खिसक रही है पहाड़ियों के पांव तले जमीन, संस्कृति भी संकट में

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  • भूकानून से हुयी छेड़छाड़ से ध्यान हटाने का प्रयास
  • पहला अध्यादेश जनभावनाओं के अनुकूल था
  • विजय बहुगुणा कमेटी ने करवाया था कानून में सबसे बड़ा छेद
  • थम नहीं रही नेताओं की जमीन की हवश
  • पहाड़ियों की जमीनों पर नेताओं की गिद्धदृष्टि
  • उद्योग तो आये नहीं मगर लोगों की जमीनें अवश्य चली गयीं
  • जमीनें हड़पवाने के लिये ही हुआ नगर निकायों का विस्तार

जयसिंह रावत

जमीन कोई मिट्टी का टीला नहीं बल्कि इस धरती पर पानी की ही तरह जीवन का अत्यन्त महत्वपूर्ण आधार है। बिना जमीन के मानव जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इस धरती पर जितनी भी मानव सभ्यताएं पनपी हैं उनके उदय और अस्त के पीछे इन दो ही संसाधनों की उपलब्धता कारण रही है। इस जमीन के लिये ही महाभारत जैसे महायुद्ध हुये हैं  और आज भी यही जमीन हमारे समाज और उससे भी बाहर विभिन्न देशों के बीच झगड़े का कारण है। वनों में विचरण करने वाले मानव समूहों में जिनके पास जमीन नहीं रही वे जमींदारों के गुलाम जैसे ही रहे। उनकी पीढ़ियां आज भी पिछड़ी हुयी हैं। इसीलिये जब नब्बे के दशक में उत्तराखण्ड आन्दोलन छिड़ा था तो पहाड़वासियों ने अपनी संस्कृति के संरक्षण के लिये उत्तराखण्ड राज्य की मांग के साथ ही नये राज्य को संविधान की धारा 371 के तहत संरक्षण देने की मांग उठी थी ताकि कोई बाहरी धन्ना सेठ या जमीनों का सौदागर भोले-भाले पहाड़वासियों की जमीनें हड़प कर उन्हें भूमिहीन न कर दे और पहाड़ की जनसंाख्यकी न बदल डाले। लेकिन लोेगों को क्या पता था कि एक दिन इस हिमालयी राज्य के ही रहनुमा भूमि सौदागरों के हाथों में खेलने लगेंगे और पहाड़ियों की बेशकीमती जमीनों को दलालों के सुपुर्द कर देंगे।

भूकानून से हुयी छेड़छाड़ से ध्यान हटाने का प्रयास

उत्तराखण्ड का एक बुद्धिजीवी वर्ग अगामी विधानसभा चुनाव से पहले भूकानून को एक राजनीतिक मुद्दा बनाने का प्रयास कर रहा है। इस मुद्दे के पीछे निश्चित रूप से काफी आवाजें भी उठ रही हैं, भले ही राजनीति के मठाधीशों द्वारा मुद्दे को भटकाने के लिये जमीन के मुद्दे को साम्प्रदायिक रंग देने का प्रयास भी किया जा रहा है ताकि कोई उनसे न पूछे कि आखिर आपने पहाड़ के लोगों की जमीनें लुटवाने के लिये प्रपंच क्यों रचे और किस नेता ने कहां-कहां गरीबों की कितनी जमीनें खरीदीं या हड़प लीं? अगर सचमुच हिमाचल प्रदेश के काश्तकारी और भूमि सुधार अधिनियम 1972 की धारा 118 की जैसी अक्षरशः व्यवस्था उत्तराखण्ड में होती तो स्वाभाविक ही था कि राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में जमीनों की खरीद फरोख्त पर रोक के कारण पहाड़ की जनसांख्यकी नहीं बदलती और पहाड़ की संस्कृति संरक्षित रहती। अब एक ओर तो राजनीतिक शासकों ने जमीनों की खरीद फरोख्त पर बंदिशें ढीली कर दीं और अब हल्ला कर रहे हैं कि पहाड़ में एक धर्म विशेष के लोग जमीनें खरीद रहे हैं। एक तो चोरी और ऊपर से न केवल सीनाजोरी बल्कि पहाड़ के लोगों से ठगी भी। उत्तराखण्ड के लोगों को इस ठगी को समझ लेना चाहिये, क्योंकि ये लोग अपने तुच्छ राजनीतिक स्वार्थ के लिये पहाड़ के लोगों की आने वाली पीढ़ियों के हितों के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। ये राजनीतिक खिलाड़ी उत्तराखण्ड की जनता के लिये नहीं बल्कि अपनी पार्टियों के लिये बफादार हैं ताकि इनको सत्ता का सुख भोगने को और इनकी पीढ़ियों को बैभव का सुख भोगने को मिले।

