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ओम पर्वत ने दे दिया हिमालय की बीमारी का संकेत

When the massive ‘Om’ shape on the world-famous Om Mountain in the border district of Pithoragarh, Uttarakhand began to disappear at the end of July, it was natural for followers of Sanatan Dharma to be disturbed. This divine shape completely vanished by mid-August. Devotees started seeing it as a sign of divine wrath and misfortune. However, environmentalists’ real concern is climate change’s devastating effects, which are visible on Om Mountain. Although the ‘Om’ shape reappeared after subsequent snowfall, the reappearance of snow is not enough to alleviate concerns. This is because the shape of ‘Om’ carved by nature in snow indicates the accelerating rate of snowmelt and glacier shrinkage in permanently snow-covered mountains. The height of this mountain is 5,590 meters above sea level, and areas above 5,000 meters in the Himalayas are part of the cryosphere, which remains permanently snow-covered. Along with Om Mountain, famous peaks like Nanda Devi and Panchachuli also began to appear black instead of white by mid-August.-Jay Singh Rawat

 


जयसिंह रावत
उत्तराखण्ड के सीमांत जिला पिथौरागढ़ स्थित विश्व विख्यात ओम पर्वत से जब जुलाइ महीने के अंत में विशालकाय ’ओम’ की आकृति लुप्त होने लगी तो सनातन धर्मावलम्बियों का विचलित होना स्वाभाविक ही था। यह दिव्य आकृति अगस्त के मध्य तक पूरी तरह गायब हो गयी। धर्मावलम्बी इसे दैवी प्रकोप और अनिष्ट का संकेत मानने लगे। लेकिन पर्यावरणविदों की असली चिन्ता तो जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी प्रभावों को लेकर है जो ओम पर्वत पर साफ नजर आ रहे हैं। यद्यपि बाद में पुनः हिमपात से ‘ओम’ की आकृति फिर प्रकट हो गयी, लेकिन पुनः बर्फ का दिखाई देना चिन्ता मुक्त होने के लिये काफी नहीं है। क्योंकि प्रकृति द्वारा बर्फ से उकेरी गयी ‘ओम’ आकृति हिमाच्छादित रहने वाले पहाड़ों से बर्फ पिघलने और ग्लेशियरों के सिकुड़ने की गति बढ़ने का संकेत दे ही गयी। इस पर्वत की ऊंचाई समुद्रतल से 5,590 मीटर है और हिमालय पर 5 हजार मीटर से ऊपर का क्षेत्र क्रायोस्फीयर में शामिल है जो स्थाई रूप से हिमाच्छादित रहता है। ओम पर्वत के साथ ही विख्यात नन्दादेवी और पंचाचूली जैसी चोटियां भी मध्य अगस्त में सफेद की जगह काली नजर आने लगी थीं।

 

पंचाचूली की दो फोटो.ऊपर वाली इस अगस्त की और निचे वाली पुरानी . Photo by-Pradip Mehra

हिमालयी ग्लेशियरों का आईना है ओम पर्वत

हिमालय के क्रायोस्फीयर में इस तरह तेजी से बर्फ का पिघलना सीधे-सीधे क्षेत्र के ग्लेशियर तंत्र को प्रभावित करना है। ग्लेशियरों का यही पीछे हटना वैश्विक स्तर पर सरकारों, आपदा प्रबंधकों, भूगर्व और ग्लेशियर वैज्ञानिकों तथा पर्यावरणविदों की चिन्ता का विषय बना हुआ है। हिमालय में ग्लेशियरों के पीछे हटने से जल संसाधन प्रभावित हो रहेे हैं, जिससे नदियों का प्रवाह कम हो जाता है और कृषि प्रभावित होती है। इससे ग्लेशियल झीलों के फटने से विनाशकारी बाढ़ का खतरा भी बढ़ रहा है। इसके अलावा, यह क्षेत्रीय जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता के नुकसान को भी बढ़ाता है। हिमालय पर हिमानी झीलों (ग्लेशियल लेक) की संख्या बढ़ने और उनके विस्तार के साथ ही उनके फटने का खतरा भी बढ़ रहा है। ये ‘ग्लेशियल लेक आउट ब्रस्ट’ विनाशकारी होते हैं और इसीलिये इनकी तुलना विघ्वंशकारी एटम बमों से की जाती है। जी.बी. पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान के एक अध्ययन के अनुसार सन् 2013 से लेकर 2023 तक ग्लेशियल झीलों के फटने की 4 बड़ी घटनाऐं हो चुकी हैं जिनमें उत्तराखण्ड हिमालय में दो (2013 और 2021), लद्दाख में एक (2021) और सिक्किम में एक (2023) शामिल हैं।

सिकुड़ रहे हैं हिमालय के अधिकांश ग्लेशियर

टाइम मैग्जीन के मैन ऑफ द इयर रहे वाडिया हिमालयी भूविज्ञान संस्थान से ग्लेशियॉलॉजिस्ट डा0 डी.पी. डोभाल के अनुसार जलवायु परिवर्तन के इस दौर में हिमालय में 70 प्रतिशत से अधिक ग्लेशियर 5 वर्ग कि.मी. से कम क्षेत्रफल वाले हैं और ये छोटे ग्लेशियर ही तेजी से गायब हो रहे हैं। राज्यसभा में जलवायु परिवर्तन राज्य मंत्री कीर्ति वर्धन सिंह द्वारा 25 जुलाइ 2024 को दी गयी जानकारी के अनुसार सरकार ग्लेशियल झीलों के खतरे से चिन्तित है और पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय, विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय आदि विभिन्न मंत्रालयों और विभागों के माध्यम से हिमालयी ग्लेशियरों पर निगरानी और समस्या समाधान के उपाय कराये जा रहे हैं।

