हिमालय की तलहटी में बढ़ गया एयरोसोल ; अतिवृष्टि और बाढ़ जैसे चरम मौसम के खतरे बढ़े
The study by the Indian Space Research Organization’s (ISRO) Physical Research Laboratory using the ground-based observations of aerosol characteristics including radiative forcing data suggests that aerosol levels have increased specifically over the Indo-Gangetic Plain (IGP) and the Himalayan foothills and have implication which may lead to increased temperatures, altered rainfall patterns and accelerated melting of glacier ice and snow.The results indicate that aerosols can play a vital role in exciting HP events over the Himalayas in monsoon season. Thus, aerosols including the chemistry are essential to consider for forecasting HP events over the Himalayan region in the regional modelling studies. The said study reports that the aerosol radiative forcing efficiency (ARFE) in the atmosphere is clearly high over the IGP and the Himalayan foothills (80–135 Wm−2 per unit aerosol optical depth (AOD)), with values being greater at higher elevations. The aerosol-induced atmospheric warming and deposition of light-absorbing carbonaceous aerosols on snow and ice are reported to be the primary reasons for the current and future accelerated glacier and snow melt.
–जयसिंह रावत
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला द्वारा किए गए अध्ययन से पता चला है कि एयरोसोल का स्तर विशेष रूप से इंडो-गैंगेटिक मैदान (आईजीपी) और हिमालय की तलहटी में बढ़ गया है। एयरोसोल की बढ़ोत्तर से तापमान बढ़ने, मौसम की चरम स्थिति में वर्षा का पैटर्न बदलने और ग्लेशियर की बर्फ तेजी से पिघलने से उत्पन्न खतरों की संभावनाएं बढ़ गयी है। इसरो के अध्ययन में यह भी बताया गया है कि वायुमंडल में एयरोसोल रेडिएटिव फोर्सिंग दक्षता (एआरएफई) आईजीपी और हिमालय की तलहटी में स्पष्ट रूप से अधिक है जिसका मान अधिक ऊंचाई पर उच्च है। अध्ययन में एयरोसोल-प्रेरित वायुमंडलीय तापन और बर्फ पर प्रकाश में डूबा कार्बनयुक्त एरोसोल का जमाव वर्तमान और भविष्य में त्वरित ग्लेशियर और बर्फ पिघलने का प्राथमिक कारण बताया गया है। यह भी बताया गया है कि बीसी एयरोसोल पूरे वर्ष हिमालय सहित सिंधु-गंगा के मैदान में एरोसोल अवशोषण पर हावी रहता है और निचले वायुमंडल की कुल वार्मिंग में अकेले एरोसोल का योगदान 50 प्रतिशत से अधिक है, जो कि खतरे का ही एक संकेत है।
बादल के बीज होते हैं एयरोसोल
मौसम विज्ञान के अनुसार वायुमंडल में एयरोसोल का सामान्य से अधिक बढ़ना जलवायु को प्रभावित करता है। क्योंकि एयरोसोल को बादल के बीज भी कहा जाता है इसलिये इससे बारिश और हिमपात सीधे रूप से प्रभावित होता है। बादल आमतौर पर एयरोसोल नामक छोटे वायु कणों के आसपास बनते हैं। बादल पानी की बूंदों, बर्फ के क्रिस्टल या दोनों के मिश्रण से बनते हैं। जब सूर्य पृथ्वी की सतह को गर्म करता है, तो महासागरों और झीलों, मिट्टी और पौधों का पानी तरल से वाष्प में बदल जाता है। जैसे ही हवा वायुमंडल में ऊपर उठती है, वह ठंडी हो जाती है और उतनी जलवाष्प धारण नहीं कर पाती। यदि ठंडी हवा सही प्रकार के एयरोसोल कणों का सामना करती है, तो जल वाष्प एयरोसोल कणों पर बादल की बूंदों या बर्फ के क्रिस्टल के रूप में एकत्र हो सकता है। बादल की बूंदें या बर्फ के क्रिस्टल बनेंगे या नहीं यह हवा के तापमान और एयरोसोल के प्रकार पर निर्भर करता है। कुछ कण दूसरों की तुलना में बादलों के लिए बेहतर बीज होते हैं। जब कई नई बादल बूंदें या बर्फ के क्रिस्टल बढ़ते हैं, तो एक बादल बनता है। समुद्री नमक के कण पानी की बूंदों के लिए अच्छे बीज होते हैं, जबकि धूल के कण अक्सर बर्फ के क्रिस्टल के लिए अच्छे बीज होते हैं।
