जल दिवस विशेष 22 मार्च विशेष : अतीत की गोद में सोए तालाब और बावड़ियाँ: बस पानी ही नहीं, कहानियों का खजाना
If we consider ponds and step-wells merely as water storage spaces, we might not be doing them justice. They are not just sources of water but living witnesses to centuries of stories, mysteries, traditions, and folklore. These ancient water structures are like pages of history where time has left its imprints. Now, as we struggle with water scarcity, their importance has grown even more. Instead of relying solely on modern tankers and borewells, if we revive these stepwells and ponds, future generations might appreciate our efforts (and perhaps sit by these waters to create their own stories). Ponds and stepwells have been an integral part of our historical and cultural landscape. They were not only means of water conservation but also centers of community life, art, architecture, and spiritual activities. Today, water scarcity has become a serious issue due to climate change, uncontrolled urbanization, and excessive groundwater extraction. In this situation, the restoration and conservation of ancient water structures like ponds and step-wells have become crucial. These structures were part of our ancestors’ remarkable water management system. Given the current water crisis, reviving and preserving them should be our priority. It will not only enhance water availability but also safeguard our cultural heritage. With collective efforts, we can breathe new life into these historic water sources and ensure water conservation for future generations.
—डॉ. सत्यवान सौरभ
अतीत की यादों में समाये तालाब और बावड़ियाँ केवल जल-स्रोत नहीं थे, बल्कि सांस्कृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक धरोहर का प्रतीक भी थे। ये जल संरचनाएँ प्राचीन भारतीय समाज की जल प्रबंधन प्रणाली का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा थीं, जो हमें हमारे पूर्वजों की बुद्धिमत्ता और पर्यावरण के प्रति उनके सम्मान की याद दिलाती हैं। तालाब गाँवों और नगरों के जीवन का केंद्र हुआ करते थे। वर्षा जल संचयन, कृषि सिंचाई, मवेशियों की प्यास बुझाने और सामाजिक मेलजोल के लिए इनका उपयोग किया जाता था। तालाबों के किनारे मंदिर, घाट और धर्मशालाएँ बनाई जाती थीं, जहाँ लोग आध्यात्मिक शांति प्राप्त करने आते थे। कई स्थानों पर ये तालाब त्योहारों और मेलों का केंद्र भी बनते थे। प्राचीन भारत में जल को केवल एक संसाधन नहीं, बल्कि पूजनीय तत्व माना जाता था। इसलिए, जल स्रोतों को संरक्षित करने के लिए वैज्ञानिक और कलात्मक दृष्टिकोण अपनाया गया। राजाओं, रानियों, समाजसेवियों और मंदिर समितियों ने बड़े पैमाने पर तालाब और बावड़ियों का निर्माण कराया। इनका उद्देश्य जल संचयन के साथ-साथ सामाजिक समृद्धि और आध्यात्मिक शांति को बढ़ावा देना भी था। पुराने तालाबों के पास बैठकर अगर आप ज़रा ध्यान दें, तो आपको उनकी लहरों में इतिहास की हलचल महसूस होगी। कभी ये गाँव-शहरों की जान हुआ करते थे। गाँवों में तालाब के किनारे बुज़ुर्ग किस्से सुनाते, बच्चे खेलते और महिलाएँ पानी भरते हुए अपनी कहानियों की गहराइयों में खो जातीं। ये सिर्फ़ जल संरचनाएँ नहीं थीं, बल्कि सामाजिक मेलजोल के सबसे अहम केंद्र थे।
बावड़ियाँ विशेष रूप से स्थापत्य कला का बेहतरीन उदाहरण थीं। इनका निर्माण इस प्रकार किया जाता था कि गर्मी के मौसम में भी पानी ठंडा बना रहे। राजस्थान और गुजरात में बनी बावड़ियाँ आज भी अपनी जटिल नक्काशी, मेहराबों, स्तंभों और मूर्तियों के कारण आकर्षण का केंद्र बनी हुई हैं। बावड़ियाँ (सीढ़ीदार कुएँ) विशेष रूप से पश्चिमी और मध्य भारत में लोकप्रिय थीं। राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश में अनेक प्राचीन बावड़ियाँ देखने को मिलती हैं, जिनकी स्थापत्य कला अद्भुत होती थी। ये केवल जल संग्रहण का साधन नहीं थीं, बल्कि गर्मियों में ठंडी छाँव में बैठने और