रामीण जनता भी सोचने लगी थी कि अब राजा की हुकूमत नहीं तो किसी की भी नहीं है। कानून व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं रह गयी थी। टिहरी का प्रशासन भारत सरकार के हाथों में चले जाने के बावजूद प्रजामण्डल के नाम पर कुछ लोग पटवारी जैसे सरकारी कर्मचारियों को लूट रहे थे। 15 जनवरी से लेकर 15 फरबरी 1948 को अन्तरिम सरकार के अस्तित्व में आने तक प्रजामण्डल के नेताओं द्वारा कई पटवारियों से सरकारी रकम जबरन छीने जाने के मामले तब प्रकाश में आये जबकि दरबार के चीफ सेक्रेटरी ने प्रजामण्डल से वह रकम वापस लौटाने को कहा जो कि प्रजामण्डल के नेताओं ने पटवारियों से जबरन छीन ली थीं।

राज्य के चीफ सेक्रटरी ने सबसे पहले 24 जुलाइ 1948 को प्रजामण्डल के जनरल सेक्रटरी को अपने पत्रांक 1551/5/एम-15 (अभिलेखागारः कॉरेस्पांडेंस रिगार्डिंग लौस्ट और डिस्ट्रौयड प्रोपर्टी ड्यूरिंग सत्याग्रह) के द्वारा पटवारी नारायणसिंह से प्रजामण्डल के मंत्री द्वारा छीनी गयी लगभग 3 हजार रुपये की रकम लौटाने का अनुरोध किया। लेकिन इस पत्र में चीफ सेक्रेटरी ने पटवारी से रकम छीनने वाले का नाम विद्यासागर नौटियाल बता रखा है। 23 जनवरी 1948 को जिस दिन रकम जबरन मांगे जाने का उल्लेख किया गया है उस दिन तक विद्यासागर नौटियाल कम उम्र के छात्र थे। पटवारी को उस तिथि को जो रशीद दी गयी है, उसमें हस्ताक्षर के स्थान पर मंत्री वु. सागर लिखा गया है। इसलिये यह नाम बुद्धिसागर भी हो सकता है। विद्यासागर नौटियाल का जन्म 1933 में हुआ था। इस लिहाज से वह उस समय मात्र 15 साल के थे।

बहरहाल चीफ सेक्रेटरी ने प्रजामण्डल के जनरल सेक्रेटरी को पहला पत्र 24 जुलाइ 1948 को लिखा जिसमें कहा गया कि प्रजामण्डल के नेता विद्यासागर नौटियाल ने जन आन्दोलन के दौरान हल्का पटवारी बंगाण सिंगतूर, नारायण सिंह से गोदी सिराई में सरकारी रकम ले ली थी तथा उसकी कच्ची रसीद भी दे दी थी लेकिन काफी समय गुजर जाने के बाद भी वह रकम सरकारी खजाने में जमा नहीं की गयी। इससे पहले तत्कालीन निर्माण एवं यातायात मंत्री ने भी इस रकम के बारे में पूछताछ की थी। इसके बाद चीफ सेक्रेटरी ने अपने पत्र संख्या 123ध्टप्.ड.15 दिनांक-17-1-49 को प्रजामण्डल के सेक्रेटरी को एक पत्र फिर भेजा जिसमें कहा गया था कि बंगाण गितूर के पटवारी नारायण सिंह ने रिपोर्ट भेजी थी जिसमें कहा गया था कि “मु0 3090/Ú)रुपये सरकारी रकम के जो कि वह दाखिल खजाने करने के लिये टिहरी ले जा रहा था वह रुपये जन आन्दोलन के वक्त 4 माघ संबत् 2004 को गोदी सिराई में श्री विद्यासागर नौटियाल ने उससे ले लिये थे और उसे रशीद दे दी थी। आपसे निवेदन किया गया था कि आप इन रुपयों को सरकारी खजाने में जमा करा दें। किन्तु अभी तक न तो रुपये जमा किये गये और न पत्र का उत्तर ही मिला। अतः आपसे फिर निवेदन है कि कृपया इन रुपयों को शीघ्र ही दाखिल खजाने करवा कर इस दफ्तर को सूचित करने की कृपा करें।” जो कच्ची रसीद पटवारी नारायण सिंह को दी गयी थी उसमें 1842), 255 प्प्प्), 575), 240), 30) और 40) रुपयों का उल्लेख किया गया था। इसका मतलब यह कि ये अलग-अलग राशियां अलग-अलग गावों से कर के रूप में पटवारी द्वारा वसूल की गयी थी। राज्य अभिलेखागार में उपलब्ध “कॉरेस्पांडेंस रिगार्डिंग लौस्ट और डिस्ट्रौयड प्रोपर्टी ड्यूरिंग सत्याग्रह”, नाम की फाइल में यह रकम वसूल होने का कहीं उल्लेख नहीं है। पटवारी को लूटने की घटनाएं किसान आन्दोलन शुरू होने के समय से चल रही थी जो कि अन्तरिम सरकार के गठन के समय तक चलती रहीं।

