समान नागरिक संहिता पर भी करा दी उत्तराखंड की जगहंसाई : जो काम मोदी नहीं करा पाए वह धामी करेंगे ? ? ?

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जयसिंह रावत

भारतीय जनता पार्टी के निवर्तमान शासनकाल के मुख्यमंत्रियों ने अपने ऊल जुलूल बयानों से अपनी जग हंसाई कराने के साथ ही गोविन्द बल्लभ पंत, हेमवती नन्दन बहुगुणा और नारायण दत्त तिवारी जैसे राजनीति के शिखर पुरुषों की जन्मभूमि उत्तराखण्ड की महिमा भी तार-तार करा डाली। इन मुख्यमंत्रियों में किसी ने गाय को धरती का ऐसा एकमात्र पशु बताया जो सांस में आक्सीजन छोड़ता तो किसी ने भारत को दो सौ सालों तक अमेरिका का गुलाम बता डाला। वर्तमान मुख्यमंत्री ने तो सत्ता में लौटने पर उत्तराखण्ड में गोवा की तरह समान आचार संहिता लागू करने की घोषणा तक कर डाली। जबकि यह संसद का विषय है और मोदी सरकार भी पिछले 8 सालों से यह काम नहीं कर पायी। जबकि समान नागरिक संहिता भाजपा के मुख्य राजनीतिक मुद्दों में से एक रहा है। भारतीय जनता पार्टी ने चुनाव में धामी की इस हास्यास्पद घोषणा को भी कैश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

जो काम मोदी-शाह करा पाये वह धामी करेंगे

अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, धारा 370 को हटाना और देश में समान नागरिक संहिता लागू कराना न केवल भारतीय जनता पार्टी का अपितु इसके पैतृक संगठन जनसंघ के मुख्य राजनीतिक मुद्दे रहे हैं। लेकिन सारे देश के लिये अगर एक समान नागरिक संहिता की व्यवस्था करना इतना आसान होता तो वर्ष 2014 से केन्द्र में सत्ताधारी मोदी सरकार कभी के यह व्यवस्था लागू कर देती। धारा 370 को हटाने और सीएए जैसे कानूनों पर तो भारी विवाद रहा है। जबकि इस मामले में तो सुप्रीम कोर्ट भी कम से कम चार बार सरकार का ध्यान अनुच्छेद 44 की ओर आकर्षित कर संविधान निर्माताओं की भावनाओं के अनुरूप आदर्श राज्य की अवधारणा की ओर बढ़ने की अपेक्षा कर चुका है। चूंकि यह मुद्दा नीति निर्देशक तत्वों में शामिल है और न तो अदालत नीति निर्देशक तत्वों का पालन करने के लिये आदेश दे सकती है और ना ही कोई नागरिक इनको लागू कराने के लिये अदालत जा सकता है। इस अनुच्छेद में प्रयुक्त अंग्रेजी के ‘‘स्टेट’’ शब्द की भी गलत व्याख्या करने का प्रयास किया गया है, जबकि इस शब्द का मंतव्य राज्य सरकार से न हो कर भारत की सरकार से है।

गोवा में 155 सालों से समान नागरिक संहिता

समान नागरिक संहिता के लिये अक्सर गोवा राज्य का उदाहरण दिया जाता रहा है। इसके इतिहास की जानकारी के अभाव में कुछ लोग भ्रान्ति पाले हुये हैं कि जब गोवा इसे लागू कर सकता है तो बाकी राज्य क्यों नहीं? जबकि हकीकत यह है कि वहां यह व्यवस्था पिछले 155 सालों से लागू है। गोवा के भारत संघ में विलय के बाद भारत की संसद ने इसे जारी रखा है। यह व्यवस्था गोवा के साथ ही यह दमन और दियू द्वीप समूहों में भी लागू है। सर्व विदित ही है कि गोवा पुर्तगाल का उपनिवेश रहा है और वहां लागू समान नागरिक संहिता वाला पुर्तगाली कानून सन् 1867 से ही ‘‘ द पोर्टगीज सिविल कोड 1867’’ के नाम से लागू था। भारत की आजादी के बाद पूर्तगाल सरकार ने जब आसानी से इसे भारत संघ को नहीं सौंपा तो 19 दिसंबर 1961 को, भारतीय सेना ने गोवा, दमन, दीव के भारतीय संघ में विलय के लिए ऑपरेशन विजय के साथ सैन्य संचालन किया और इसके परिणाम स्वरूप गोवा, दमन और दीव भारत का एक केन्द्र प्रशासित क्षेत्र बना। 30 मई 1987 को इस केंद्र शासित प्रदेश को विभाजित कर गोवा भारत का पच्चीसवां राज्य बनाया गया। जबकि दमन और दीव केंद्र शासित प्रदेश ही रहे। गोवा के अधिग्रहण के साथ ही उसके प्रशासन के लिये भारत की संसद के द्वारा ‘‘द गोवा दमन एण्ड दियू (प्रशासन) अधिनियम 1962 बना, जिसकी धारा 5 में व्यवस्था दी गयी कि वहां निर्धारित तिथि (अप्वाइंटेड डे) से पूर्व के वे सभी कानून तब तक जारी रहेंगे जब तक उन्हें सक्षम विधायिका द्वारा निरस्त या संशोधित नहीं किया जाता। प्रकार इसमें राज्य सरकार की कोई भूमिका नहीं रही।

