ब्लॉगराष्ट्रीय

मोदी सरकार की अगली सर्जिकल स्ट्राइक जनसंख्या विस्फोट पर.. ? ?

 

  जयसिंह रावत

लाल किले की प्राचीर से 15 अगस्त 2020 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का छोटे परिवार वाले दम्पतियों को देशभक्त बताना जो था कि देशभर में भाजपाइयों की बांछें खिल गयीं। यद्यपि प्रधानमंत्री का कहना था कि जनसंख्या विस्फोट से राष्ट्र का विकास अवरुद्ध हो रहा है और जो लोग जनसंख्या नियंत्रण में सहयोग कर रहे हैं वे एक तरह से राष्ट्र की सेवा ही कर रहे हैं। लेकिन उन्होंने जो संदेश देना था वह परोक्ष रूप से दे दिया कि तीन तलाक, धारा 370 और राम मंदिर की तरह भाजपा का जनसंख्या नियंत्रण वाला ऐजेण्डा भी वह भूले नहीं हैं। इसके बाद देशभर में भाजपा शासित राज्यों में जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने की तैयारियां शुरू हो गयी। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने तो 11 जुलाइ 2021 को जनसंख्या दिवस पर अपनी जनसंख्या नीति जारी करने के साथ ही राज्य के प्रस्तावित जनसंख्या नियंत्रण कानून का मजमून भी जारी कर दिया। उत्तराखण्ड जैसे कई राज्य अब उत्तर प्रदेश का अनुसरण करने जा रहे हैं। देखा जाय तोएक समुदाय विशेष के प्रति ईष्या पैदा कर उस ईष्या को वोटों के तौर पर कैश करना भी एक राजनीतिक ऐजेण्डा ही है। इसी छिपे हुये एजेएडे के तहत ही  भाजपा के विचार पुरुष राकेश सिन्हा राज्यसभा में ऐसा बिल 2019 में ही पेश कर चुके हैं, जिस पर भाजपा के 125 सांसदों के हस्ताक्षर हैं। इसलिये मान लेना चाहिये कि अगली सर्जिकल स्ट्राइक जनसंख्या वाली ही होगी जिसका लक्ष्य जनसंख्या से अधिक जनसांख्यिकी (demography) संतुलन होगा।

धरती की धारक क्षमता पर जनसंख्या का भारी बोझ

जनसंख्या का विस्फोट केवल भारत के लिये ही नहीं बल्कि विश्व बिरादरी के लिये भी चिन्ता का विषय है।  वर्ष 1800 को पूरे विश्व की जनसंख्या लगभग एक अरब थी, जो 2017 तक बढ़ कर 7.6 अरब हो गई है। वर्तमान में विश्व जनसंख्या 1.07 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। वैज्ञानिकों के अनुसार इस पृथ्वी की मनुष्यों को वहन करने की या धारक क्षमता 9 से 10 अरब के बीच ही है। अगर जनसंख्या स्थिर नहीं की गयी तो पृथ्वी की धारक क्षमता या कैरीयिंग कैपैसिटी समाप्त हो जायेगी और ये धरती, धरती नहीं बल्कि नर्क बन जायेगी। जनसंख्या का सीधा दबाव प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ता है। जीवित रहने के लिये भोजन के साथ ही शुद्ध हवा और पानी की भी जरूरत होती है और ये प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं। इन संसाधनों पर जितना दबाव पड़ेगा जीवन उतना ही असहज होता जायेगा। पौधे या वनस्पति और जन्तु हमारे भोजन के मुख्य श्रोत होते हैं। अधिकांश भोज्य पदार्थ हमें कृषि तथा पशुपालन से प्राप्त होता है। मनुष्य ही नहीं सभी जीव जन्तुओं को भोजन की आवश्यकता होती है और भोजन से हमें प्रोटीन, कर्बोहाईड्रेट, बसा, विटामिन तथा खनिज लवण प्राप्त होते हैं। विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी की मदद से धरती की अधिकतम् अन्न एवं अन्य खाद्य पदार्थ उत्पादन क्षमता का दोहन चल रहा है। यद्यपि धरती पर पानी की कमी नहीं है मगर शुद्ध पेयजल सीमित है। पानी का भी समान वितरण नहीं है। कहीं सूखी मरुभूमि है तो कहीं चेरापूंजी जैसे वर्षा के रिकार्ड वाले क्षेत्र भी हैं। जनसंख्या दबाव के चलते पानी की गुणवत्ता या शुद्धता घटती जा रही है। वहीं हाल हवा का भी है। जनसंख्या विस्फोट के चलते नौबत नाक में मास्क लगाने तक की आ रही है। ग्रीन हाउस गैसों से ओजोन परत पर छेद होते जा रहे हैं जिससे धरती का तापमान बढ़ते जाने के साथ ही खतरनाक किरणें धरती पर पहुंच रही हैं। जलवायु परिवर्तन से नयी मुसीबतें खड़ी हो रही हैं।

