आपदाओं में लापता लोग जिन्दा नहीं मगर मृत भी नहीं
Natural disasters in the Himalayas are often measured by the number of lives lost. Yet, behind every flood, landslide, or cloudburst lies an even more haunting reality—the missing. They are neither alive nor legally dead, suspended in a limbo that prolongs the agony of their families. In states like Uttarakhand, Himachal Pradesh, and Jammu & Kashmir, the count of missing persons frequently surpasses confirmed deaths. At the same time, statistics record fatalities, the silent crisis of those who vanish without a trace remains largely unaddressed. Families are left battling uncertainty, legal hurdles, and economic deprivation for years, forced to wait seven long years before the missing can be officially declared dead. This unresolved human tragedy exposes deep gaps in India’s disaster management and legal frameworks, demanding urgent reforms and compassionate policies.
-जयसिंह रावत
हाल ही में उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में बादल फटने , त्वरित बाढ़ और भूस्खलन की प्राकृतिक आपदा ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि प्राकृतिक आपदाएं केवल मौतों तक सीमित त्रासदी नहीं होतीं, बल्कि उससे भी बड़ी चुनौती उन लोगों की होती है जो लापता हो जाते हैं और जीवित न होते हुए भी मृत नहीं माने जाते हैं । इस मानसून सीजन में मध्य सितम्बर तक जम्मू-कश्मीर में बाढ़ और भूस्खलन से 40से अधिक मौतों की पुष्टि हो चुकी है, जबकि करीब 45 लोग अब भी लापता हैं। इसी तरह उत्तराखंड के धराली में अचानक आई फ्लैश फ्लड में लगभग 100 लोग लापता हुए, जिनमें से केवल 4 शव बरामद किए जा सके। हिमाचल प्रदेश के कुल्लू और मंडी जिलों में भी 56 मौतों की पुष्टि और दर्जनों लापता लोगों के मामले सामने आए। इस साल प्राकृतिक आपदाओं का तो रिकॉर्ड ही टूट गया। हर एक आपदा में जितने लोगों के मरने की खबर आती है उससे अधिक लोग लापता बताये जाते हैं।ये हालिया घटनाएं केवल हिमालयी राज्यों की नाजुक भौगोलिक स्थिति की ओर इशारा नहीं करतीं, बल्कि उस बड़े कानूनी और मानवीय संकट की ओर भी ध्यान खींचती हैं, जिसमें लापता व्यक्तियों के परिवारों को सालों तक पीड़ा और असमंजस झेलना पड़ता है।
हिमालयी राज्यों की संवेदनशीलता
हिमालयी क्षेत्र और अब ख़ास कर हिमालय क हिमालय का पश्चिमी हिस्सा अपनी भौगोलिक और जलवायु विशेषताओं के कारण आपदा-प्रवण है। मानसून के महीनों में भारी बारिश से भूस्खलन, बादल फटना और ग्लेशियर झील फटने जैसी घटनाएं आम हो गई हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2025 में 18 सितम्बर तक उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदाओं में 103 लोगों की मौत और 110 हो गयी। धराली में इतनी बड़ी आपदा के बाद अब तक केवल 4 शव मिले हैं जिन्हें कानून मृत मानता है, बाकी 67 लोग लापता बताये गए हैं। वहां लापता लोगों की सही संख्या बताना मुश्किल है, उस समय वहाँ बड़ी संख्या में नेपाली मजदूर भी थे।हिमाचल में भी मृतकों से अधिक लापता मामले दर्ज हुए। 2023 में सिक्किम में ग्लेशियर झील फटने से 74 मौतें और 101 लोग लापता हुए, बाद में इनमें से 79 को मृत घोषित किया गया। फरबरी 2021 में चमोली आपदा में 200 से अधिक मौतें और 136 लोग लापता घोषित हुए। 2013 की केदारनाथ आपदा में 580 मौतें दर्ज हुईं, लेकिन लगभग 5000 से अधिक लोग लापता बताये गए, जिनमें से अधिकांश को कभी खोजा नहीं जा सका। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टों के अनुसार भारत में हर साल बाढ़ और भूस्खलन से औसतन एक हजार से अधिक मौतें होती हैं, लेकिन लापता व्यक्तियों का अलग डेटा व्यवस्थित रूप से दर्ज नहीं किया जाता। विशेषज्ञ मानते हैं कि मौतों की संख्या से 20 से 50 प्रतिशत अधिक लोग लापता रहते हैं, क्योंकि शव बह जाते हैं या मलबे में दबे रह जाते हैं।
कानूनी पेचीदगी और मुआवजे की बाधा