यह संविधान संशोधन संसद का विषय

मोदी सरकार ने संविधान के अनुच्छदे 370 की विशिष्ट व्यवस्थाओं को समाप्त करने का रास्ता तो उसी अनुच्छेद में ढूंड लिया था। लेकिन समान नागरिक संहिता का समाधान उनको अब तक नहीं मिल पाया। जो काम मोदी-शाह की जोड़ी नहीं कर पायी उसे करने का किसी भी राज्य सरकार का दावा अपने आप में ही हास्यास्पद है। यह संविधान संशोधन का विषय है जो कि संसद के अधिकर क्षेत्र में है।

समानता और धार्मिक आजादी में टकराव ही असली बाधा

वास्तव में नीति निर्देशक तत्वों के तहत एक देश एक कानून, केवल आदर्श राज्य (देश) की अवधारणा मात्र नहीं बल्कि यह समानता के मौलिक अधिकार का मामला भी है। संविधान में अनुच्छेद 14 से लेकर 18 तक समानता के मौलिक अधिकार की विभिन्न परिस्थितियों का विवरण दिया गया हैै। इन प्रावधानों में कहा गया है कि भारत ‘राज्य’ क्षेत्र में राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूल, वंश, जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। इन प्रावधानों में कानूनी समानता, सामाजिक समानता और अवसरों की समानता की गारंटी भी है। लेकिन इन्हीं मौलिक अधिकारों में धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार भी है जिसका वर्णन अनुच्छेद 25 से लेकर 28 तक में किया गया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 के अनुसार, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता, धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का सामान अधिकार होगा। यह अधिकार नागरिकों एवं गैर-नागरिकों के लिये भी उपलब्ध है। देखा जाय तो नागरिक संहिता के मार्ग में धर्म की स्वतंत्रता और समानता के मौलिक अधिकारों में टकराव ही असली बाधा है। संविधान के अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधन की व्यवस्था तो है मगर मौलिक अधिकारों में किसी भी प्रकार का परिवर्तन संसद के दोनों सदनों के विशेष बहुमत से ही किया जा सकता है। बशर्ते वे परिवर्तन संविधान की मूल अवधारणा के विरूद्ध न हों, वरना भारत का सर्वोच्च न्यायालय उसे खारिज कर सकता है।

अनावश्यक और अवांछित बताया था विधि आयोग ने

अगस्त 2018 में, भारत के विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए कहा था कि देश में एक समान नागरिक संहिता आज की स्थिति में न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय है। इसने यह भी कहा था कि ‘‘धर्मनिरपेक्षता बहुलता के विपरीत नहीं हो सकती।’’ डा0 भीमराव अम्बेडकर ने भी संविधान निर्माण के समय कहा था कि समान नागरिक संहिता अपेक्षित है, लेकिन फिलहाल इसे विभिन्न धर्मावलंबियों की इच्छा पर छोड़ देना चाहिए और उम्मीद की गई कि जब राष्ट्र एकमत हो जाएगा तो समान नागरिक संहिता अस्तित्व में आ जाएगा। इसलिये इस मुद्दे को नीति निर्देशक तत्वों के तहत अनुच्छेद 44 में रख दिया गया।

अम्बेडरक ने कहा था कि कानून थोपना पागलपन होगा

भारत में अधिकतर निजी कानून धर्म के आधार पर तय किए गए हैं। हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध के अंतर्गत आते हैं, जबकि मुस्लिम और ईसाइयों के अपने कानून हैं। मुस्लिमों का कानून शरीअत पर आधारित है। जहाँ तक विवाह का सवाल है तो यह नागरिक कानून पारसियों, हिन्दुओं, जैनियों, सिखों और बौद्धों के लिए कोडिफाई कर दिया गया है। लेकिन समान कानून समर्थकों का मानना है कि जिस तरह भारतीय दण्ड संहिता (आइपीसी) और दंड प्रकृया संहिता (सीआरपीसी) भारत के सभी नागरिकों के लिये एक हैं उसी तरह नागरिक संहिता भी एक होनी चाहिये। लेकिन इसे थोपने के बजाय इसके लिये सभी को सहमत किया जाना चाहिये। डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा में दिए गए एक भाषण में कहा था, किसी को यह नहीं मानना चाहिए कि अगर राज्य के पास शक्ति है तो वह इसे तुरंत ही लागू कर देगा…संभव है कि मुसलमान या इसाई या कोई अन्य समुदाय राज्य को इस संदर्भ में दी गई शक्ति को आपत्तिजनक मान सकता है। मुझे लगता है कि ऐसा करने वाली कोई पागल सरकार ही होगी।

jaysinghrawat@gmail.com

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