Front Page

शोधकर्ताओं ने पर्यावरणीय परिवर्तनों के साथ 2500 वर्ष का मानव व्यवसाय अनुक्रमऔर समस्थानिक डेटा किया प्रस्तुत

आकृति 2 वडनगर स्थल पर ऐतिहासिक चरण से लेकर स्थानीय सी के उत्तर मध्यकालीन चरण तक का स्तर विन्यास अंकन (स्ट्रैटिग्राफी) जिसमें सांस्कृतिक चरण, रेडियोकार्बन तिथियां, प्रत्येक परत से नमूना संग्रह (लाल बिंदु) और मुद्राशास्त्रीय (न्यूमिस्मैटिक) अभिलेख दिखाए गए हैं I

 

The site of Vadnagar in the semi-arid Gujarat region witnessed mild to intense monsoon precipitation during the Historic and Medieval periods respectively and the post-medieval period (1300-1900 CE; LIA) bore a resilient crop economy based on small-grained cereals (millets; C4 plants) reflecting human adaptation in response to a protracted weakening of the summer monsoon, according to a new study. The study can help inform strategies for future climate change adaptation to it. Scientists have been tracing historical data on variations of rainfall and its consequences as such studies on changing cropping patterns, vegetation, and cultural development, during the last 2000 years. provide clues for past human responses to climate change and important lessons for modern societies in exploring possible strategies to future climate change. A team of researchers from Birbal Sahni Institute of Palaeosciences (BSIP), an autonomous institution of the Department of Science and Technology presented a circa (ca) 2500-year human occupation sequence spanning multiple environmental changes at the Vadnagar archaeological site based on archaeological, botanical, and isotopic data.

 

आकृति 3 पुरातात्विक स्थल वडनगर, गुजरात की सांस्कृतिक परतों से 3 जली हुई फसलों के अवशेष प्राप्त हुए: (ए) ऐतिहासिक चरण (200 ईसा पूर्व-500 सीई) से फसल के अवशेष मिल्रे ; (1) होर्डियम वल्गारे; (2) ट्रिटिकम एस्टिवम [अग्र भाग (वेंट्रल)]; (3) ट्रिटिकम एस्टिवम [पृष्ठ भाग (डोर्सल)]; (4) ओरिजा सैटिवा; (5) सोरघम बाइकलर; (6) लैथिरस सैटिवस; (7) गॉसिपियम एसपी; (बी) मध्यकालीन चरण (500 सीई-1300 सीई) से प्राप्त फसल अवशेष; (8) होर्डियम वल्गारे; (9) ट्रिटिकम एस्टिवम; (10) ओरिजा सैटिवा; (11) सोरघम बाइकलर; (12) लेंस क्यूलिनारिस; (13) लाइनम यूसिटाटिसिमम; (सी) मध्यकालीन चरण (1300 सीई-1900 सीई) से प्राप्त फसल अवशेष; (14) होर्डियम वल्गारे (पृष्ठ भाग -(डोर्सल) ); (15) होर्डियम वल्गारे [अग्र भाग- (वेंट्रल)]; (16) ट्रिटिकम एस्टिवम [ पृष्ठ भाग (डोर्सल)]; (17) ट्रिटिकम एस्टिवम [अग्र भाग-(वेंट्रल)]; (18) ओरिज़ा सैटिवा; (19) सोरघम बाइकलर; (20) पेनिसेटम ग्लौकम; (21)विग्ना रेडियेटा।

 

By- Usha Rawat

अर्ध-शुष्क गुजरात क्षेत्र में वडनगर के एक कार्यक्षेत्र (साइट) पर ऐतिहासिक और मध्ययुगीन काल के दौरान क्रमशः हल्की से तीव्र मॉनसून वर्षा देखी गई और मध्ययुगीन काल (1300-1900 सीई; लघु हिम युग (लिटिल आइस ऐज- एलआईए) में छोटे दानों  वाले अनाज (बाजरा; सी 4 पौधों) पर आधारित एक लचीली फसल अर्थव्यवस्था विद्यमान थी। यह एक नए अध्ययन के अनुसार, ग्रीष्मकालीन मॉनसून के लंबे समय तक कमजोर रहने की प्रतिक्रिया में मानव अनुकूलन को दर्शाता है। इस अध्ययन से भविष्य में जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन के लिए रणनीतियों को सूचित करने में सहायता मिल सकती है ।

