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अब शायद ही कभी देश में इमरजेंसी लगे


-जयसिंह रावत
भारत में अंतिम बार आपातकाल की घोषणा हुये 49 साल गुजर गये मगर उस दौर की ज्यादतियों की यादें आज भी राजनीतिक क्षेत्रों में गूंजती रहती हैं। खास कर प्रेस की स्वतंत्रता के हनन के लिये वह दौर एक चिरजीवी उदाहरण बन गया। 25 जून 1975 से लेकर 21मार्च 1977 तक चले इतिहास के उस काले दौर से भी पहले देश में युद्धों के दौरान आपातकाल की घोषणाएं  हो चुकीं थीं जो कि वास्तव में राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से अपरिहार्य थीं जिनको लेकर देशवासियों को काई ऐतराज नहीं हुआ। लेकिन जून 1975 के आपातकाल की घोषणा से सारा देश इतना विचलित हुआ कि न केवल तत्कालीन सत्ताधारी दल को अपितु तत्कालीन प्रधानमंत्री को भी जनता ने हरा कर सबक सिखा दिया। हालांकि इमरजेंसी की ज्यादतियों की आलोचना स्वाभाविक ही है लेकिन इमरजेंसी के उस दौर का एक उजला पक्ष भी था। उस समय सरकारी दफ्तर समय से खुलते थे और सरकारी काम तत्परता के साथ होता था। घूसखोर खौफजदा थे। समाज में अनुशासन था। अपराधों पर अंकुश था। उस समय नशबंदी के लिये जोर जबरदस्ती अवश्य हुयी मगर कुल मिला कर आम आदमी नाराज नहीं था। इसीलिये देश की जनता ने इंदिरा गांधी को माफ कर उन्हें पुनः सरमाथे बिठा दिया। लेकिन सवाल उठता है कि आज देश में वैसी इमरजेंसी संभव है?

 

इमरजेंसी का प्रावधान तो है मगर लगाना मुश्किल

भारत में, आपातकालीन प्रावधानों का दुरुपयोग इतिहास के विभिन्न बिंदुओं पर चिंता का विषय रहा है। विशेष रूप से 1975-1977 में घोषित आपातकाल की अवधि के दौरान देशवासियों ने असहनीय उत्पीड़न झेले। लेकिन आज की तारीख में कोई शासक या प्रधानमंत्री चाह कर भी 1975 वाला आपातकाल देश पर लागू नहीं कर सकता। क्योंकि संविधान के 44वें संशोधन के बाद आपातकाल लागू करने के प्रावधान वाला अनुच्छेद 352 तो मौजूद है मगर उसके तहत 1975 का जैसा आपातकाल लागू करना लगभग नामुमकिन ही है। अब तो अनुच्छेद 356 का बेजा इस्तेमाल भी संभव नहीं है। यही नहीं सुप्रीमकोर्ट को इन परिस्थितियों की समीक्षा करने का पूरा अधिकार हो गया है। संविधान संशोधन-44 और न्यायिक समीक्षा के साथ ही जनजागरूकता के चलते अब असाधारण युद्धकालीन या संशस्त्र विद्रोह की स्थिति के अलावा आपातकाल की घोषणा नहीं की जा सकती। असाधारण आर्थिक संकट में भी नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं किया जा सका। यह स्थिति आपातकाल के बाद सुप्रीम कोर्ट भी स्पष्ट कर चुका है।

संविधान के 44 वें संशोधन ने खड़े कर दिये कई अवरोधक

दरअसल सत्तर के दशक में जब देश आपातकाल की ज्यादतियों और नागरिक अधिकारों के हनन से कराह रहा था तो 1977 के आम चुनाव में उन्हीं ज्यादतियों के गर्भ से जनता पार्टी के शासन के रूप में एक ऐसे जनादेश का जन्म हुआ जिसकी पहली प्राथमिकता आपातकाल की ज्यादतियों की संभावनाओं को सदा के लिये समाप्त करने की थी। जनता पार्टी ने 1977के चुनाव में अपने घोषणापत्र में भी 1976 में किये गये 42वें संविधान संशोधन के प्रावधानों को समाप्त कर आपातकाल लागू होने से पहले की संविधान की स्थिति बहाल करने का वायदा करने के साथ ही ऐसी नयी व्यवस्था की बात कही थी जिससे दुबारा कोई आपातकाल के नाम पर नागरिक अधिकारों का हनन न कर सके। यह संविधान संशोधन विधेयक तत्कालीन कानून मंत्री शांति भूषण द्वारा 16 दिसम्बर 1977 को लोकसभा में पेश किया गया था जिसमें संविधान के 30 से अधिक प्रावधानों में संशोधन का प्रस्ताव था। इसमें 42वें संशोधन के प्रस्तावों को हटाने के प्रस्ताव भी थे। चूंकि संविधान संशोधन में राज्यसभा की स्वीकृति और आधे से अधिक राज्यों की राय भी जरूरी थी इसलिये राज्यसभा द्वारा पारित कराये गये संशोधनों के साथ इसे 7 दिसम्बर 1978 को लोकसभा में पारित कराया जा सका और आधे से अधिक राज्यों से रैटिफिकेशन के बाद इसको तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीवा रेड्डी की स्वीकृति 30 अप्रैल 1979 को मिल सकी।

