पहाड़ों में धान की रोपाई की सामूहिकता की समृद्ध परम्परा
-महिपाल गुसाईं-
उत्तराखंड के पर्वतीय गांवों में सामूहिक रूप से धान की रोपाई की समृद्धशाली परंपरा आज भी बदस्तूर कायम है। सामूहिकता का लाभ यह है कि ग्रामीण महिलाएं बारी-बारी से एक-दूसरे के खेतों में रोपाई करती हैं। इससे जहां उनका काम का आसान हो जाता है, वहीं आपसी सद्भाव भी बना रहता है। पहाड़ में सिंचाई की सुविधा बहुत अधिक नहीं है किंतु नदी किनारे बसे गांवों में धान की खेती निरंतर हो रही है। नदी, नालों में पर्याप्त पानी होने के कारण इन दिनों निचले इलाकों में धान की रोपाई जोर शोर से चल रही है। नंदानगर प्रखंड के सेरा गांव में आज विधिवत मुहूर्त के साथ धान की रोपाई प्रमुख कृषि उत्सव के रूप में हुई।
लोक में प्रचलित अनेक कथानकों में धान की रोपाई का उल्लेख आता है। एक कथानक जीतू बगड्वाल का भी है जब छह गते आषाढ़ को जीतू हल बैल समेत समा गया था या आछरियों द्वारा हर लिया गया। कदाचित तभी से लोक विश्वास के अनुरूप रोपाई का दिन वार निकाला जाता है।
सेरा गांव की 78 वर्षीय वृद्धा श्रीमती रामी देवी ने आज रोपाई शुरू होने से पहले अनेक परंपराओं पर चर्चा की। उन्होंने बताया कि पुरानी परंपरा है कि आषाढ़ के महीने दो गते को कभी धान की रोपाई शुरू नहीं की जाती और नौ गते को कभी समापन नहीं किया जाता। वे बताती हैं कि नौ गते आषाढ़ को रोपाई के समय जीतू अपने बैलों की जोड़ी के साथ ही शायद धरती में समा गया था, अथवा आछरियों ने हर लिया था। शायद तभी से लोक समाज में यह विश्वास घर कर गया हो।
बहरहाल शुक्रवार को सेरा गांव में कुल पुरोहित द्वारा बताए गए मुहूर्त के अनुसार सबसे पहले भूम्याल देवता की पूजा की गई। इस मौके पर भूम्याल के पश्वा ने अवतरित होकर ग्रामीणों को न सिर्फ सुख समृद्धि का आशीर्वाद दिया बल्कि साथ ही आने वाले मौसम के बारे में भी संकेत दिया। भूम्याल देवता से मनौती मांगी गई कि गांव में सभी नागरिक सुखी रहें और खेती किसानी निर्विघ्न रहे। उसके बाद नर नारी सामूहिक रूप से रोपाई में जुट गए।
सामूहिकता के साथ हुई रोपाई में पार्वती देवी, अनीता देवी, शारदा देवी, सुशीला देवी, सरोजनी देवी, कुमारी नेहा, कुमारी नीमा, रामा देवी, देवकी देवी, रामी देवी, राजेंद्र सिंह गुसाईं, प्रकाश गुसाईं, राजेंद्र सिंह नेगी, सुजान सिंह नेगी, प्रदीप सिंह नेगी तथा कई अन्य लोग शामिल थे।
खास बात यह है कि सामूहिक रूप से होने वाले इस कृषि उत्सव में जिस परिवार के खेतों में रोपाई होती है, खाने पीने का प्रबंध भी वही परिवार करता है। पहले पारंपरिक भोजन ही इस दौरान परोसा जाता था लेकिन अब उपलब्धता के अनुसार अनेक अन्य पकवान भी परोसे जाने लगे हैं और बोझिल माने जाने वाले इस कृषि कार्य को सहजता के साथ उत्सव के रूप में मनाया जाने लगा है।
इसके विपरीत ऊंचाई वाले इलाकों में खेती किसानी आसमान की दया और वन्य जीवों की कृपा पर निर्भर है, इस कारण वहां रोपाई तो संभव है नहीं, इस कारण कृषि के साथ उत्सवधर्मिता की जगह भी नहीं बन पाई। विडंबना यह है कि पर्वतीय क्षेत्रों में ज्यादातर खेती उखड़ ही है इस कारण वहां कृषि कार्य भगवान भरोसे ही रह जाता है।