आँकड़ों के पीछे छिपा कैदियों का सच
जेल से जुड़े आँकड़ों में केवल समग्र (मैक्रो) आंकड़े नहीं, बल्कि ऐसे स्तर भी जोड़े जाने चाहिए, जैसे—जमानत मिलने के बाद भी कितने विचाराधीन कैदी जेल में पड़े रहते हैं। मौजूदा आँकड़े न तो वास्तविक परिस्थितियाँ बताते हैं और न ही जवाबदेही में मौजूद खामियों को उजागर करते हैं।
— वलय सिंह और विजय राघवन
बीते कई वर्षों से भारत के स्थानीय और विदेशी भगोड़े, ब्रिटेन, नीदरलैंड और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की अदालतों में भारत प्रत्यर्पण (एक्सट्रडिशन) के अनुरोधों को रोकने में सफल रहे हैं। इन विदेशी अदालतों में भारतीय जेलों की भीड़भाड़, चिकित्सा सुविधाओं की कमी और अन्य व्यवस्थागत कमियों का हवाला दिया जाता है, जिसके कारण प्रत्यर्पण याचिकाएँ खारिज हो जाती हैं। यदि जेलों और कैदियों से जुड़े आँकड़ों की बेहतर और अधिक ईमानदार रिपोर्टिंग हो, तो इससे न केवल कैदियों की स्थिति में सुधार होगा बल्कि समूची न्याय प्रणाली को भी लाभ मिलेगा।
प्रिजन स्टैटिस्टिक्स इंडिया (PSI) की वार्षिक रिपोर्ट जेलों और कैदियों से जुड़े आँकड़ों को प्रस्तुत करती है, लेकिन यह रिपोर्ट अत्यधिक मात्रात्मक (क्वांटिटेटिव) और स्वयं-रिपोर्टेड है। वर्ष 2023 के अंत तक देश की केंद्रीय, जिला और उप-जेलों में कुल 5.3 लाख कैदी थे, जबकि 2022 में यह संख्या 5.7 लाख थी। इस कारण राष्ट्रीय स्तर पर जेलों की औसत क्षमता उपयोग दर 131.4 प्रतिशत के ऐतिहासिक उच्च स्तर से घटकर 120 प्रतिशत पर आ गई।
इसके पीछे कई कारण रहे—जैसे जेलों की क्षमता में मामूली (लगभग 1 प्रतिशत) वृद्धि, और वर्ष 2023 में राज्य विधिक सेवा प्राधिकरणों द्वारा राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) के दिशा-निर्देशों के अनुसार जमानत पर रिहा किए जा सकने वाले विचाराधीन कैदियों की पहचान के लिए चलाया गया विशेष अभियान। इसके परिणामस्वरूप सितंबर से नवंबर 2023 के बीच 21,000 से अधिक कैदियों को रिहा किया गया। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बाद निचली अदालतों ने भी अधिक संख्या में विचाराधीन कैदियों को जमानत दी।
लेकिन PSI के आँकड़े गहराई से विश्लेषण करने में असमर्थ हैं।
उदाहरण के लिए, ऐसा कोई डेटा उपलब्ध नहीं है कि कितने विचाराधीन कैदी ऐसे हैं, जिन्हें अदालत से जमानत मिल जाने के बावजूद 24 घंटे से अधिक समय तक जेल में रखा गया। यह जानकारी आज भी आसानी से उपलब्ध नहीं है, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि जमानत आदेशों की इलेक्ट्रॉनिक प्रतियां सीधे जेल प्रशासन को भेजी जाएँ।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया है कि जिला स्तर पर विचाराधीन समीक्षा समितियाँ (UTRCs) हर तीन महीने में बैठक करें। लेकिन उपलब्ध आँकड़े बताते हैं कि ट्रायल कोर्ट, इन समितियों द्वारा सुझाए गए मामलों में से केवल 50 प्रतिशत कैदियों को ही रिहा करती हैं। महाराष्ट्र में हमारा अनुभव बताता है कि यदि जेलों में प्रशिक्षित सामाजिक कार्यकर्ता तैनात हों, तो विचाराधीन कैदियों की पहचान और उनकी रिहाई की प्रक्रिया में उल्लेखनीय सुधार संभव है।
सामाजिक कार्यकर्ता कैदियों, उनके परिवारों और प्रशासन के बीच सेतु का काम करते हैं।
उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पंजाब जैसे राज्यों में—जहाँ जेलों की आबादी सबसे अधिक है—कम से कम हर चार में से एक विचाराधीन कैदी छह महीने से लेकर दो वर्षों तक जेल में बंद रहता है।