भारत में लापता व्यक्तियों को मृत घोषित करने का आधार भारतीय साक्ष्य अधिनियम 2023 की धारा 108 है। इस कानून के अनुसार यदि कोई व्यक्ति सात वर्षों तक लापता है और उसकी कोई जानकारी नहीं मिलती, तभी उसे कानूनी रूप से मृत माना जा सकता है। यह प्रावधान सामान्य परिस्थितियों में उपयोगी है, लेकिन प्राकृतिक आपदाओं के मामलों में यह पीड़ित परिवारों के लिए बड़ी बाधा बन जाता है। मुआवजा वितरण में देरी होती है क्योंकि आपदा राहत कोष से सहायता केवल मृतकों के परिजनों को मिलती है। लापता व्यक्तियों के परिवारों को सात वर्ष इंतज़ार करना पड़ता है। मृत्यु प्रमाण-पत्र न मिलने से संपत्ति का हस्तांतरण, बीमा क्लेम, पेंशन या सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता। विधवा पेंशन, अनुकंपा नौकरी या बच्चों की छात्रवृत्ति जैसी सुविधाएं भी नहीं मिल पातीं। गरीब परिवार आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा में धकेल दिए जाते हैं। यही कारण है कि हिमाचल, उत्तराखंड और सिक्किम जैसे राज्यों में मांग उठ रही है कि आपदाओं में लापता व्यक्तियों को शीघ्र मृत घोषित किया जाए।
अपवाद और उदाहरण
कुछ मामलों में सरकार ने अपवादस्वरूप सात वर्ष से पहले मृत घोषित करने का रास्ता अपनाया है। 2013 केदारनाथ आपदा में हजारों लापता लोगों को मात्र एक वर्ष के भीतर मृत घोषित कर दिया गया था। 2023 सिक्किम आपदा में भी राज्य सरकार ने विशेष आदेश के तहत लापता लोगों को जल्दी मृत मानकर मुआवजा दिया। लेकिन यह व्यवस्था अस्थायी है और राष्ट्रीय स्तर पर कोई स्थायी नीति मौजूद नहीं है।
जलवायु परिवर्तन और बढ़ता खतरा
वैज्ञानिकों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन हिमालयी आपदाओं की आवृत्ति और तीव्रता दोनों बढ़ा रहा है। 1951 से 2020 तक उत्तराखंड में औसत वर्षा 14 प्रतिशत बढ़ी है, लेकिन यह वृद्धि सामान्य वर्षा के रूप में नहीं, बल्कि अत्यधिक बारिश के रूप में दर्ज हो रही है। अंतरराष्ट्रीय शोध बताते हैं कि हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियर पिघलने की दर दोगुनी हो गई है, जिससे ग्लेशियर झील फटने का खतरा बढ़ रहा है। इसी कारण आपदाओं में लापता व्यक्तियों की संख्या आने वाले वर्षों में और बढ़ सकती है।
विदेशों से सीख और सुधार की ज़रूरत
कई देशों में आपदाओं में लापता व्यक्तियों को जल्दी मृत घोषित करने के कानूनी प्रावधान हैं। जापान में भूकंप और सुनामी जैसी आपदाओं में लापता लोगों को एक वर्ष में मृत मानने की प्रक्रिया है। नेपाल ने 2015 के भूकंप के बाद सरकार ने विशेष अध्यादेश लाकर लापता लोगों को मृत घोषित किया। भारत में भी इसी तरह की व्यवस्था लागू करने की ज़रूरत है, ताकि पीड़ित परिवारों को जल्द न्याय मिल सके।
विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत को आपदा प्रबंधन कानूनों में बदलाव करना चाहिए। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम में संशोधन कर यह प्रावधान किया जाए कि आपदा में लापता व्यक्तियों को एक से दो वर्ष के भीतर मृत घोषित किया जा सके। राज्यों को विशेष परिस्थितियों में गजट नोटिफिकेशन द्वारा त्वरित घोषणा का अधिकार दिया जाए। लापता व्यक्तियों का केंद्रीकृत डिजिटल रजिस्टर बनाया जाए, जिसमें खोज और राहत की जानकारी नियमित रूप से अपडेट हो। सात वर्ष तक इंतज़ार करवाने के बजाय तुरंत अंतरिम मुआवजा और सामाजिक सुरक्षा सुविधाएं दी जाएं।
अधूरी कहानियाँ, अधूरा न्याय
प्राकृतिक आपदाओं में लापता व्यक्ति केवल एक संख्या नहीं, बल्कि हर परिवार की अधूरी कहानी है। उनके परिजन न तो ठीक से शोक मना पाते हैं और न ही कानूनी व आर्थिक राहत हासिल कर पाते हैं। उत्तराखंड, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर की हालिया त्रासदियों से यह स्पष्ट है कि लापता व्यक्तियों की समस्या मौतों से भी कहीं अधिक जटिल और गंभीर है। सरकार को चाहिए कि आपदा प्रबंधन कानूनों में सुधार कर इस दिशा में ठोस कदम उठाए। लापता व्यक्ति की कानूनी पहचान जितनी जल्दी सुनिश्चित होगी, उतनी जल्दी प्रभावित परिवार सामान्य जीवन की ओर लौट सकेंगे। आपदाओं से होने वाला दुःख शायद टाला न जा सके, लेकिन कानून और नीति के स्तर पर संवेदनशीलता दिखाकर उस दुःख को कम ज़रूर किया जा सकता है।
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About the Author:
Jai Singh Rawat is a senior journalist, author of several books and commentator on Himalayan affairs. With decades of experience in reporting on environment, politics, and society, he is known for his insightful analysis of Uttarakhand and the wider Himalayan region.–Admin

