– जयसिंह रावत
जम्मू-कश्मीर के सबसे खूबसूरत पर्यटन स्थलों में से एक, पहलगाम में हुआ हालिया आतंकी हमला एक बार फिर यह स्पष्ट कर गया कि घाटी में शांति और सामान्य स्थिति लौटने के दावों में अब भी गहरे सुराख हैं। अमरनाथ यात्रा की तैयारियों के बीच जब घाटी में पर्यटकों की आमद तेज हो रही थी और प्रशासन इसे ‘‘नया कश्मीर’’ के रूप में प्रस्तुत कर रहा था, तभी आतंक के साये ने बटकोट इलाके में एक पर्यटक वाहन को अपना निशाना बना लिया। इस हमले में कम से कम दो दर्जन से अधिक पर्यटकों की मौत हो गयी और कई अन्य गंभीर रूप से घायल हो गए। यह हमला न केवल खौफनाक था, बल्कि सुरक्षा तंत्र की उन कमजोर परतों को भी उजागर करती है ।यह हमला ऐसे समय में हुआ जब केंद्र सरकार राज्य में आतंकवाद के खात्मे के दावे कर रही थी। बीते वर्षों में लगातार यह कहा जाता रहा कि आतंकियों की संख्या घट गई है, स्थानीय युवाओं की भर्ती में भारी गिरावट आई है, और आतंकी नेटवर्क लगभग समाप्ति की ओर है। लेकिन यदि यह स्थिति वास्तव में इतनी बेहतर थी, तो पहलगाम जैसे सुरक्षित और संवेदनशील क्षेत्र में आतंकवादी कैसे खुलेआम गोलियां बरसाकर फरार हो गए? यह प्रश्न इसलिए भी गंभीर है क्योंकि यह इलाका न केवल पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है, बल्कि अमरनाथ यात्रा का प्रमुख आधार स्थल भी है, जहां हर साल लाखों श्रद्धालु आते हैं।
आत्ममुग्धता और सुरक्षा व्यवस्था में गंभीर चूूक
सुरक्षा बलों और खुफिया एजेंसियों की इतनी मौजूदगी के बावजूद हमले की पूर्व सूचना का न होना, संदिग्ध गतिविधियों की पहचान न कर पाना, और हमलावरों का आसानी से भाग निकलना यह दर्शाता है कि हमारी सुरक्षा व्यवस्था अब भी सतही सफलता से ऊपर नहीं उठ सकी है। जब सरकार यह कहती है कि आतंकवाद अपने अंतिम दौर में है, तो क्या इसका मतलब यह है कि हम पहले से अधिक ढिलाई बरतने लगे हैं? क्या यह आत्ममुग्धता नहीं है कि हम केवल आंकड़ों और बयानों के सहारे अपनी पीठ थपथपा रहे हैं, जबकि जमीन पर आतंक अब भी जिंदा है?
लगातार होती रहीं आतंकी घटनाएं
यह हमला पुलवामा हमले के बाद सबसे बड़ा आतंकी हमला है। 14 फरवरी 2019 को पुलवामा में जैश-ए-मोहम्मद के आत्मघाती हमलावर ने सीआरपीएफ काफिले पर विस्फोटक से भरी गाड़ी से हमला किया था, जिसमें 40 जवान शहीद हुए थे। यद्यपि इसके जवाब में भारत ने भी बालाकोट में हवाई हमले किए थे। इसके बाद घाटी और आसपास के क्षेत्रों में कई बड़े हमले हुए:
उरी अटैक (18 सितंबर 2016): सेना के ब्रिगेड मुख्यालय पर जैश का हमला, 19 सैनिक शहीद।
गांदरबल हमला (20 अक्टूबर 2024)ः निर्माण स्थल पर हमला, 7 मजदूरों और एक डॉक्टर की मौत।
रियाशी हमला (9 जून 2024)ः तीर्थयात्रियों की बस पर हमला, 9 श्रद्धालु मारे गए, 33 घायल।
कठुआ अटैक (8 जुलाई 2024)ः सेना के वाहनों पर ग्रेनेड हमला, 5 जवान शहीद, 5 घायल।
डोडा मुठभेड़ (15 जुलाई 2024)ः डेसा जंगल में मुठभेड़, 4 सैनिक और 1 पुलिसकर्मी शहीद।
गुलमर्ग हमला (24 अक्टूबर 2024)ः सेना के वाहन पर हमला, 2 सैनिक और 2 नागरिक (पोर्टर) मारे गए।
उधमपुर अटैक (16 सितंबर 2015)ः बीएसएफ काफिले पर हमला, 2 जवान शहीद, 11 घायल, एक आतंकी नावेद जिंदा पकड़ा गया।
आतंकी हमले कम जरूर मगर ख़त्म नहीं हुए
