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अंग्रेजों ने खारिज कर दिया था लिपुलेख पर नेपाल का दावा

    -जयसिंह रावत

नेपाल  सरकार लिम्पियाधुरा-लिपुलेख-कालापानी को लेकर चाहे जो भी दावे करें लेकिन इस विवाद में भारत के पक्ष में इतिहास खड़ा है। दरअसल ऐसा ही दावा 1817 में नेपाल दरबार ने ईस्ट इंडिया कंपनी के समक्ष किया था  लेकिन गवर्नर जनरल के तत्कालीन ऐजेंट एवं कुमाऊं के कमिश्नर ने छानबीन के बाद कूटी यांग्ती को काली नदी मानने से साफ इंकार करते हुये नेपाल का दावा उसी समय खारिज कर दिया था। इसलिये आज पुनः यह दावा करना इतिहास और तथ्यों के साथ मजाक है।

नेपाल नरेश विक्रमशाह बहादुर शमशेर जंग के प्रतिनिधि राजगुरू गजराज मिश्र और चन्द्रशेखर उपाध्याय तथा कंपनी की ओर से ले0 कर्नल ब्रैडशॉ द्वारा सुगोली में 2 दिसम्बर 1815 को हस्ताक्षरित संधि के अनुसार सतलज से लेकर घाघरा और मेची के बीच का सारा भूभाग अंग्रेजों के अधीन आ गया था लेकिन काली नदी को सीमा मानने वाली इस संधि का अनुमोदन नेपाल नरेश ने 4 मार्च 1816 को तब किया जबकि अंग्रेज सेना जनरल ओक्टरलोनी के नेतृत्व में काठमाण्डू पर कब्जे के लिये उससे मात्र 20 मील की दूरी पर मकवानपुर पहुंच गयी थी। वहां पर 28 फरबरी 1816 को हुयी झड़प में नेपाली सेना के परास्त होने के बाद नेपाल नरेश के पास संधि को अनुमोदित करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।

Nepal government led by K P Sharma Auli released this disputed map claiming Kuti Yangti river as real Mahakali river . Where as Britishers had rejected this claim of then Nepal government and had confirmed the river originating from Kala Pani as real Kali river.

भारत और नेपाल के बीच यह सीमांकन कुमाऊं के प्रथम कमिश्नर एवं नेपाल में प्रथम ब्रिटिश रेजिडेंट ई0 गार्डनर की देखरेख में हुआ था और उन्होंने ही नेपाल का दावा खारिज भी कर दिया था। दरअसल संधि के समय 203 साल पहले उस क्षेत्र का कोई नक्शा ही नहीं था। इस दुर्गम और हिमाच्छादित क्षेत्र से शासकों को राजस्व की कोई उम्मीद ही नहीं थी। हिमालयन गजेटियर ( सन् 1884: वाल्यूम-2 पार्ट-2: 679-680) में ई.टी. एटकिन्सन लिखता है कि संधि के अनुसार टौंस से शारदा तक पूरा क्षेत्र ईस्ट इंडिया कंपनी के नियंत्रण में आ गया, मगर उत्तर में केवल एक छोटे तथा महत्वहीन क्षेत्र पर विवाद बना रहा। संधि में काली को सीमा माना गया था। इसके साथ ही संधि के अनुसार ब्यांस परगना के दो हिस्से हो गये थे, जबकि अब तक वह कुमाऊं का अभिन्न हिस्सा था। वैसे भी यह नेपाल के जुमला और डोटी से अलग क्षेत्र था। नेपाल ने कुमांऊ के कमिश्नर और नेपाल के रेजिडेंट ई0 गार्डनर को 4 फरबरी 1817 को परगना ब्यांस में काली के पूर्व में पड़ने वाले तिंकर और छांगरू गावों पर अपना दावा पेश किया तो वे सचमुच काली नदी के पूरब में थे, इसलिये उन्हें डोटी के तत्कालीन सूबेदार बमशाह को सौंपा गया। लेकिन इससे भी नेपाल सन्तुष्ट नहीं हुआ और उसने कूटी तथा नाभी की भी मांग कर दी। नेपाल का तर्क था कि काली नदी की सहायिका कूटी यांग्ती में अधिक पानी है और वह अधिक लम्बी भी है, इसलिये उसे ही काली नदी माना जाना चाहिये। गजेटियर अनुसार नेपाल के रेजिडेंट एवं कमिश्नर ने कैप्टन वेब से इस दावे की जांच कराई तो उसने व्यापक दौरे के बाद 11अगस्त और 20 अगस्त 1817 को सौंपी गयी अपनी रिपोर्ट में कहा कि पवित्र कालापानी चश्मे से निकलने वाली, मगर कम पानी वाली जलधारा ही सदैव काली की मुख्य शाखा मानी जाती रही है। कालापानी के कारण ही उसका नाम काली रखा गया। इस नदी का काली नाम तब तक रहता है जब तक वह पहाड़ों में बहती है और मैदान में उतरने पर वह शारदा नदी हो जाती है। इसलिये कंपनी सरकार ने नेपाल का दावा खारिज कर नाभी और कूटी गावों को अपने पास ही रखने का निर्णय लिया और तब से ये गांव ब्रिटिश कुमाऊं के ही हिस्से रहे। दरअसल अब नेपाल द्वारा हाल ही में जारी किये गये नक्शे में नाभी और कूटी के अलावा भारत का गुंजी गांव भी अपने क्षेत्र में दिखाया गया। ब्यांस घाटी के ये सभी गांव रं भोटिया जनजाति के हैं। गंुजी, नाभी और कूटी के एक दर्जन से अधिक आइएएस, आइपीएस, पीपीएस और पीसीएस अधिकारी उत्तराखण्ड और भारत सरकार की सेवा में हैं।

हिमालयन गजेटियर के अनुसार आंग्ल-नेपाल युद्ध के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के कब्जे में आ गये तराई के कुछ क्षेत्र नेपाल के अनुरोध पर सौहार्द बनाये रखने के लिये उसके पास ही रहने दिया गये ताकि उस जमीन पर काबिज नेपाली मुखियाओं को असुविधा न हो। सुगौली की संधि के बाद अवध से लगे क्षेत्र को अवध के नवाब को और मेची तथा तीस्ता के बीच की भूपट्टी को सिक्किम के राजा को सौंप दिया गया।

भारत-नेपाल के भूभागों का सीमांकन कराने वाला ई0 गार्डनर बंगाल सिविल सर्विस का अधिकारी था, जिसे 3 मई 1815 को कुमाऊं का कमिश्नर एवं गवर्नर जनरल का एजेंट नियुक्त किया गया। 15 मई 1815 को अमरसिंह थापा द्वारा जनरल ओक्टरलोनी के समक्ष आत्मसमर्पण के बाद टोंस से लेकर सतलज तक का भाग(वर्तमान हिमाचल प्रदेश) गोरखों से मुक्त हो कर अंग्रेजों के कब्जे में आ गया। देहरादून के खलंगा युद्ध में बलभद्र थापा 30 नवम्बर 1814 को दुर्ग छोड़ बचे खुचे साथियों के साथ खिसक गया था। इधर 14 मई 1815 को बमशाह कुमाऊं को अंग्रेजों के हवाले कर सेना सहित काली नदी पार कर डोटी पहुंच गया था। इस तरह गोरखा सेना जहां से आई थी वहीं खदेड़ दी गयी थी। इसलिये विजेता ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा तय सीमा ही वास्तविक नियंत्रण रेखा थी।

जयसिंह रावत

ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर

डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।

मोबाइल-9412324999

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