यदि जेलों को वास्तव में सुधारगृह (Correctional Spaces) बनाना है, तो डेटा की भूमिका बेहद अहम है। PSI रिपोर्ट यह नहीं बताती कि जेल प्रशासन और विधिक सहायता संस्थाएँ भीड़ कम करने के लिए वास्तव में क्या प्रयास कर रही हैं। पेशेवर सामाजिक कार्य, काउंसलिंग सेवाएँ, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, पुस्तकालय, व्यावसायिक प्रशिक्षण, तथा शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं में निवेश करके ही ‘जेलों को गोदाम’ बनने से रोका जा सकता है।
यहाँ “निवेश” शब्द जानबूझकर इस्तेमाल किया गया है, क्योंकि देश के 50 प्रतिशत से अधिक विचाराधीन कैदी 18 से 30 वर्ष की आयु वर्ग में हैं। इसके अलावा, 60 प्रतिशत से अधिक विचाराधीन कैदी दसवीं कक्षा से कम शिक्षित हैं या पूरी तरह निरक्षर हैं।
वर्ष 2023 में कैदियों पर खर्च किए गए लगभग ₹2,000 करोड़ में से मात्र 0.5 प्रतिशत राशि शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण पर खर्च की गई, जबकि 54.6 प्रतिशत धनराशि केवल भोजन पर खर्च हुई। संसाधनों की कमी के बावजूद कुछ जेल विभागों ने प्रतिष्ठित सामाजिक संगठनों के साथ मिलकर शिक्षा और प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए हैं, लेकिन ये अपवाद ही हैं।
PSI के अनुसार, देश भर में लगभग 1,300 जेलों में करीब 600 गैर-सरकारी संगठन (NGOs) कार्यरत हैं। इनमें से अधिकांश गतिविधि-केंद्रित हैं, व्यक्ति-केंद्रित नहीं। न्याय व्यवस्था को ‘औपनिवेशिक सोच’ से मुक्त करने की बातों के बावजूद यह तथ्य दर्शाता है कि जेलों को सुधारगृह बनाने की दिशा में हम अभी बहुत पीछे हैं।
जेलों में मौतों के आँकड़े भी कई सवाल खड़े करते हैं।
1,724 प्राकृतिक मौतों में से 414 मौतों को ‘अन्य कारणों’ की श्रेणी में डाल दिया गया। सबसे अधिक मौतें हृदय रोग (514) और उसके बाद फेफड़ों से जुड़ी बीमारियों (276) के कारण दर्ज की गईं। 2022 में प्राकृतिक मौतों की संख्या 1,670 थी।
अप्राकृतिक मौतों के मामले में ‘अन्य’ श्रेणी और भी गंभीर हो जाती है। 2023 में ऐसी 150 मौतें दर्ज की गईं। उत्तर प्रदेश में ‘अन्य’ श्रेणी में सबसे अधिक 9 मौतें दर्ज हुईं, जबकि पंजाब और हरियाणा में 13 कैदियों की आत्महत्या दर्ज की गई।
आँकड़े तो दिए जाते हैं, लेकिन ‘अन्य’ के अंतर्गत आने वाले कारणों की स्पष्ट व्याख्या लगभग कभी नहीं की जाती। इनमें कैदियों द्वारा हत्या, बाहरी हमलों, गोलीबारी, जेल कर्मचारियों की लापरवाही या अत्याचार, दुर्घटनाएँ आदि शामिल हो सकती हैं।
लेखक जेल व्यवस्था में जवाबदेही बढ़ाने के लिए दो नए डेटा बिंदु जोड़ने का सुझाव देते हैं—
पहला, उन सजायाफ्ता कैदियों के खिलाफ दर्ज शिकायतें, जिन्हें जेल प्रशासन के सहायक के रूप में काम कराया जाता है—यह एक औपनिवेशिक व्यवस्था है, ताकि मानव संसाधनों पर खर्च कम किया जा सके।
दूसरा, प्रत्येक जेल में बोर्ड ऑफ विज़िटर्स से जुड़े गैर-सरकारी आगंतुकों की नियमित यात्राओं का डेटा। यह एक महत्वपूर्ण निगरानी व्यवस्था है, जो अधिकांश राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में निष्क्रिय पड़ी है।
PSI जेलों से जुड़े आँकड़े इकट्ठा करता है और रुझानों का विश्लेषण करता है, लेकिन इसे और गहराई तथा विस्तार के साथ काम करना होगा, ताकि केवल भीड़भाड़ और विचाराधीन कैदियों की संख्या तक सीमित बहस से आगे बढ़कर वास्तविक सुधार संभव हो सके। इसके लिए गहन और सूक्ष्म डेटा अनिवार्य है।