पहला अध्यादेश जनभावनाओं के अनुकूल था

दरअसल उत्तराखण्ड में जब नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व में पहली निर्वाचित सरकार का गठन हुआ तो उस पर उत्तराखण्ड आन्दोलन की मूल भावना का दबाव था। इसीलिये राज्य का नाम उत्तरांचल से उत्तराखण्ड भी हुआ। इसी दबाव में तिवारी जी ने उत्तरांचल (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950) (संशोधन) अध्यादेश, 2003 जारी कराया। यह 2003 का अध्यादेश संख्या 6 था। इसमें मूल अधिनियम में धारा 3 (क) जोड़ी गयी। इसी प्रकार मूल अधिनियम की धारा 143(2), 143 (3) में संशोधन के साथ ही 154 में धारा (ख) जोड़ी गयी। यह संशोधन सबसे अधिक महत्वपूर्ण था क्योंकि इसमें कहा गया था कि ‘‘कोई भूमि (दीवानी न्यायालय की डिक्री अथवा भू-राजस्व के बकाये के रूप में वसूली के लिये हस्तांतरण सहित) विक्रय, उपहार, वसीहत, पट्टा कब्जे सहित बंधक अथवा अभिघृति अथवा अन्य प्रकार से अकृषक व्यक्ति को भूमि का हस्तान्तरण वैध नहीं होगा। यह अध्यादेश सम्पूर्ण उत्तरांचल के लिये था और इसमें कहीं नहीं लिखा था कि यह बंदिश नगरीय क्षेत्र में लागू नहीं होगी।

विजय बहुगुणा कमेटी ने करवाया था कानून में सबसे बड़ा छेद

तिवारी सरकार द्वारा लाया गया यह अध्यादेश आना ही था कि उत्तराखण्ड (उस समय उत्तरांचल) में बबाल मच गया। बबाल भी स्वाभाविक ही था, क्योंकि राज्य में सबसे कमाऊ व्यवसाय भूमि की खरीद फरोख्त का था जो कि अब भी है। बबाल होने पर तिवारी जी को अध्यादेश पर पुनर्विचार के लिये सन् 2003 में विजय बहुगुणा की अध्यक्षता में समिति का गठन करना पड़ा।चूंकि विजय बहुगुणा का पहाड़ से कोई लेना देना नहीं था। इसलिये उनके संयोजकत्व में नये भूमि कानून के मसौदे में ऐसे प्रावधान किये गये जिनसे भूमि व्यवसायियों तथा बाहरी लोगों को कोई आपत्ति नहीं हुयी। इस समिति की सिफारिश पर कुछ भूव्यवसाय फ्रेंडली प्रावधानों के साथ ही उत्तरांचल (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950) अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001(संशोधन) विधेयक 2003 में धारा 2 भी जोड़ी गयी जिसमें कहा गया कि ‘‘उन क्षेत्रों के अतिरिक्त, जो किसी नगर निगम, नगर पंचायत, नगर परिषद और छावनी परिषद क्षेत्रों की सीमा के अन्तर्गत आते हैं और समय-समय पर सम्मिलित किये जा सकते हैं, यह कानून सम्पूर्ण उत्तरांचल में लागू होगा।

देखा जाय तो उत्तराखण्डवासियों की जमीनें बचाने के लिये बने कानून में सबसे बड़ा छेद विजय बहुगुणा कमेटी ने ही करा दिया था। फिर भी संशोधित अधिनियम की धारा 154(4) में उपधारा(1) जोड़ कर प्रावधान किया गया कि ’’इसमें अन्य प्रतिबंधों के अधीन रहते हुये कोई भी व्यक्ति अपने परिवार की ओर से भले ही वह धारा 129 के अधीन राज्य में भूमि का खातेदार न हो, बिना किसी अनुमति के एक बार 500 वर्ग मीटर भूमि खरीद सकता है। मगर फिर भी वह भविष्य में राज्य का भूमिधर नहीं माना जायेगा। वह केवल एक ही बार आवासीय प्रयोजन के लिये इतनी जमीन खरीद सकता था। वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में भुवन चन्द्र खण्डूड़ी के नेतृत्व में सरकार बनी जिसने जमीन खरीदने की सीमा 500 वर्ग मीटर से घटा कर 250 वर्ग मीटर तो कर दी मगर अधिनियम की धारा 2 नहीं हटाई जिसमें नगरीय क्षेत्र में जमीनें खरीदने की खुली छूट थी। जबकि नगरीय क्षेत्रों की जमीनें प्राइम लैंण्ड मानी जाती हैं और उन्हीं की खरीद फरोख्त भी होती है।