लाखों प्रजातियों का हिस्सा हड़प रहा है आदमी

जनसंख्या पर नियंत्रण रखना केवल मानव समाज की बेहतरी या उसके अस्तित्व के लिये ही जरूरी नहीं बल्कि इस धरती के प्राकृतिक सन्तुलन के लिये भी जरूरी है। धरती पर जीव-जन्तुओं और पादपों की प्रजातियों की कुल संख्या पर वैज्ञानिक एकमत नहीं हैं। कुछ का मत है कि सही सख्या जानने के लिये अभी हजार साल भी लग सकते हैं। फिर भी मोटे तौर पा माना जा रहा है कि धरती पर पादप सहित जीवधारियों की लगभग 1.3 मिलियन या 13 लाख प्रजातियां चिह्नित मानी जा रही हैं जिनमें से 76 प्रतिशत प्रजातियां जीव जन्तुओं की, 17 प्रतिशत पादपों की और शेष प्रजातियां फंगी, वैक्टीरिया और प्रोटोक्टिस्टा की हैं। जीव जन्तुओं में से भी लगभग 86 प्रतिशत कीड़े मकोड़ों की और मात्र 4 प्रतिशत कोरडेट्स या रीड़धारी जीवों की है। इन थोड़े से रीड़धारी जीवों में से ही एक प्रजाति मनुष्यों की है जो कि न केवल 13 लाख जीव प्रजातियों का मालिक बन बैठा है, बल्कि उनके हिस्से के आधे से अधिक भोजन आदि संसाधनों को हड़प रहा है। जीव संसार पर मनुष्य की इस तानाशाही का नतीजा पारितंत्र में असन्तुलन के रूप में सामने आ रहा है और अगर यह असन्तुलन बढ़ता गया तो एक दिन सौर मण्डल का यह ग्रह जीवन के लिये अनुपयुक्त हो जायेगा या जीवन विहीन हो जायेगा। विश्व की जनसंख्या सन् 1900 में 1.65 अरब थी जो कि 1987 में 5 अरब तथा 1999 तक 6 अरब तक पहुंच गयी। ताजा अनुमानों के अनुसार विश्व की जनसंख्या 2019 तक 7.7 अरब तक पहुंच गयी है। अगर इसी गति से जनसंख्या बढ़ती गयी तो विश्व की जनसंख्या 2024 तक 8 अरब और 2038 तक 9 अरब हो जायेगी जिसके बाद पृथ्वी की अधिकतम धारक क्षमता जवाब दे सकती है।