पहली बार बिचलन के अधिकार से लागू की थी इमरजेंसी

25 जून 1975 को जब राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद देश में आपातकाल की घोषणा की गयी थी तो उस समय के अधिकांश मंत्रिमंडलीय सहयोगियों को इसकी जानकारी नहीं थी। जबकि इतना बड़ा फैसला कैबिनेट की सहमति से लिया जाना था और राष्ट्रपति को कैबिनेट की सलाह पर आपातकाल की स्वीकृति देनी थी। चूंकि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को विचलन का असाधारण अधिकार प्राप्त है इसलिये उस समय इंदिरा गांधी ने भी बिचलन से राष्ट्रपति को आपातकाल लागू करने की सिफारिश कर दी थी। बिचलन के तहत लिये गये फैसले की औपचारिक जानकारी को प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री द्वारा बाद में अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों को दी जा सकती है। इसी बिचलन के अधिकार का उपयोग करते हुये इंदिरा गांधी ने स्वतः ही निर्णय लेकर राष्ट्रपति को आपातकाल लागू करने की सलाह दे दी थी। देश में पहली बार बिचलन के अधिकार का प्रयोग इतने बड़े फैसले के लिये किया गया था। यह बिचलन का अधिकार आज भी है मगर आपातकाल लागू करने के मामले में इस अधिकार को बहुत सीमित कर दिया गया है। संविधान संशोधन 1978 के तहत राष्ट्रपति को अब आपातकाल लागू करने की मामले में सिफारिश को दुबारा विचार के लिये कैबिनेट का लौटाने का अधिकार मिल गया है जबकि पहले यह अधिकार नहीं था। इसलिये प्रधानमंत्री अब मनमानी नहीं कर सकते।

अब प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार नहीं रहा

दरअसल जनता पार्टी सरकार के कार्यकाल में 44वां संशोधन अधिनियम, 1978 को मुख्य रूप से आपातकाल की ज्यादतियों के जवाब में लागू किया गया था। इसने संविधान के अनुच्छेद 352, 356 और 360 के तहत आपातकालीन प्रावधानों में महत्वपूर्ण बदलाव किए। इसने राष्ट्रपति के लिए आपातकाल की घोषणा जारी करने के लिए मंत्रिमंडल की सलाह लेना अनिवार्य कर दिया। अब घोषणा को एक महीने के भीतर संसद के दोनों सदनों द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिए। इसने राष्ट्रीय आपातकाल की अवधि को छह महीने तक सीमित कर दिया, जब तक कि संसद द्वारा इसे बढ़ाया न जाए। इसने सुनिश्चित किया कि अनुच्छेद 20 और 21 के तहत मौलिक अधिकारों को आपातकाल के दौरान भी निलंबित नहीं किया जा सकता।

इमरजेंसी दुरुपयोग असंभव हो गया

यदि राष्ट्रपति संतुष्ट हैं कि गंभीर आपातकाल मौजूद है जिससे भारत या उसके किसी भाग की सुरक्षा युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से खतरे में है तो राष्ट्रपति को अनुच्छेद 352 के तहत ऐसे संकट के समय आपातकाल की घोषणा करने का अधिकार है। अब भी अगर आपातकाल की घोषणा जारी की जाती है तो राष्ट्रपति अनुच्छेद 19 के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों को निलंबित कर सकते हैं। राष्ट्रपति घोषित आपातकाल के प्रभावी प्रवर्तन के लिए आदेश भी जारी कर सकते हैं, जिसमें ऐसे उपाय शामिल हो सकते हैं जो कार्यपालिका की सामान्य शक्तियों से परे हैं। लेकिन अब आपातकाल की घोषणा को इसके जारी होने की तिथि से एक महीने के भीतर संसद के दोनों सदनों द्वारा अनुमोदित किया जाना आवश्यक हो गया है।

न्यायपालिका भी रोकेगी इमरजेंसी का दुरुपयोग

भारतीय न्यायपालिका यह सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है कि आपातकालीन शक्तियों का दुरुपयोग न हो। न्यायालयों के पास आपातकाल के दौरान की गई घोषणाओं और की गई कार्रवाइयों की वैधता की समीक्षा करने का अधिकार है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे संवैधानिक प्रावधानों का अनुपालन करते हैं। इन संशोधनों और कानूनी सिद्धांतों का सामूहिक उद्देश्य भारत में आपातकालीन प्रावधानों के दुरुपयोग को रोकना है, इसके लिए सख्त प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय लागू करना, आपातकालीन शक्तियों के दायरे और अवधि को सीमित करना और संकट के समय में भी संवैधानिक सर्वोच्चता के सिद्धांत को मजबूत करना है। इससे पहले 1973 में केशवानन्द भारती बनाम केरल सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट की अब तक की सबसे बड़ी 13 सदस्यीय बेंच एकमत से स्पष्ट कर चुकी थी कि संसद को संविधान संशोधन के व्यापक अधिकार अवश्य हैं मगर असीमित अधिकार नहीं। संसद संविधान की मूल भावना को नहीं बदल सकती। जबकि 1946 के 42वें संविधान संशोधन में लोकसभा का कार्यकाल 6 वर्ष करने आदि कई संशोधन कर नागरिक स्वतंत्रताओं पर अंकुश लगा दिये गये थे। इन संशोधनों को संविधान संशोधन 44 से समाप्त कर दिया गया था।

( नोट : लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं तथा उत्तराखंड हिमालय न्यूज़ पोर्टल के संपादक मंडल के  मानद  सदस्य हैं -एडमिन /मुख्य संपादक )

 

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