भारत के केंद्रीय बैंक (RBI) की यात्रा का रोचक वृतांत….जानिए देश के शीर्ष बैंक को
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PREAMBLE :
“With a view to achieving monetary stability in India, regulating the issue of bank notes and maintaining the reserve fund and generally operating the currency and credit system in the interest of the country, a modern monetary policy framework to meet the challenge of a highly complex economy.” “To maintain price stability while keeping the growth objective in mind.”
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The Reserve Bank of India was set up on April 1, 1935. It is one of the few central banks to document its institutional history. So far, it has brought out four volumes of its history. Volume 1, covering the period from 1935 to 1951, was published in 1970. It details the initiatives taken to put in place a central bank for India and covers the formative years of the Reserve Bank. It highlights the challenges faced by the Reserve Bank and the Government during World War II and the post-independence era.

–वी. श्रीनिवास
भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना वर्ष 1935 में देश के केंद्रीय बैंक के रूप में हुई थी। प्रथम गोलमेज सम्मेलन की उप-समिति ने साफ-साफ शब्दों में कहा था कि सुदृढ़ नींव और किसी भी राजनीतिक प्रभाव से पूरी तरह मुक्त एक रिजर्व बैंक की स्थापना करने की नितांत आवश्यकता है, जिसके लिए हमें कोई भी कसर नहीं छोड़नी चाहिए। उप-समिति ने इसके साथ ही यह भी कहा था कि रिजर्व बैंक को मुद्रा के साथ-साथ मुद्रा विनिमय के प्रबंधन की अत्यंत महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी जाएगी। सर ओसबोर्न स्मिथ को भारतीय रिजर्व बैंक के प्रथम गवर्नर के रूप में इसकी कमान सौंपी गई थी। सर स्मिथ की नियुक्ति करते समय यह सुनिश्चित करने की भरसक कोशिश की गई थी कि भारतीय रिजर्व बैंक के प्रथम गवर्नर एक ऐसे व्यक्ति होंगे जिन पर बैंक ऑफ इंग्लैंड पूर्ण भरोसा कर सकता है। यही नहीं, बैंक ऑफ इंग्लैंड ने भारतीय रिजर्व बैंक के प्रथम गवर्नर से निर्विवाद सहयोग मिलने की उम्मीद भी कर रखी थी। हालांकि, सर ओसबोर्न स्मिथ बैंक ऑफ इंग्लैंड की इस अपेक्षा पर खरे नहीं उतरे। सर ओसबोर्न स्मिथ ने वर्ष 1936 में दो टूक शब्दों में यह कहते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया कि सरकार आरबीआई पर हावी होने की अनुचित कोशिश कर रही है। सर ओसबोर्न स्मिथ के इस्तीफे के अनेक कारण थे। इनमें से एक वजह तो यह थी कि सर स्मिथ तुनकमिजाज थे। हालांकि, गंभीर वैचारिक मतभेद को सर स्मिथ के इस्तीफे का असली कारण बताया जाता है जो बैंक रेट को कम करने एवं बैंक के निवेश के प्रबंधन को लेकर उनके और सदस्य (वित्त) के बीच उत्पन्न हो गए थे।
11 अगस्त, 1943 को सर सी.डी.देशमुख, आईसीएस, भारतीय रिजर्व बैंक के प्रथम भारतीय गवर्नर नियुक्त किए गए।उस समय सर देशमुख की आयु सिर्फ 47 साल थी। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक की स्थापना के लिए वर्ष 1944 में आयोजित ब्रेटन वुड्स सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व किया, जिनमें भारत एक मूल सदस्य के रूप में शामिल हुआ। आगे चलकर भारतीय रिजर्व बैंक का राष्ट्रीयकरण किया गया और इसके साथ ही उसमें सरकारी स्वामित्व सुनिश्चित किया गया। 1 जुलाई 1949 को सर बेनेगल रामा राव आरबीआई के गवर्नर नियुक्त किए गए। वर्ष 1951 में आरबीआई ने ब्याज दर को 3 प्रतिशत से बढ़ाकर 3.5 प्रतिशत कर दिया, जो वर्ष 1935 से ही अपने पुराने स्तर पर टिकी हुई थी। 12 दिसंबर, 1956 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने आरबीआई के गवर्नर सर बेनेगल रामा राव द्वारा वित्त विधेयक पर आरबीआई के निदेशकों को भेजे गए एक विशेष नोट पर अपनी नाराजगी जताते हुए उन्हें एक पत्र लिखा। प्रधानमंत्री ने साफ-साफ शब्दों में लिखा, ‘इस नोट को पढ़कर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ है। इस नोट में लिखी बातों को तो छोड़ ही दें, मुझे तो समग्र नजरिया ही अनुचित प्रतीत हो रहा है। मुझे तो यह केंद्र सरकार के खिलाफ बगावती तेवर जैसा प्रतीत हो रहा है। मौद्रिक नीतियों को निश्चित तौर पर उन व्यापक नीतियों के अनुरूप रहना चाहिए जिसे कोई भी सरकार अपनाती है। इन व्यापक नीतियों के दायरे में रहते हुए ही रिजर्व बैंक को कोई सलाह देनी चाहिए। रिजर्व बैंक सरकार के मुख्य उद्देश्य और नीतियों को चुनौती नहीं दे सकता है।’ 7 जनवरी, 1957 को सर बेनेगल रामा राव ने आरबीआई के गवर्नर पद से इस्तीफा दे दिया।