खुशहाली में बाधक जनसंख्या विस्फोट

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री माल्थस का विचार था कि जिस गति से जनसंख्या का प्रवाह बढ़ता है उस गति से उत्पादन नहीं बढ़ पाता, इसलिये समझदार लोगों का कर्तव्य है कि अपने समाज में अनावश्यक जनसंख्या बढ़ने न दें। इसी प्रकार जनसंख्या शास्त्री डा0 एस0 चन्द्रशेखर का भी मत है कि, ‘‘भारत की सुख समृद्धि और खुशहाली इस बात पर निर्भर करेगी कि बढ़ती हुयी जनसंख्या की गति को मन्द किया जाय।’’ आजादी के समय भारत की जनसंख्या 33 करोड़ थी आज चार गुना तक बढ़ कर लगभग 1 अरब 35 करोड़ के आसपास हो गयी है। भारत की जनसंख्या विश्व जनसंख्या का 17.5 प्रतिशत है जबकि उसके पास विश्व का केवल 2.5 प्रतिशत ही भूभाग है। भारतीयों के पास धरती, खनिज जैसे प्राकृतिक साधन आज भी वही हैं जो 50 साल पहले थे, परिणामस्वरूप लोगों के पास जमीन कम, आय कम और समस्याएँ अधिक बढ़ती जा रही हैं। लोगों के आवास के लिए कृषि योग्य भूमि और जंगलों को उजाड़ा जा रहा है। अनाज के लिये जमीन का अत्यधिक दोहन करने से उसकी उर्वरकता घटती जा रही है। संसाधनों और जनसंख्या के बीच असन्तुलन से देश में सरकार के लाख प्रयासों के बावजूद गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी, अकालमृत्यु, गन्दगी, अशिक्षा, अपराध एवं अशांति में वृद्धि हो रही है। अफ्रीकी देशों में जहां प्रति महिला प्रजनन दर 7 प्रतिशत के आसपास है, में दुनियां की लगभग 44 प्रतिशत भुखमरी भी वहीं दर्ज की गयी है।

एक और इमरजेंसी नहीं चाहिये

निश्चित रूप से जनसंख्या के विस्फोट पर प्रधानमंत्री की चिन्ता वाजिब है और अगर उन्होंने इस समस्या को अपनी प्राथमिकताओं में रखा है तो वह समय की मांग ही है। उम्मीद की जानी चाहिये कि देश की सरकार अतीत के अनुभवों का लाभ उठा कर समस्या के समाधान के लिये व्यवहारिक और ठोस कदम उठायेगी। लेकिन इमरजेंसी के दौरान संजय गांधी ने भी जनसंख्या वृद्धि को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकताओं में रखा था। उस दौरान लोगों की जबरन नसबंदियां कर दी गयीं। सरकारी कर्मचारियों ने टारगेट पूरे करने के लिये साधुओं, विधवा तथा विधुरों और यहां तक कि कुंवारों की तक नसबंदियां करवा दी थीं। यह कार्यक्रम इतना बदनाम हुआ जितना कि इमरजेंसी हुयी थी और बाद में जब जनता पार्टी सत्ता में आयी तो यह कार्यक्रम जरूरी होने के कारण उसे बंद तो नहीं पर पायी अलबत्ता उसका नाम ‘परिवार नियोजन’ से बदल कर ‘परिवार कल्याण’ जरूर रख दिया गया।

कुछ समुदायों की जनसंख्या बढ़नी जरूरी

भारत जैसे विशाल और विविधताओं से भरे देश को एक ही लाठी से नहीं हांका जा सकता। भारत के कुछ राज्यों तथा क्षेत्रों में जनसंख्या पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है। जबकि कुछ प्रदेशों ने जनसंख्या पर नियंत्रण पा लिया है और कुछ क्षेत्रों में तो जनसंख्या घट भी रही है। यही नहीं देश में ऐसे समुदाय भी हैं जिनकी जनसंख्या चिन्ताजनक स्थिति तक घट गयी है। उत्तराखण्ड में नारायण दत्त तिवारी की पहली निर्वाचित सरकार ने तो राजी आदिम जाति बहुल क्षेत्रों में नसबंदी पर पाबंदी लगा दी थी, क्योंकि इस जनजाति की आबादी 600 के आसपास है और यह देश की उन 18 आदिम जातियों में शामिल है जिनके विलुप्त होने का खतरा है। इस तरह के मानव समुदाय अण्डमान और निकोबार द्वीप समूह में हैं। इस द्वाीप समूह में निवास करने वाली ग्रेट अण्डमानी, ओंगे, सेंटिनली एवं जरावा आदिवासी जातियों की जनसंख्या 500 से भी कम है। इनमें से कुछ की संख्या 100 से भी कम आंकी गयी है। बाहरी लोगों के सम्पर्क में आने से इन पर बीमारियां लगने की बातें भी सामने आयी हैं।