जमीनें हड़पवाने के लिये ही हुआ नगर निकायों का विस्तार

उत्तराखण्ड में सन् 2017 में जब सत्ता बदली तो त्रिवेन्द्र सिंह रावत के नेतृत्व में गठित नयी सरकार के निशाने पर सबसे पहले उत्तराखण्ड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश और भूमि व्यवस्था अधिनियम,1950) ही आया। इस सरकार ने सत्ता में आते ही तिवारी और फिर खण्डूड़ी सरकार के भूमि कानून की धारा 2 की कमियों का लाभ भूमि व्यवसायियों को देने के लिये प्रदेश के 13 में से 12 जिलों के 385 गावों को नगर निकायों में शामिल कर 50,104 हेक्टेअर जमीन में खरीद फरोख्त के लिये रास्ता खोल दिया। इस मुहिम के तहत गढ़वाल मण्डल में देहरादून जिले में सर्वाधिक 85 ग्रामों के 20221.294 हैक्टेयर ग्रामीण क्षेत्र को नगर निगम के अतिरिक्त हरबर्टपुर, विकास नगर, ऋषिकेश, डोईवाला शामिल किया गया है। पौड़ी गढ़वाल जिले के 80 ग्रामों के 4631.236 हैक्टेयर ग्रामीण क्षेत्र को श्रीनगर तथा कोटद्वार शहरी निकायों में शामिल किया गया है। उत्तरकाशी जिले के 35 ग्रामों के 2067.411 हैक्टेयर ग्रामीण क्षेत्र को बड़कोट तथा बाराहाट में शामिल किया गया है। इसके अतिरिक्त चमोली जिले के 7 ग्रामों के 607.988 हैक्टेयर ग्रामीण क्षेत्र को औली, कर्णप्रयाग, नन्दप्रयाग निकायों में शामिल किया गया है। नैनीताल जिले के 52 ग्रामों के 4576.753 हैक्टेयर ग्रामीण क्षेत्र को हल्द्वानी, भवाली, भीमताल नगर निकाय में शामिल किया गया है। बागेश्वर जिले के 20 ग्रामांे के 732.308 हैक्टेयर ग्रामीण क्षेत्र को बागेश्वर नगर पालिका मेें शामिल किया गया है। चम्पावत जिले के 4 ग्रामों के 67.913 हैक्टेयर क्षेत्र को टनकपुर नगर पालिका क्षेत्र में शामिल  किया गया है। पिथौरागढ़ जिले के 11 ग्रामों के 772.492 हैक्टेयर क्षेत्र को पिथौरागढ़ व डीडीहाट नगर निकाय में शामिल  किया गया है। जिन गावों को बिना नागरिक सुविधाओं के नगर निकायों में शामिल किया गया उनमें ही जमीनों की सर्वाधिक खरीद फरोख्त होती है। सूर्यधार झील इसी मुहिम की पैदायिश मानी जाती है।

उद्योग तो आये नहीं मगर लोगों की जमीनें अवश्य चली गयीं

बात यहीं तक रुकने वाली नहीं थी। सन् 2018 में देहरादून में इन्वेस्टर्स समिट कराया गया। जिसमें 1.24 लाख करोड़ के निवेश के एमओयू कराये गये। इन समझौतों के आधार पर कोई निवेश तो आया नहीं मगर किसानों की जमीनें अवश्य चली गयीं। प्रोपर्टी डीलर फ्रेंडली त्रिवेन्द्र सरकार ने पहाड़वासियों की जमीनें हड़पवाने के लिये उत्तराखण्ड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) (अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001) (संशोधन) अधिनियम 2018 विधयेक पारित करा कर अधिनियम की धारा 154 पर और मोटा छेद कर जमीनों की खरीद की सीमा हटा दी। इसी तरह धरा 143 में संशोधन कर औद्योगिक प्रयोजन के नाम से खरीदी गयी जमीन का भूमि उपयोग परिवर्तन बहुत ही आसान कर दिया। जबकि मूल अधिनियम में उद्योगों के लिये पहले ही छूट का प्रावधान था। इसी का लाभ उठाते हुये भूसौदागरों ने स्थानीय निवासियों से टिहरी बांध के चारों ओर की जमीनें खरीद लीं। पहले हजारों परिवार बांध के लिये अपनी जमीन जायदाद से बेदखल हुये और अब बांध बनने के बाद बाकी जमीनों से लोग बेदखल हो रहे हैं। लगभग 1300 किमी के लम्बे चारधाम यात्रा मार्ग की भी यही स्थिति है। अब उत्तराखण्ड अकेला हिमालयी राज्य हो गया जहां के मूल निवासियों की जमीनें कोई भी खरीद कर उन्हें उनकी ही जमीन पर मजदूरी करने के लिये विवश कर देगा।