टिहरी के भविष्य पर मंथन
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सन् 1947 के उत्तरार्द्ध में परिपूर्णानन्द पैन्यूली के नेतृत्व में भड़की जनक्रांति की सफलता के साथ ही टिहरी का प्रशासन हाथ से निकल जाने के बाद राजशाही परकटे पंछी की तरह रह गयी थी। राज्य में राजा तो था मगर हुकुमत संयुक्त प्रांत के एसडीओ के हाथ में थी। 16 जनवरी 1948 को संयुक्त प्रान्त के नेताओं महावीर त्यागी, भक्तदर्शन, हुलास वर्मा, नरदेव शास्त्री आदि की उपस्थिति में टिहरी में दौलतराम की अध्यक्षता में आयोजित जनसभा में सूचित किया गया कि भारत सरकार के देशी राज्य विभाग ने टिहरी राज्य में शांति और व्यवस्था बनाये रखने के लिये राज्य के शासन को संयुक्त प्रान्त की सरकार को सौंप दिया है। जब तक सरकार कोई व्यवस्था नहीं करती है तब तक एसडीओ दौलतराम के परामर्श से राज्य की व्यवस्था करेगा। इस तरह 16 जनवरी से लेकर 15 फरबरी तक एस.डी.ओ. के तहत रियासत की प्रशासन की व्यवस्था रही। उस समय राज्य के राजकोष में 38 लाख रुपये नकद काफी मात्रा में सोना-चांदी मौजूद था जो कि नये शासन के अधीन आ गया। (डबराल: गढ़वाल का इतिहास भाग-3: 393) राजा की ओर से भी इस व्यवस्था में कोई अड़ंगा नहीं लगाया गया। उस दौरान अब टिहरी के भविष्य के बारे में विचार मन्थन शुरू हो गया था। कुछ लोग राजा की छत्रछाया में उत्तरदायी शासन के पक्षधर थे तो कुछ बिना राजा के आजाद पंचायत का शासन चाहते थे। जबकि प्रजामण्डल का एक वर्ग रियासत का भारत संघ में विलय की वकालत कर रहा था। चूंकि टिहरी रियासत भी हिमाचल प्रदेश की अन्य पहाड़ी रियासतों के समूह में ही शामिल था और उन रियासतों के प्रजामण्डलों में राजाओं की छत्रछाया में उत्तरदायी शासन पर ही जोर दिया जा रहा था, इसलिये टिहरी प्रजामण्डल में भी इस विचार के पोषक भी बहुतायत में थे। प्रजामण्डल के कुछ नेताओं ने प्रधान पैन्यूली और कार्यकारिणी की अनुमति के बिना टिहरी को उत्तर प्रदेश में मिलाने की मुहिम शुरू कर दी थी। जबकि प्रजामण्डल का स्टैंड तब तक महाराजा की छत्रछाया में उत्तरदायी शासन वाला ही था।
( जयसिंह रावत की पुस्तक-‘‘टिहरी राज्य के ऐतिहासिक जन विद्रोह’’ से साभार लिया गया अंश। पुस्तक विन्सर पब्लिशिंग कम्पनी के पास उपलब्ध है। बिना अनुमति इस अंश का किसी भी प्रकार का उपयोग कॉपी राइट कानून के तहत दंडनीय अपराध है।)