जनसंख्या कहीं घट तो कहीं बढ़ रही है

राज्यों में भी जनसंख्या नियंत्रण या वृद्धि की एक जैसी स्थिति नहीं है। भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय कीे वार्षिक स्वास्थ्य सर्वे रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में जहां एक परिवार की औसत संख्या 5.5 व्यक्ति है वहीं उड़ीसा में परिवार का औसत आकार 4.2 व्यक्ति ही है। उड़ीसा के नयागढ़ जिले में तो प्रति परिवार की औसत संख्या 3.5 ही है। जबकि उत्तर प्रदेश के एसआर नगर में प्रति परिवार का औसत आकार 6.2 से लेकर 6.5 व्यक्ति तक हैं। जहां तक सवाल प्रजनन दर का है तो वह भी दश में एक समान नहीं है। यद्यपि सम्पूर्ण भारत की प्रति महिला प्रजनन दर 2.2 है जो कि जनसंख्या नियंत्रण के लिये अपेक्षित 2.1 से थोड़ा अधिक है। इस मामूली अन्तर को आसानी से और जागरूकता तथा प्रोत्साहन नीति से कम या समाप्त किया जा सकता है। देश के कुछ ऐसे हिस्से या प्रदेश ऐसे भी हैं जहां प्रजनन दर 2 से कम है। दक्षिणी राज्यों जैसे केरल, और महाराष्ट्र में प्रति महिला प्रजनन दर 1.6 है और बंगाल, पंजाब तथा जम्मू और कश्मीर में यह दर 1.7 के करीब है। इन राज्यों में अगर जनसंख्या और भी घट गयी तो चीन की जैसी स्थिति पैदा हो सकती है। चीन की वर्तमान प्रजनन दर 1.63 प्रति महिला है और यह अब बूढ़ों का देश कहलाने लगा है। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे हिन्दी भाषी राज्यों में यह दर 3.0 तथा 3.2 तक है, जो कि अपेक्षा से काफी अधिक है। जनसंख्या वृद्धि को किसी धर्म विशेष से जोड़ना भी दुराग्रहपूर्ण होगा। अब तक के कुछ कदमों से ऐसा संदेश गया भी है। सरकारी आंकड़े भी बताते हैं कि जम्मू-कश्मीर, केरल और पश्चिम बंगाल, जहां मुस्लिम आबादी काफी है वहां प्रजनन दर हिन्दी भाषी प्रदेशों की तुलना में कहीं कम है।