इन घटनाओं की पुनरावृत्ति यह बताती है कि हम किसी भ्रम में नहीं रह सकते। आतंक का चेहरा भले ही बदल जाए, उसकी प्रवृत्ति और उद्देश्य अब भी वही हैं-अस्थिरता फैलाना और भय के वातावरण को बनाए रखना। हम इस बात को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि जम्मू-कश्मीर में 2019 से लेकर 2024 के बीच 750 से अधिक आतंकी घटनाएं हुई हैं। 2023 में ही करीब 100 मुठभेड़ें दर्ज की गईं, जिनमें 72 आतंकवादी मारे गए, जिनमें 25 विदेशी आतंकी भी शामिल थे। हालांकि आंकड़ों में गिरावट अवश्य दर्ज की गई है, लेकिन यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि खतरा टल गया है। 2017 में अमरनाथ यात्रियों पर हुआ हमला, 2000 में पहलगाम में ही हुआ बड़ा हमला और अब 2025 में फिर उसी इलाके में आतंकवाद की वापसी यह स्पष्ट कर देती है कि खतरा न केवल मौजूद है बल्कि समय के साथ रूप और तरीका बदल रहा है।
आतंक और उग्रवाद समाप्त होने के दावों की हकीकत
इस घटना की गूंज केवल कश्मीर तक सीमित नहीं है। यह सवाल पूरे देश में गूंजना चाहिए कि क्या हम आतंकी खतरे को लेकर एक बार फिर से लापरवाह हो गए हैं? इसकी तुलना यदि हम नक्सलवाद के मोर्चे से करें तो तस्वीर और स्पष्ट हो जाती है। कई वर्षों से यह दावा किया जा रहा है कि नक्सलवाद लगभग समाप्त हो चुका है। लेकिन बीते सालों में सुकमा, बीजापुर और दंतेवाड़ा में हुए हमलों में दर्जनों जवान शहीद हुए। 2023 में ही 25 से अधिक सुरक्षाकर्मी मारे गए। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या आतंक और उग्रवाद वास्तव में समाप्त हो रहे हैं या फिर हम आंकड़ों और भ्रम के चक्रव्यूह में फंस गए हैं?
हमलों से पहले के बजाय बाद की सक्रियता ?
हमारी सबसे बड़ी विफलता यही है कि हम हर आतंकी हमले के बाद ही सक्रिय होते हैं। पहले हम चुप रहते हैं, फिर हमला होता है, उसके बाद मुठभेड़, समीक्षा बैठकें, हाई लेवल इंटेलिजेंस रिपोर्ट्स और फिर वही ढर्रा। अगर हम इन घटनाओं को केवल ‘एक्सेप्शन’ मानकर चलते रहेंगे, तो फिर यह ’एक्सेप्शन’ ही नया नॉर्म बन जाएगा। सुरक्षा को केवल सेना और पुलिस की जिम्मेदारी मान लेना भी एक बड़ी भूल है। इसके लिए एक समग्र दृष्टिकोण अपनाना होगा जिसमें खुफिया प्रणाली की जवाबदेही, स्थानीय नागरिकों की भागीदारी, राजनीतिक संवाद, और डिजिटल निगरानी तंत्र की मजबूती शामिल हो।
स्थानीय नेतृत्व की भागीदारी जरूरी
घाटी के हालात तब तक नहीं सुधर सकते जब तक वहां राजनीतिक निर्वात बना रहेगा। स्थानीय नेतृत्व की भागीदारी और विश्वास बहाली के बिना आतंकवाद से लड़ाई एकतरफा रह जाएगी। यह आवश्यक है कि लोकतांत्रिक संस्थाएं फिर से सक्रिय हों, जनता की आकांक्षाएं सुनी जाएं और आतंकवादियों के प्रचार को चुनौती दी जाए। इंटरनेट और सोशल मीडिया के जरिए चल रहे कट्टरपंथी विचारों को काउंटर करने की रणनीति विकसित करनी होगी।
पहलगाम का हमला इस बात की गवाही देता है कि आतंकवाद ने भले ही अपना रूप बदला हो, लेकिन उसकी मौजूदगी अब भी उतनी ही खतरनाक है। इस हमले में मारे गए निर्दोष पर्यटक केवल एक संख्या नहीं, बल्कि वे हमारी सामूहिक लापरवाही का प्रतीक हैं। यदि हम अब भी नहीं चेते, तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आने वाले समय में आतंकवाद और भी अधिक भयावह रूप में लौट सकता है। यह वक्त बयान देने का नहीं, बल्कि सख्त आत्ममंथन और निर्णायक कार्रवाई का है। |