उत्तराखंड: आपदाओं के साये में जीवन, कब जागेगा तंत्र?

-प्रकाश कपरुवाण, ज्योतिर्मठ-
उत्तराखंड विगत 5 अगस्त से आपदा के आगोश में है। एक स्थान पर राहत और बचाव कार्य पूरे होते ही दूसरी जगह आपदा नया कहर बरपा देती है, कई जिंदगियों को लीलकर गहरे जख्म दे जाती है। ऐसा लगता है कि हर मानसून इस पर्वतीय प्रदेश में नई तबाही लेकर आता है और जाते-जाते भी ऐसे मंजर दिखा जाता है जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता। प्रश्न यह उठता है कि आखिर यह सब इतनी तेजी से कैसे हो रहा है? क्या इतनी तबाही के बाद इस पर गंभीर चिंतन होगा? यही यक्ष प्रश्न आज शहर से लेकर गाँव तक हर उत्तराखंडी के दिल-दिमाग में गूंज रहा है।
बादल फटने की घटनाएं पहले भी होती रही हैं, लेकिन पिछले 25 वर्षों में इनकी बढ़ती आवृत्ति किस विनाश की ओर इशारा कर रही है, यह समय रहते समझना जरूरी है। आपदा के बाद ताबड़तोड़ आदेश, सुरक्षात्मक उपाय और वैज्ञानिक सर्वे तो किए जाते हैं, लेकिन राहत व बचाव कार्यों के साथ ही ये आदेश और प्रयास भी थमते नजर आते हैं।
गाड़-गधेरों, नदी-नालों और सड़कों के आसपास बेतरतीब निर्माण आपदा के बाद जनहानि का बड़ा कारण बन रहा है। यदि ऐसा है तो इसका गहन अध्ययन कर इस तरह के अनियंत्रित निर्माण पर प्रभावी रोक लगनी चाहिए। अक्सर आपदा प्रभावित क्षेत्रों के सर्वेक्षण में या गांव के बुजुर्गों की जुबानी यह तथ्य सामने आता है कि जहां घटना हुई वहां पहले भी बादल फटने की घटनाएं हो चुकी थीं। बावजूद इसके लोग रेत और मलबे के टीले पर घर और होटल बना लेते हैं। हिमालयी राज्य उत्तराखंड में इन पहलुओं का न केवल गंभीर अध्ययन होना चाहिए बल्कि निरंतर निगरानी भी जरूरी है।
कई गांवों के लोग सुविधाजनक जीवन की चाह में अपने पुश्तैनी गांव छोड़कर गाड़-गधेरों और सड़कों के नजदीक आकर बस गए हैं। ऐसे इलाकों में धराली और थराली जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति से इंकार नहीं किया जा सकता। इसलिए राज्य में इस प्रकार की नई बसावटों का व्यापक सर्वेक्षण कर उन्हें चिन्हित करना आवश्यक है, ताकि समय रहते सुरक्षात्मक कदम उठाए जा सकें। अन्यथा नदी-नालों के किनारे बादल फटने की घटनाएं दोहराती रहेंगी, निर्दोष जानें जाती रहेंगी और परिवार अपने बिछड़ने का दर्द झेलते हुए भाग्य को कोसते रह जाएंगे।
केवल 44 दिनों में, यानी 5 अगस्त से 18 सितंबर के बीच, उत्तरकाशी, चमोली, पौड़ी, रुद्रप्रयाग और बागेश्वर जिलों में 32 लोगों की मौत हुई है और 85 से अधिक लोग लापता हुए हैं। इसके अलावा घर, दुकानें, होटल, गौशालाएं और वाहन भी मलबे में दफन हो गए। सवाल यह है कि इतनी बड़ी तबाही के बावजूद क्या नीति-नियंता अब भी ठोस कदम उठाने की दिशा में आगे बढ़ेंगे?
अनियंत्रित विकास की होड़, भारवहन क्षमता का आंकलन किए बिना धड़ल्ले से हो रहे निर्माण, जंगलों का अंधाधुंध कटान, ऑल वेदर रोड के बाद चारधाम मार्ग पर भूस्खलन की बढ़ती घटनाएं, हाइड्रो व अन्य परियोजनाओं में विस्फोटों का बेलगाम इस्तेमाल—यह सब उत्तराखंड को धीरे-धीरे विनाश की ओर धकेल रहा है।
वैज्ञानिकों की सर्वे रिपोर्ट और सुझावों की अनदेखी का सबसे बड़ा उदाहरण जोशीमठ है। देश की आठ नामचीन वैज्ञानिक संस्थाओं ने वहां ढाई वर्ष पहले रिपोर्ट दी थी, लेकिन न तो भारवहन क्षमता घटाने के लिए कोई कदम उठाया गया और न ही अब तक कोई ठोस सुरक्षात्मक कार्य धरातल पर उतारा जा सका है।
अब देखना यह है कि इस मानसून की भीषण आपदाओं के बाद क्या राज्य के नीति-नियंता लोगों की जान-माल की सुरक्षा के लिए कोई प्रभावी कदम उठाएंगे या फिर यह विषय अगले मानसून तक यूं ही टलता रहेगा। आपदाग्रस्त राज्य उत्तराखंड की नजरें अब इन्हीं सवालों के जवाब पर टिकी हैं।