भारत सरकार ने 2013 में जानी थी ग्लेशियरों स्थिति

ऊर्जा एवं संसाधन संस्थान (टेरी) के तत्कालीन अध्यक्ष डा0 आर.के. पचौरी की अध्यक्षता में स्ंायुक्त राष्ट्र की इन्टर गवर्नमेण्टल पैनल की 2035 तक हिमालय के ग्लेशियर शून्य हो जाने की सनसनीखेज रिपोर्ट के बाद भारत सरकार के तत्कालीन प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार आर. चिदम्बरम ने 11 अक्टूबर 2007 को आइआइटी मुम्बई के निदेशक आनन्द पटवर्धन की अध्यक्षता में एक अध्ययन दल का गठन किया था जिसमें भारत सरकार के वैज्ञानिक संस्थानों, दिल्ली आइटीआइ और डीआरडीओ के वैज्ञानिकों के साथ ही प्रख्यात पर्यावरणविद चण्डी प्रसाद भट्ट को भी शामिल किया गया था।इस उच्च स्तरीय दल ने मार्च 2013 में अपनी रिपोर्ट दी थी।   इस अध्ययन दल ने हिमालय के अधिकांश ग्लेशियरों के पीछे हटने की पुष्टि करने के साथ ही सियाचिन जैसे कुछ गिने चुने ग्लेशियरों के आगे बढ़ने का खुलासा भी किया था।

ग्लेशियल झीलों के बढ़ने और फटने का खतरा बढ़ा

यूनिवर्सिटी ऑफ पोट्सडम, जर्मनी के इंस्टीट्यूट ऑफ जियो साइंस तथा इंस्टीट्यूट आफ इनवायर्नमेंटल साइंस एण्ड जियॉलाजी के एक साझा अध्ययन में हिमालय पर मोरैन द्वारा रोकी गयी ग्लेशियल लेकों की संख्या 5 हजार से अधिक बतायी गयी और इनमें से कई सुप्रा टाइप की झीलों के फटने से 21वीं सदी में ही सिन्धु, गंगा और ब्रह्मपुत्र बेसिनों में विनाशकारी बाढ़ की आशंका जताई गयी। द इंडियन सोसाइटी ऑफ रिमोट सेंसिंग के जर्नल में 2016 में प्रकाशित के. बाबू गोविन्धाराज और के. विनोद कुमार के शोधपत्र ‘‘इनवेंटरी ऑफ ग्ेलशियल लेक्स एण्ड इट्स इवोल्यूशन इन उत्तराखण्ड हिमालया यूजिंग टाइम सीरीज सेटेलाइट डाटा’’ के अनुसार उत्तराखण्ड हिमालय में चिह्नित कुल 5 तरह की 362 ग्लेशियल झीलों में से 8 खतरनाक हैं जो कि विभिन्न कारणों से फट कर निचली घाटियों में तबाही मचा सकती हैं।
केंद्रीय जल शक्ति राज्य मंत्री राज भूषण चौधरी द्वारा गत 8 अगस्त 2024 को लोकसभा में एक प्रश्न के उत्तर में दी गयी जानकारी के अनुसार अक्टूबर 2023 में ग्लेशियल लेक आउटब्रस्ट के कारण तीस्ताजलविद्युत बांध ढहने के बाद केंद्रीय जल आयोग प्रतिवर्ष जून से लेकर अक्टूबर तक 902 ग्लेशियल झीलों और जल निकायों (477 ग्लेशियल झीलों और जल निकायों सहित, जिनका जल फैलाव क्षेत्र 50 हेक्टेयर से अधिक है और 425 ग्लेशियल झीलों जिनका आकार 10 हेक्टेयर से 50 हेक्टेयर है) की निगरानी करता है।

भट्ट ने दिया पांच देशों की साझा रणनीति का सुझाव

प्रख्यात पर्यावरणविद और चिपको आन्दोलन के प्रणेता पद्मभूषण चण्डी प्रसाद भट्ट ग्लेशियरों के पीछे हटने के लिये ग्लोबल वार्मिंग से अधिक लोकल वार्मिंग को जिम्मेदार मानते हैं। भट्ट का कहना है कि आस्था के नाम पर हिमालयी मंदिरों में जो अपार भीड़ उमड़ रही है जिससे हिमालयी पारितंत्र प्रभावित हो रहा है। इस साल अब तक 4 लाख से अधिक वाहन और 33 लाख से अधिक यात्री उत्तराखण्ड के चार धामों तक पहुंच गये हैं जबकि अभी 3 और महीने यात्रा बाकी है। कुछ सालों पहले तक कम यात्री और वाहन बदरीनाथ-केदारनाथ पहुंचते थे। लाखों वाहनों का सीधे सतोपंथ और गंगोत्री जैसे पीछे खिसक रहे ग्लेशियरों के पास पहुंचने से कई गुना अधिक लोकल वार्मिंग बढ़ रहा है। भट्ट इस गंभीर समस्या के समाधान के लिये हिमालय से संबंधित भारत, नेपाल, चीन, पाकिस्तान और भूटान का एक साझा प्राधिकरण बनाने का सुझाव देते हुये कहते हैं कि हिमालय संबंधी मुद्दों को अकेले या बिखरे प्रयासों की नहीं बल्कि समग्र और साझा प्रयासों की जरूरत है।

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