लोक उत्सव से कम नहीं है पहाड़ों में धान की रोपाई
मृदु हास परिहास, खान पान के साथ शुरू हुई धान की रोपाई
–गोपेश्वर से महिपाल गुसाईं-
उत्तराखंड के पर्वतीय गांवों में धान की रोपाई एक तरह से लोकपर्व की तरह है। यह सामूहिकता की समृद्धशाली परंपरा बरकरार है तो इससे लोकसमाज के ताने बाने की समृद्ध डोर के दर्शन भी होते हैं। जलवायु परिवर्तन के चलते बेशक आज काफी कुछ बदल गया है और छह गते आषाढ़ वाली बात अतीत बन चुकी हो किंतु मौसम के अनुकूल होते ही जिस तरह से लोग सामूहिकता के साथ धान की रोपाई में जुटते हैं, वह किसी उत्सव से कम नहीं होती। लोकसमाज की यही प्रवृत्ति काम के बोझ को जहां हल्का करती है, वहीं ग्रामीण महिलाओं की एक़रसता को सरसता में बदलने का अवसर भी है।
गांवों में महिलाएं बारी-बारी से एक-दूसरे के खेतों में रोपाई करती हैं। इससे उनका काम का तो आसान होता ही है, साथ ही आपसी सद्भाव में भी अभिवृद्धि होती है। इसीलिए रोपाई का इंतजार सभी को रहता है। पर्वतीय क्षेत्रों में सिंचाई की व्यवस्था बहुत इलाकों में उपलब्ध है। ऊंचाई वाले क्षेत्रों में तो सब कुछ वर्षा पर निर्भर है, इसलिए वहां धान की रोपाई की संभावना भी नहीं है लेकिन निचले, घाटी वाले इलाकों या नदी किनारे बसे गांवों में धान की रोपाई का क्रम निरंतर जारी है। बेशक वहां भी पलायन की मार हो किंतु खेतों को बंजर नहीं रखा जाता।
पिछले दिनों बेमौसमी वर्षा के कारण फिलहाल नदी, नालों में पर्याप्त पानी होने के कारण निचले इलाकों में धान की रोपाई का क्रम तेज हो गया है। जिले के नंदानगर प्रखंड के सेरा गांव में गुरुवार 12 जून को धान की रोपाई का मुहूर्त निकाला गया तो कई अन्य गांवों में किसी और दिन यह मुहूर्त तय किया गया जबकि कुछेक गांवों में पिछले सप्ताह रोपाई शुरू हो गई और गांवों में अबाल – वृद्ध सब इस कृषि उत्सव में जुड़ गए हैं।
गढ़वाल के लोकसमाज में धान की रोपाई के अनेक कथानक प्रचलित हैं। इनमें एक कथानक जीतू बगड्वाल का भी है। लोक विश्वास है कि जब छह गते आषाढ़ को जीतू हल बैल समेत धरती में समा गया था या आछरियों द्वारा हर लिया गया था। यह रियासत काल का घटनाक्रम माना जाता है। कदाचित तभी से लोक विश्वास के अनुरूप रोपाई का मुहूर्त निकाला जाता रहा होगा और यह परम्परा आज भी बदस्तूर जारी है।
धान की रोपाई के सिलसिले में पुरानी परम्परा और आज की स्थिति पर बात करने पर सेरा गांव की 80 वर्षीय श्रीमती रामी देवी बताती हैं कि आषाढ़ के महीने दो गते को धान की रोपाई शुरू नहीं की जाती और नौ गते को कभी समापन नहीं किया जाता। वे बताती हैं कि नौ गते आषाढ़ को रोपाई के समय जीतू अपने बैलों की जोड़ी के साथ ही शायद धरती में समा गया था, इसलिए इन तिथियों को अशुभ माना जाता है। इसी कारण पुरोहितों से पूछ कर रोपाई का मुहूर्त तय किया जाता है। सिमली, गोचर, लंगासू, बमोथ आदि अन्य क्षेत्रों में सबने अपनी सुविधानुसार रोपाई के दिन निश्चित किए हैं। जिले के कई अन्य इलाकों में भी इसी तरह रोपाई उत्सव के रूप में है।
सेरा गांव में इस वर्ष कुल पुरोहित द्वारा बताए गए मुहूर्त के अनुसार गुरुवार को सबसे पहले भूम्याल देवता की पूजा रखी गई। इस मौके पर भूम्याल के पश्वा सुख समृद्धि का आशीर्वाद दिया, साथ ही आने वाले मौसम के बारे में भी संकेत दिया। इस मौके पर भूम्याल देवता से मनौती मांगी गई कि गांव में सभी लोग सुखी रहें और खेत खलिहान लहलहाते रहें।
भूम्याल पूजा के बाद गांव के तमाम लोग सामूहिक रूप से रोपाई में जुट गए। सेरा गांव में आज शुरू हुई रोपाई में श्रीमती पार्वती देवी, देवकी देवी, रामी देवी, बिछना देवी, देवेश्वरी देवी, अनिता देवी, सुशीला देवी, प्रकाश गुसाईं, सुमित सिंह, पुष्कर सिंह नेगी, सुजान सिंह, राजेंद्र सिंह आदि मौजूद थे।
सामूहिक रूप से शुरू हुए इस कृषि उत्सव में परम्परा यह है कि जिस परिवार के खेतों में रोपाई होती है, दोपहर और शाम के खाने पीने का प्रबंध भी वही परिवार करता है।
पहले पारंपरिक भोजन ही इस दौरान परोसा जाता था, लेकिन अब बदलते दौर में उपलब्धता के अनुसार अनेक अन्य पकवान भी परोसे जाने लगे हैं। बड़ी बात यह है कि बोझिल माने जाने वाले इस कृषि कार्य को सहजता के साथ उत्सव के रूप में मनाया जाने लगा है। हालांकि पहले भी सामूहिकता होती थी, लेकिन अब इसका विस्तार हो रहा है।
देखा जाए तो पहाड़ों में ऊंचाई वाले इलाकों में खेती किसानी पूरी तरह मौसम पर निर्भर है।
इसके अलावा मौसम अनुकूल भी रहा तो वन्य जीवों से फसल को बचाना टेडी खीर है। इसी कारण वहां लोग खेती से विमुख भी हो रहे हैं। एक तो वहां रोपाई संभव नहीं, ऊपर से वन्य जीवों ने जीवन ही दुश्वार कर रखा है। इस कारण वहां कृषि उत्सवधर्मिता का विषय नहीं बन पाई। सर्वविदित है कि पर्वतीय क्षेत्रों में ज्यादातर खेती उखड़ ही है। इस कारण वहां खेती भगवान भरोसे ही है।
इधर निचले इलाकों में जहां सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है, गाड़ गदेरे हैं, वहां उपज अच्छी होने से लोग खेती से जुड़े हुए हैं और बड़ी बात यह कि लोग खेत को बंजर रखना अपशगुन मानते हैं, इस कारण यहां उत्सवधर्मिता भी है, सामूहिकता भी और उल्लास भी है। यही कारण है कि धान की पौध निकालने से लेकर रोपाई तक जब तक कि अंतिम खेत में रोपाई संपूर्ण न हो जाए लोग एक दूसरे के साथ पूरे मनोयोग के साथ सहयोग करते हैं। यहां संपन्न और निर्धन का विषय गौण हो जाता है। यही उत्सवधर्मिता लोगों के आपसी संबंधों को सुदृढ़ भी करती है।