भारतीय संदर्भ में भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसून (आईएसएम) के आवश्यक महत्व के बावजूद अतीत में इसकी परिवर्तनशीलता और प्रारंभिक सभ्यताओं पर इसके प्रभाव का पुरातात्विक संदर्भ में बड़े पैमाने पर अध्ययन नहीं किया गया है। इसके अतिरिक्त उपमहाद्वीप में ऐतिहासिक स्थलों की दुर्लभता, उनका व्यवस्थित उत्खनन और बहु-विषयक कार्य, अतीत में विशिष्ट जलवायु विसंगतियों के प्रभाव को स्पष्ट रूप से प्रदर्शित भी नहीं करते हैं। अक्षांश, ऊंचाई और समुद्र से दूरी में भिन्नता के कारण भारतीय भूभाग पर आईएसएम वर्षा की तीव्रता क्षेत्रवार भिन्न-भिन्न होती है।

वैज्ञानिक पिछले 2000 वर्षों के दौरान वर्षा की विविधता और इसके परिणामों के साथ-साथ बदलते फसल पैटर्न, वनस्पति और सांस्कृतिक विकास पर ऐतिहासिक डेटा का पता लगा रहे हैं जो जलवायु परिवर्तन के प्रति पिछली मानवीय प्रतिक्रिया के लिए कुछ संकेत देने के साथ ही भविष्य के जलवायु परिवर्तन के लिए संभावित रणनीतियों की खोज में आधुनिक समाजों के लिए महत्वपूर्ण सबक प्रदान करते हैं।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के एक स्वायत्त संस्थान, बीरबल साहनी पुराविज्ञान संस्थान (बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट ऑफ पैलियोसाइंसेज -बीएसआईपी) के शोधकर्ताओं की एक टीम ने पुरातात्विक, वनस्पति विज्ञान के आधार पर वडनगर पुरातात्विक स्थल पर कई पर्यावरणीय परिवर्तनों को शामिल करते हुए लगभग 2500 वर्ष का मानव व्यवसाय अनुक्रम और समस्थानिक डेटा प्रस्तुत किया

क्वाटरनेरी साइंस एडवांसेज में प्रकाशित मल्टीप्रॉक्सी अध्ययन पिछले उत्तरी गोलार्ध की जलवायु घटनाओं, अर्थात् रोमन गर्म अवधि (आरडब्ल्यूपी, 250 ईसा पूर्व-400 सीई), , 800 सीई-1300 सीई) और लघु हिमयुग (लिटिल आइस एज-एलआईए, 1350 सीई-1850 सीई) मध्यकालीन गर्म अवधि (मेडीवल वार्म पीरियड- एमडब्ल्यूपी) के दौरान अर्ध-शुष्क उत्तर पश्चिम भारत में राजवंशीय परिवर्तनों (डायनेस्तिक ट्रांजिशंस और फसल कटाई की अवधि का पता लगाता है।

साइट के डेटा से संकेत मिलता है कि जलवायु बिगड़ने के दौरान भी खाद्य उत्पादन होता रहा । यह उस पूरा वानस्पतिक विज्ञान आधारित था जो पुरातात्विक सामग्री के साथ वनस्पति ज्ञान को जोड़ता है। स्थूल वानस्पतिक अवशेषों के अलावा, सूक्ष्म वानस्पतिक (फाइटोलिथ) और अनाज-कणों एवं चारकोल के समस्थानिकों (आइसोटॉप्स) तथा रेडियोकार्बन डेटिंग को भी इस अध्ययन में शामिल किया गया था। पुरातात्विक बस्तियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की क्षमता है क्योंकि यह क्षेत्र भारत में दक्षिण-पश्चिम मानसूनी गतिविधि की उत्तर-पश्चिमी परिधि में स्थित होने के कारण तीव्र जलवायु (मानसूनी) परिवर्तनों पर प्रतिक्रिया देने के लिए जाना जाता है। इसके अलावा, पूर्वजों द्वारा उपयोग किए जाने वाले पौधे उनकी पसंद, गतिविधियों और पारिस्थितिक स्थितियों का प्रत्यक्ष प्रमाण प्रदान करते हैं।

संयुक्त विश्लेषण ने बढ़ती वर्षा और वैश्विक स्तर पर प्रभावित कमजोर मॉनसून (सूखा) की अवधिके परिप्रेक्ष्य में पिछली दो सहस्राब्दियों के दौरान खाद्य फसलों के विविधीकरण और लचीली सामाजिक-आर्थिक प्रथाओं के आकलन को सक्षम किया है। इन परिणामों का पिछले जलवायु परिवर्तनों और ऐतिहासिक काल के अकालों को जोड़ने वाले अध्ययनों पर प्रभाव पड़ता है और जो यह दर्शाता है कि ये अकेले ही जलवायु में गिरावट के बजाय आंशिक रूप से संस्थागत कारकों से प्रेरित थे।

प्रकाशन लिंक: https://doi.org/10.1016/j.qsa.2023.100155

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!