जबरदस्ती के बजाय जनजागरण जरूरी

जनसंख्या नियंत्रण के लिये जोर जबरदस्ती करना भी अलोकतांत्रिक होगा। छोटे परिवार वालों को देशभक्त और बड़े परिवार को देशद्रोही की सोच को लोकतांत्रिक सोच हरगिज नहीं माना जा सकता। इमरजेंसी में इसी तरह की जोर जबरदस्ती की तोहमत से कांग्रेस अब तक मुक्त नहीं हो पायी है। उत्तराखण्ड सहित कुछ राज्यों ने पंचायती राज कानून में परिवर्तन कर दो से अधिक बच्चे वाले स्त्री पुरुषों को पंचायत चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित कर दिया है। जबकि उत्तराखण्ड में 55 प्रतिशत ऐसी विवाहित महिलाएं हैं जिनके दो से अधिक बच्चे हैं। मुख्यमंत्री के स्वयं आठ भाई बहन हैं। सामान्यतः लोग अब 2 बच्चों तक ही परिवार सीमित रखने पर विश्वास करने लगे हैं, मगर समाज में पुत्र प्राप्ति की लालसा अभी पूरी तरह गयी नहीं है। इसीलिये लिंगानुपात भी घट रहा है और अगर किसी की लगातार दो पुत्रियां के बाद भी पुत्र नहीं हुआ तो उनका कार्यक्रम पुत्र प्राप्ति तक या सन्तानोत्पति क्षमता तक जारी रहता है। इसलिये ऐसे लोगों को जागरूक किये जाने की जरूरत है। बाल विवाह के गैर कानूनी होने के बावजूद देश में यह कुप्रथा जारी है। बाल विवाह भी एक सामाजिक समस्या है और जनसंख्या वृद्धि के लिये इस गैरकानूनी प्रथा को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। वास्तव में जिन लोगों को विवाह की कानूनी उम्र की जानकारी न हो या जो कानूनी उम्र को गैर जरूरी मानते हों उनसे आप जनसंख्या नियंत्रण जागरूकता की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि देश में कानूनी उम्र से कम उम्र की सर्वाधिक घटनाएं राजस्थान में हो रही है। स्वास्थ्य सर्वेक्षण में राजस्थान में लड़के या लड़कियों के बीच कम उम्र के विवाह के अधिकतम मामले प्रकाश में आये हैं। मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले में कानूनी उम्र से कम उम्र के लोगों के विवाह के 55.3 प्रतिश तथा राजस्थान के भीलवाड़ा में 37 प्रतिशत मामले सामने आये हैं। जबकि उत्तराखण्ड में सबसे कम 5.5 प्रतिशत मामले कम आयु में विवाह के सामने आये हैं। उड़ीसा में कम उम्र के लड़कों के विवाह के सबसे कम 1.7 प्रतिशत मामले दर्ज हुये हैं। उत्तराखण्ड में अल्मोड़ा जिला जागरूकता के मामले में अग्रणी रहा है इसलिये वहां बाल विवाह के केवल 2.2 प्रतिशत मामले प्रकाश में आये, जबकि उत्तरकाशी जैसे सीमान्त और दुर्गम जिले में कानूनी उम्र से कम उम्र में विवाह के 11.5 प्रतिशत मामले दर्ज हुये हैं।

जनसंख्या नियंत्रण का खमियाजा भी

कई बार कम जनसंख्या का खमियाजा भी उन प्रदेशों को भुगतना पड़ता है जिनका जोर जनसंख्या नियंत्रण पर रहा है। सामान्यतः बजट का आबंटन जनसंख्या के आधार पर ही होता है। राज्य हो या फिर केन्द्र सरकार दोनों का ही बजट आबंटन का पैमान जनसंख्या ही है। उदाहरण के लिये उत्तरखण्ड को लिया जा सकता है। यहां लगभग 84.37 प्रतिशत भूभाग में प्रदेश की 48 प्रतिशत आबादी और 15.63 मैदानी भूभाग में 52 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है। इसलिये राज्य के बजट का बड़ा हिस्सा तीन जिलों वाले मैदानी भूभाग पर खर्च होता है जबकि 10 पहाड़ी जिलों के हिस्से में बहुत कम बजट आ पाता है। वर्ष 2006 में जब विधानसभा और लोकसभा क्षेत्रों का परिसीमन हो रहा था तो तब भी दक्षिण के राज्यों ने कहा था कि उनकी सीटें इसलिये कम की जा रही हैं क्योंकि उन्होंने जनसंख्या नियंत्रण पर ध्यान दिया है। इसलिये मोदी सरकार को अपने जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम में इस हकीकत को भी ध्यान में रखना चाहिये।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!