यात्रियों के लिए विश्राम स्थल का कार्य भी करती थीं। प्रसिद्ध बावड़ियों में चाँद बावड़ी (अभनेरी, राजस्थान) और रानी की वाव (पाटण, गुजरात) अपनी अद्वितीय सुंदरता के लिए प्रसिद्ध हैं। तालाब और बावड़ियाँ जल संचयन और भूजल पुनर्भरण (Groundwater Recharge) का महत्त्वपूर्ण माध्यम थीं। जलवायु परिवर्तन और जल संकट के इस दौर में यदि हम इन पारंपरिक जल स्रोतों का पुनर्जीवन करें, तो यह न केवल भूजल स्तर को बढ़ाने में मदद करेगा, बल्कि बाढ़ जैसी समस्याओं को कम करने में भी सहायक होगा। आधुनिक शहरीकरण और बढ़ती उपेक्षा के कारण कई तालाब और बावड़ियाँ सूख चुके हैं या अतिक्रमण का शिकार हो गए हैं। कई जल स्रोत गंदगी और कचरे से भर चुके हैं, जिससे न केवल उनका ऐतिहासिक महत्त्व समाप्त हो रहा है, बल्कि पर्यावरण पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। सरकार और स्थानीय समुदायों को मिलकर पुराने जल स्रोतों की सफ़ाई करनी चाहिए। पारंपरिक जल स्रोतों के संरक्षण के लिए ठोस कानूनी नीतियाँ बनाई जानी चाहिए। गांवों और शहरों में सामुदायिक प्रयासों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ताकि लोग इन धरोहरों को संजोने में सक्रिय भाग लें। इन ऐतिहासिक स्थलों को पर्यटन के केंद्र के रूप में विकसित किया जा सकता है, जिससे लोग इनके महत्त्व को समझें और संरक्षण के लिए प्रेरित हों।
वर्तमान में कई शहर और गाँव पानी की कमी का सामना कर रहे हैं। भूजल स्तर तेजी से नीचे जा रहा है क्योंकि वर्षा जल का संचयन सही तरीके से नहीं हो रहा है। यदि तालाबों और बावड़ियों को पुनर्जीवित किया जाए, तो वे भूजल को फिर से भरने में मदद कर सकते हैं, जिससे नदियों और कुओं का जल स्तर संतुलित रहेगा। कई क्षेत्रों में अत्यधिक वर्षा के कारण बाढ़ की समस्या उत्पन्न हो जाती है, जबकि अन्य क्षेत्रों में सूखा पड़ता है। यदि पारंपरिक जल स्रोतों का संरक्षण किया जाए, तो वर्षा जल को संग्रहित करके सूखे के दौरान इसका उपयोग किया जा सकता है। साथ ही, यह जल निकासी की भी एक प्रभावी प्रणाली बन सकती है। तालाब और बावड़ियाँ न केवल जल का स्रोत हैं, बल्कि स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने में भी मदद करते हैं। ये जलाशय पक्षियों, मछलियों और अन्य जलीय जीवों के प्राकृतिक आवास होते हैं। यदि इन्हें पुनर्जीवित किया जाए, तो जैव विविधता को भी संरक्षित किया जा सकता है। प्राचीन बावड़ियाँ और तालाब न केवल जल संरचनाएँ हैं, बल्कि वे हमारी सांस्कृतिक विरासत का भी एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं। आज कई बावड़ियाँ और तालाब उपेक्षित पड़े हैं या कचरे से भर चुके हैं। इन्हें साफ़ कर पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है, जिससे उनकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहचान बनी रहे। यदि तालाब और बावड़ियों को फिर से उपयोग में लाया जाए, तो ग्रामीण और शहरी समुदायों को इससे सीधा लाभ मिलेगा। वे खेती, पशुपालन और दैनिक जीवन में जल संकट से बच सकेंगे। इसके लिए स्थानीय लोगों की भागीदारी भी सुनिश्चित करनी होगी ताकि वे स्वयं इनके संरक्षण की जिम्मेदारी लें।
तालाब और बावड़ियाँ हमारे पूर्वजों की दूरदर्शिता और कुशल जल प्रबंधन प्रणाली का प्रमाण हैं। यदि हम इन्हें पुनर्जीवित करें, तो यह पर्यावरण, समाज और अर्थव्यवस्था—तीनों के लिए लाभकारी होगा। हमें अपने अतीत से सीख लेते हुए जल संरक्षण को अपनी प्राथमिकता बनानी चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी इन अद्भुत संरचनाओं का लाभ उठा सकें। आज के समय में कई तालाब और बावड़ियाँ उपेक्षा के कारण सूख गए हैं या गंदगी से भर गए हैं। शहरीकरण और जल संकट के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए इन पारंपरिक जल स्रोतों का पुनरुद्धार आवश्यक हो गया है। कई जगहों पर लोग और संगठन इन संरचनाओं को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहे हैं। तालाब और बावड़ियाँ हमारे अतीत की वह धरोहर हैं, जो हमें जल संरक्षण और सामुदायिक जीवन की महत्त्वपूर्ण सीख देती हैं। इनका संरक्षण हमारी सांस्कृतिक विरासत को संजोने के साथ-साथ भविष्य की पीढ़ियों के लिए जल संकट से निपटने में सहायक हो सकता है।