एयरोसोल वृद्धि से मौसम की चरम स्थितियां पैदा होती है
एयरोसोल के स्तर में वृद्धि से मौसम की चरम स्थितियां पैदा हो सकती है। हानिकारक रसायनों वाले एयरोसोल, जब वायुमंडल में छोड़े जाते हैं, तो वे वायु प्रदूषण कर सकते हैं। उनमें मौजूद प्रदूषक तत्व धुंध, अम्लीय वर्षा और ओजोन परत के क्षरण में योगदान करते हैं। कुछ एयरोसोल, जैसे क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) युक्त, ओजान परत को क्षति पहुंचाते हैं। कुछ एयरोसोल, जिन्हें ब्लैक कार्बन या कालिख के रूप में जाना जाता है, सूर्य के प्रकाश को अवशोषित कर सकते हैं और वातावरण को गर्म करने में योगदान कर सकते हैं।
चरम स्थितियों में जाती हैं हजारों जानें
मौसम की चरम स्थितियों में सूखा, आंधी, शीतलहर, बाढ़, चक्रवात, अति गर्म हवायें, ओला वृष्टि, कोहरा, आसमानी बिजली गिरना, बर्फबारी, एवलांच, बहुत तेज हवा और अत्यधिक वर्षा शामिल हैं। मौसम की चरम स्थिति के खतरों का अंदाज लगाने के लिये मौसम विभाग द्वारा जारी वर्ष 2022 के जलवायु सारांश पर गौर करना समीचीन होगा। इस सारांश रिपोर्ट के अनुसार देश का औसत तापमान, सन 1981-2010 के औसत से 0.51 डिग्री सेल्शियस (हि.से.) अधिक रहा। यह साल 1901 से अब तक का पाचवाँ सबसे गर्म साल था। मानसून पूर्व ऋतु के औसत तापमान में वृद्धि (1.06 डि.से.), और उत्तर-पूर्व मानसून ऋतु के औसत तापमान में वृद्धि (जमा 0.52 डि.से.) वार्षिक तापमान में वृध्दि का मुख्य कारण माना गया। अब तक के 5 सबसे ऊष्ण साल 2016, 2009, 2017, 2010 और 2022 रहे। भारी वर्षा और बाढ़ संबंधी घटनाओं से देश में करीब 1040 से ज्यादा लोगों की मृत्यु की सूचना प्राप्त हुई। आकाशीय बिजली गिरने के साथ तूफान से 1480 में ज्यादा लोगों की मृत्यु और हिमपात की वजह से जम्मू-कश्मीर और लद्दाख, उत्तराखण्ड, अरुणाचल और हिमाचल प्रदेल से 37 लोगों की मृत्य हुयी। आंधी की वजह से उत्तर प्रदेश से 32 उष्ण लहर की वजह से महाराष्ट्र, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और झारखण्ड से 30 लोगों की मृत्यु की सूचना मिली। सूखे की स्थिति में भी एयरोसोल की भूमिका होती है।
सौ सालों में अतिवृष्टि घटनाओं में 75 प्रतिशत वृद्धि
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा भी 2020 में भारतीय क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का आंकलन किया गया। जिसके अनुसार 1901-2018 के दौरान भारत के औसत तापमान में लगभग 0.7 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। इसी तरह 1950-2015 के दौरान दैनिक वर्षा चरम सीमाओं (वर्षा तीव्रता 150 मिमी प्रति दिन) की आवृत्ति में लगभग 75 प्रतिशत की वृद्धि हुई। अध्ययन के अनुसार 1951-2015 के दौरान भारत में सूखे की आवृत्ति और स्थानिक सीमा में काफी वृद्धि हुई है। यही नहीं उत्तरी हिंद महासागर में समुद्र के स्तर में वृद्धि पिछले ढाई दशकों (1993-2017) में प्रति वर्ष 3.3 मिमी की दर से हुई और 1998-2018 के मानसून के बाद के मौसम में अरब सागर पर गंभीर चक्रवाती तूफानों की आवृत्ति में वृद्धि हुई है।
चिन्ताजनक हैं वैज्ञानिक अध्ययन
हमारे वैज्ञानिक संस्थानों द्वारा किये गये ये अध्ययन वास्तव में काफी चिन्ताजनक इसलिये भी हैं कि हम अतीत में जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालयी क्षेत्र में बाढ़, सूखा और भूस्खलन जैसी कई विनाशकारी आपदाओं से दो चार हो चुके हैं। सन् 2013 में केदारनाथ और 2014 में जम्मू-कश्मीर की बाढ़ का हम नहीं भूले हैं। शीतकाल में हिमालयी नदियां सिकुड़ जाती है। लेकिन उसी दौरान 7 फरबरी 2021 को चमोली जिले की धौली और ऋषिगंगा की बाढ़ भयावह यादें अभी ताजा हैं। पिछले ही साल की बरसात ने हिमाचल प्रदेश पर जो आफत बरसाई है वह जलवायु परिवर्तन के खतरे का ही संकेत है। और अगर एयरोसोल के कारण स्थिति और भी खराब होती जा रही है तो इस खतरे को बेहद गंभीरता से लिये जाने की जरूरत है।