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धर्म, जाति, नस्ल और भाषा के आधार पर बढ़ता वैमनस्य

 

उषा रावत

देहरादून  में त्रिपुरा के छात्र की हत्या एक साधारण कानून व्यवस्था की समस्या नहीं  है। समाज में धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा के नाम पर फैलाई जा रही वैमनष्यता का ही यह एक दुष्परिणाम है। यह इस महीने की तीसरी घटना है। साल एक शर्मनाक और डरावने नोट पर खत्म हो रहा है, क्योंकि “दूसरा-पन” (othering) का चलन धीरे-धीरे सामान्य होता जा रहा है। हालात  यहाँ तक पहुंच गये कि  विपरीत विचारों वालों के साथ जघन्य अपराधों को भी अपराध नहीं  माना जा रहा।

क्या युवा और कामकाजी लोग अपने ही देश में सुरक्षित और निडर होकर सफर नहीं कर सकते? त्रिपुरा का 24 वर्षीय युवक, जो देहरादून में एक साल से एमबीए कर रहा था, कुछ उत्तराखंडियों द्वारा चाकू से घायल कर दिया गया। उसपर नस्लीय टिप्पणियाँ की गईं, और वह नफरत-जनित अपराध में गंभीर रूप से घायल हुआ। इसी तरह दो प्रवासी मजदूर—ओडिशा का 19-20 वर्षीय बंगाली युवक और केरल में काम करने वाला 31 वर्षीय छत्तीसगढ़ी मजदूर—को ‘बांग्लादेशी’ कहकर पीटा गया। यह आरोप देशभर में काम कर रहे प्रवासी मजदूरों की सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा है।
अफ्रीकी मूल के छात्रों और पूर्वोत्तर भारत के लोगों के साथ दिल्ली से लेकर उत्तर भारत के कई हिस्सों में दशकों से नस्लीय भेदभाव होता आया है। किसी भी सरकार ने इसे न तो आधिकारिक रूप से नस्लवाद माना, न ही नफरत-जनित अपराध। पुलिस अक्सर ऐसी घटनाओं को साधारण “इक्का-दुक्का घटनाएँ” कहकर टाल देती है, जबकि वे ऐसा नहीं हैं। जब इन घटनाओं को नजरअंदाज किया जाता है, तो यह और ज्यादा हिंसक रूप में सामने आता है।
भारतीय छात्र भी विदेशों में नस्लवाद के शिकार होते रहे हैं, खासकर ट्रंप के दौर के अमेरिका में। वहां ऊँची जाति-वर्ग के भारतीय यह देखकर चौंक जाते हैं कि उन्हें “रंग-भेद” की उसी श्रेणी में रखा जाता है जिसको लेकर वे खुद कई बार दूसरों को नीचा देखते हैं। अब वे भी “दूसरा-पन” (othering) का शिकार हो रहे हैं।
फिर भी हम अपने देश में मौजूद नस्लभेदी रवैये को अनदेखा कर देते हैं। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत को 2030 तक 1 लाख अंतरराष्ट्रीय छात्रों की मेजबानी करनी होगी, लेकिन यह तभी संभव है जब नस्ल और रंग-भेद से जुड़ी उनकी सुरक्षा पूरी तरह सुनिश्चित हो सके।
भारत के पूर्वोत्तर के लिए भी “mainland India” द्वारा किया गया “दूसरा-पन” एक पुराना दर्द है, जो समय-समय पर राजनीतिक प्रभाव भी डालता है। सोशल मीडिया पर नफरत, फर्जी जानकारी और प्रोपेगेंडा ने इस “दूसरेपन” को तेजी से बढ़ाया है—और यह न केवल नफरत फैलाता है बल्कि जमीन पर हिंसा में भी बदल रहा है।

दोषियों को अक्सर कोई सजा नहीं मिलती, और प्रशासन की प्रतिक्रिया देर से होती है। पहले भी “किडनैपर गैंग” जैसी अफवाहों के कारण निर्दोष पर्यटकों तक को भीड़ ने पीटा था, लेकिन पुलिस ने तब कड़ी कार्रवाई कर अफवाहों को रोका था। आज, चुनावी रूप से संवेदनशील राज्यों—पश्चिम बंगाल, असम और केरल—में “घुसपैठिया” जैसे शब्दों के इस्तेमाल से माहौल और ज्यादा विषैला हो रहा है। “दूसरेपन” का जहर प्रणालीगत (systemic) है। यदि सरकारें इसे रोकना नहीं चाहतीं, तो अंततः उन्हें लोगों को एक-दूसरे से बचाने की नौबत आ जाएगी।

भारत में बढ़ती लिंचिंग घटनाएँ यह संकेत देती हैं कि समाज में “दूसरा-पन” या ओदेरिंग की मानसिकता तेजी से गहरी होती जा रही है। यह स्थिति तब और खतरनाक हो जाती है जब किसी व्यक्ति की भाषा, बोली, पहनावे या क्षेत्रीय पहचान को आधार बनाकर उसे बाहरी घोषित कर दिया जाता है। पूर्वोत्तर के लोग, प्रवासी मजदूर, अफ्रीकी मूल के छात्र और अलग दिखने-बोलने वाले भारतीय इस प्रवृत्ति के आसान निशाने बन रहे हैं। सोशल मीडिया पर फैलती अफवाहें और नफरत भरा प्रचार इस जहर को और गाढ़ा कर रहे हैं, क्योंकि बिना जांच-परख के लोग भावनाओं में बहकर हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। समस्या यह भी है कि कई मामलों में कानून-व्यवस्था की प्रतिक्रिया देर से और कमजोर होती है, जिससे अपराधियों के हौसले बढ़ते हैं। विडंबना यह है कि जिन भारतीयों को विदेशों में नस्लवाद का दर्द झेलना पड़ता है, वही अपने देश में दूसरों के प्रति भेदभावपूर्ण रवैया अपना लेते हैं। यह दोहरा मानदंड सामाजिक ताने-बाने के लिए बेहद हानिकारक है। यदि सरकार, समाज और मीडिया इस पर गंभीरता से नियंत्रण नहीं करते, तो देश के भीतर विश्वास का संकट गहराता जाएगा और प्रवासी-मजदूरों व छात्रों की सुरक्षा लगातार जोखिम में रहेगी। ओदेरिंग केवल सामाजिक नहीं बल्कि राजनीतिक और नैतिक चुनौती भी है, जिसे एकजुट प्रयासों से ही रोका जा सकता है।

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