जुलाई 1966 में, भारत से होने वाले निर्यात की प्रतिस्पर्धी क्षमता बढ़ाने के उद्देश्य से घरेलू मूल्यों को बाह्य कीमतों के अनुरूप करने के लिए रुपये का 36.5 प्रतिशत अवमूल्यन कर दिया गया। इसके परिणामस्वरूप एक अमेरिकी डॉलर की कीमत जो पहले 4.75 रुपये के बराबर थी वह बढ़कर 7.50 रुपये हो गई। इसी तरह एक पौंड स्टर्लिंग की कीमत जो पहले 13.33 रुपये के बराबर थी वह बढ़कर 21 रुपये हो गई। आगे चलकर सरकार ने एक योजना अवकाश घोषित किया। इसके बाद एक अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय लिया गया जिसके तहत जुलाई 1969 में सरकार ने बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं अंतरण) अध्यादेश 1969 के तहत 14 प्रमुख भारतीय अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण का अनुमोदन कर दिया। इसके पश्चात जनवरी 1976 में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक विधेयक पारित होने के बाद ग्रामीण ऋण का प्रवाह बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित किया गया। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों (आरआरबी) की परिकल्पना सरकार द्वारा प्रायोजित, क्षेत्र विशेष आधारित एवं ग्रामीण उन्मुख वाणिज्यिक बैंकों के रूप में की गई।
वर्ष 1979-80 में भुगतान संतुलन की स्थिति में व्यापक बदलाव देखने को मिला। महंगाई दर कुछ ही समय में 3 प्रतिशत से छलांग लगाकर 22 प्रतिशत के अप्रत्याशित उच्च स्तर पर पहुंच गई। यही नहीं, विदेश में निर्यात-आयात मूल्यों की स्थिति भी काफी बिगड़ गई। इस बीच, भारत ने आईएमएफ से 5 अरब एसडीआर का ऋण देने अनुरोध किया। हालांकि, आईएमएफ की ऋण संबंधी शर्तें काफी कठोर थीं। आईएमएफ के ऋण कार्यक्रम के तहत चालू खाता घाटे में जीडीपी का 2 प्रतिशत और विदेशी वाणिज्यिक ऋणों की सीमा कम करने पर विशेष जोर दिया गया। इस ऋण कार्यक्रम की अवधि (नवंबर 1981 से लेकर फरवरी 1983 तक) के दौरान आरबीआई ने अनेक मुद्राओं के सापेक्ष रुपये के क्रमिक अवमूल्यन की नीति अपनाई। भारत ने अपनी सहमति के अनुरूप ही इस संदर्भ में प्रदर्शन संबंधी सभी मानदंडों को अच्छी तरह से पूरा किया और प्रत्येक धन निकासी समय पर ही की। 3 साल बाद भारत ने 5 अरबएसडीआर में से 3.9 अरब एसडीआर की निकासी की। इसके पश्चात 1.1 अरब एसडीआर की निकासी ही शेष रह गई थी। भारत एक बार फिर वर्ष 1990 तक गंभीर आर्थिक संकट के कगार पर पहुंच गया था। 27 अगस्त, 1991 कोवित्त मंत्री ने आईएमएफ के प्रबंध निदेशक को 1656 मिलियन एसडीआर की राशि के बराबर 18 महीने की आपातकालीन या तात्कालिक व्यवस्था करने के लिए एक पत्र लिखा। इसके साथ ही आर्थिक नीतियों पर एक नोट भी पेश किया गया जिसमें वर्ष 1991-92 और वर्ष 1992-93 के दौरान भारत सरकार द्वारा उठाए जाने वाले आर्थिक कदमों का उल्लेख था। इतना ही नहीं, सरकार ने एक व्यापक संरचनात्मक समायोजन कार्यक्रम को अपनाने की अपनी इच्छा भी जता दी जिसे विस्तारित कोष सुविधा के तहत की गई विशेष व्यवस्था के अंतर्गत आवश्यक संबल या समर्थन प्राप्त था।
नवंबर 1997 में आरबीआई को एशियाई मुद्रा संकट से निपटने की कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा। इसे ध्यान में रखते हुए आरबीआई ने उत्पादक क्षेत्रों में ऋण की उपलब्धता को प्रभावित किए बिना ही बैंकिंग प्रणाली में मौजूद अधिशेष या अतिरिक्त तरलता को अवशोषित करने के लिए अनेक कदम उठाए। उधर, वर्ष 2001 तक आरबीआई मुद्रा बाजार का नियामक बन गया। सरकार द्वारा बाजार से ली गई उधारियों की बदौलत बजट घाटे के स्वत: मुद्रीकरण को चरणबद्ध ढंग से समाप्त कर दिया गया। रुपये को चालू खाते में पूरी तरह से परिवर्तनीय कर दिया गया। वर्ष 2000 से लेकर वर्ष 2008 तक की अवधि के दौरान आरबीआई ने बैंकिंग पर्यवेक्षण का काम सफलतापूर्वक संभाला। आरबीआई ने वित्तीय क्षेत्र पर करीबी नजर रखने के लिए एक आधुनिक भुगतान एवं निपटान प्रणाली को अपनाया। गलतियां करने वाले बैंकों के खिलाफ कठोर दंडात्मक कार्रवाई की गई। आरबीआई ने कमजोर बैलेंस शीट वाले बैंकों का विलय मजबूत बैंकों में करने पर जोर दिया, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि निजी क्षेत्र का कोई भी ऐसा बैंक न हो, जो आरबीआई की पूंजी पर्याप्तता आवश्यकताओं को पूरा न करता हो। वर्ष 1935 से ही भारतीय रिजर्व बैंक सार्वजनिक नीति और आर्थिक चिंतन के मामले में सबसे आगे रहा है। यह भारतीय लोकतंत्र के सबसे मजबूत संस्थानों में शुमार किए जाने वाले एक सुदृढ़ संस्थान का प्रतिनिधित्व करता है।
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