पहाड़ियों की जमीनों पर नेताओं की गिद्धदृष्टि

पहाड़ियों की जमीनों पर नेताओं की गिद्धदृष्टि यहीं नहीं थमी। सन् 2012 में कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में जब गैरसैण में कैबिनट बैठक हुयी थी तो जमीनखोरों की गिद्धदृष्टि को भांप कर तत्कालीन सरकार ने गैरसैण तहसील में जमीनों की खरीद पर रोक लगा दी थी। त्रिवेन्द्र सरकार ने 11 जुलाइ 2019 को गैरसैण क्षेत्र में भूमि की बिक्री पर लगे प्रतिबंध को हटा दिया। भराड़ीसैण में आयोजित विधानसभा के 2020 के सत्र में तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत ने गैरसैण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करने के साथ ही 15 अगस्त 2020 को भराड़ीसैण में आयोजित स्वतंत्रता दिवस समारोह में स्वयं को गैरसैण का भूमिधर भी घोषित कर दिया। अगले दिन 16 अगस्त को उनके नाम भराड़ीसैण के निकट हेलीपैड के निकट की जमनसिंह पुत्र पदमसिंह की भण्डार तोक में खसरा नम्बर 43 से लेकर 49 तक की 13.5 नाली जमीन में से 6 नाली और 9 मुðी जमीन की रजिस्ट्री उनके नाम हो गयी। जमनसिंह की शेष 6 नाली 8 मुðी जमीन उनके मंत्रिमण्डलीय सहयोगी धनसिंह रावत के नाम चढ़ गयी। त्रिवेन्द्र सरकार ने यह कार्य बहुत नियोजित ढंग से कर डाला। बाकी नेताओं के लिये वहां जमीनों की तलाश और खरीद फरोख्त जारी है। इस तरह देखा जाय तो उत्तराखण्ड वासियों की जमीनों पर सबसे अधिक जमीनखोर नेताओं की ओर से खतरा मंडरा रहा है।

थम नहीं रही नेताओं की जमीन की हवश

अगर कोई व्यक्ति अपनी जमीन बेचता है तो समझिये कि वह अपनी आने वाली पीढ़ियों का भी हिस्सा बेच रहा है और उन्हें भूमिहीन बना रहा है। राज्य गठन के 21 सालों में आम आदमी की हालत में भले ही ज्यादा सुधार न हुआ हो लेकिन राजनीति व्यवसाय से जुड़े लोगों की दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि हो रही है। उत्तराखण्ड के कई नेता अपनी पीढ़ियों के लिये जमीनें हड़प कर आम आदमी की आने वाली पीढ़ियों को भूमिहीन बना रहे हैं। उदाहरणार्थ एक नेता की पत्नी के नाम पहले से ही 6 प्लाट 2017 तक थे, फिर भी उसकी हवश बढ़ती जा रही है और वह जहां तहां जमीनें खरीदते जा रहा है। कुछ नेता बिना पैसे दिये लोगों की जमीनें हउ़प् रहे हैं।

ध्यान हटाने के लिये अब भूमि जिहाद का हव्वा खड़ा

चिन्ता का विषय तो यह है कि लूले लंगड़े भूकानून के भी हाथ पांव तोड़ने की गैर जिम्मेदाराना हरकत से ध्यान हटाने के लिये अब उत्तराखण्ड में ’’भूमि जिहाद’’ का विवाद खड़ा कर जनता को धर्म के नाम पर गुमराह किया जा रहा है। यह प्रचार इसलिये किया जा रहा है ताकि कोई ये न पूछे कि आपने भूमि कानून को अपंग क्यों बनाया ? अगर भूमि कानून के साथ छेड़छाड़ नहीं होती तो पहाड़ में कोई भी अकृषक जमीन नहीं खरीद सकता था, चाहे वह किसी भी धर्म का हो। हिमालयी राज्यों में उत्तराखण्ड अकेला है जहां जमीनों की खरीद फरोख्त की खुली छूट है। उत्तर पूर्व के राज्य संविधान के अनुच्छेद 6 के तहत संरक्षित हैं और हिमाचल प्रदेश में 1972 में टेनेंसी एण्ड लैण्ड रिफार्म एक्ट 1972 की धारा 118 है जबकि जम्मू-कश्मीर धरा 370 के तहत संरक्षित रहा। यह धारा हटने के बाद भी कोई वहां जमीन खरीदने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। उत्तराखण्ड की तराई में पहले बाहरी लोगों ने थारू-बुक्सा की जमीनें हड़प लीं। जौनसार बावर में भी साजिशें चल रही हैं।

जयसिंह रावत

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One thought on “खिसक रही है पहाड़ियों के पांव तले जमीन, संस्कृति भी संकट में

  • October 31, 2021 at 10:33 am
    Permalink

    इन नेताओं की इन जमीनों में हिस्सेदारी है जमीनों को दूसरे नामो से खरीदा जा रहा है और असली मालिक नेता है अगर गंभी रता से आयकर वालो की जांच हों जाय तो असलियत सामने आ जायेगी

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