मोहन भागवत का तर्क : एक दम्पत्ति के दो नहीं तीन बच्चे होने चाहिए

–उषा रावत
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत ने 28 अगस्त 2025 को दिल्ली में आयोजित एक सम्मेलन में कहा कि “हर दंपत्ति को तीन बच्चे पैदा करने चाहिए।” यह बयान आरएसएस के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में आयोजित व्याख्यान श्रृंखला का हिस्सा था। अपने संबोधन में उन्होंने जनसांख्यिकी असंतुलन, परिवार नियोजन और सामाजिक संतुलन पर जोर देते हुए कहा कि भारत की जनसंख्या नीति का 2.1 बच्चों का सुझाव वास्तव में परिवार में तीन बच्चों का संकेत देता है। भागवत ने यह भी जोड़ा कि तीन बच्चे होने से बच्चों को सामाजिक कौशल और अहंकार प्रबंधन सीखने में मदद मिलती है, जबकि माता-पिता की मानसिक और शारीरिक सेहत पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
उनका यह बयान सोशल मीडिया और राजनीतिक हलकों में चर्चा का विषय बन गया है। आइए इस पर गहराई से नजर डालते हैं।
बयान का संदर्भ और पृष्ठभूमि
भागवत का यह वक्तव्य आरएसएस की लंबे समय से चली आ रही चिंताओं का हिस्सा है। संघ अक्सर हिंदू जनसंख्या अनुपात में गिरावट की आशंका और धर्मांतरण से जुड़े मुद्दों पर आवाज उठाता रहा है। सम्मेलन में उन्होंने चेताया कि यदि जन्म दर तीन से नीचे आती है तो जनसंख्या सिकुड़ने लगती है—एक प्रवृत्ति जो दुनिया के कई देशों में देखी जा रही है। उन्होंने धर्मांतरण को भारतीय संस्कृति से बाहर की परंपरा बताते हुए इसे जनसांख्यिकी असंतुलन का कारण भी बताया।
यह बयान ऐसे समय में आया है जब भारत की कुल प्रजनन दर (टीएफआर) लगभग 2.0 तक गिर चुकी है, जो प्रतिस्थापन स्तर (2.1) से कम है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के अनुसार, कई राज्यों में टीएफआर 1.6-1.8 तक पहुंच गई है, जबकि कुछ समुदायों में यह अभी भी अधिक है। संघ का तर्क है कि यह असमानता सामाजिक संतुलन और राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा हो सकती है।
दिलचस्प बात यह है कि भागवत का “हम दो, हमारे तीन” का नारा 1970-80 के दशक के “हम दो, हमारे दो” अभियान के विपरीत है। पहले जहां जनसंख्या विस्फोट को चुनौती माना जाता था, वहीं अब चिंता बुजुर्ग होती आबादी और श्रमबल में कमी को लेकर है। जापान, चीन और यूरोपीय देशों की तरह भारत भी ‘डेमोग्राफिक डिविडेंड’ खोने की आशंका से जूझ रहा है।
सकारात्मक पक्ष:
भागवत का बयान वैश्विक जनसांख्यिकी रुझानों से मेल खाता है। संयुक्त राष्ट्र और विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट्स कहती हैं कि 2.1 से कम टीएफआर वाले देशों में बुजुर्ग आबादी का बोझ बढ़ता है, जिससे अर्थव्यवस्था पर असर पड़ता है। भारत में युवा आबादी 2025-2030 तक चरम पर होगी, जिसके बाद इसमें गिरावट शुरू हो सकती है। तीन बच्चों की सलाह से श्रमबल का संतुलन बनाए रखने में मदद मिल सकती है।
सामाजिक दृष्टि से भी उन्होंने तर्क दिया कि तीन भाई-बहनों वाले परिवार में बच्चे साझेदारी, धैर्य और सामाजिक कौशल बेहतर सीखते हैं। उन्होंने डॉक्टरों के हवाले से इसे माता-पिता की सेहत के लिए भी लाभकारी बताया।
नकारात्मक पक्ष और आलोचनाएं:
भारत की आबादी पहले ही 1.4 अरब से अधिक है। ऐसे में तीन बच्चों की सलाह संसाधनों—जल, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार—पर दबाव बढ़ा सकती है। आलोचकों का कहना है कि यह बयान हिंदू समुदाय को संख्या बढ़ाने के लिए प्रेरित करने का प्रयास है, विशेषकर मुस्लिम समुदाय की अपेक्षाकृत ऊंची टीएफआर (2.36) को देखते हुए।
सामाजिक कार्यकर्ताओं और विपक्ष का तर्क है कि यह परिवार नियोजन के व्यक्तिगत अधिकार और महिलाओं की स्वतंत्रता को प्रभावित कर सकता है। आधुनिक समय में देर से विवाह और छोटे परिवारों का चलन महिलाओं की शिक्षा और करियर के लिए अहम माना जाता है।
राजनीतिक और सामाजिक प्रतिक्रियाएं
सोशल मीडिया पर इस बयान को लेकर मिली-जुली प्रतिक्रियाएं सामने आईं। एक्स (पूर्व ट्विटर) पर एएनआई और पीटीआई जैसी एजेंसियों द्वारा बयान को वायरल किए जाने के बाद कुछ यूजर्स ने इसे “राष्ट्रीय हित में जागरूकता का संदेश” कहा, जबकि कुछ ने व्यंग्य किया कि “अब आरएसएस परिवार नियोजन पर भी मार्गदर्शन दे रहा है।”
राजनीतिक तौर पर यह बयान भाजपा शासित राज्यों में चल रही जनसंख्या नियंत्रण नीति (जैसे उत्तर प्रदेश का दो बच्चों वाला प्रस्तावित कानून) से जुड़ता नजर आता है। हालांकि भागवत ने जातिगत आरक्षण को लेकर संतुलन बनाने की कोशिश की, जिससे विवाद कम हो।
एनडीटीवी, हिंदुस्तान टाइम्स समेत कई मीडिया संस्थानों ने इसे प्रमुखता दी। कांग्रेस और विपक्षी दलों ने इसे “विभाजनकारी बयान” कहा, जबकि भाजपा समर्थकों ने इसे जनसांख्यिकी जागरूकता का प्रयास बताया। वैश्विक तुलना करें तो चीन भी अब तीन बच्चों की नीति अपना चुका है, लेकिन भारत में यह अभी स्वैच्छिक सुझाव है, कानून नहीं।
सामाजिक-राजनीतिक बहस को भी गहरा सकता है विचार
मोहन भागवत का बयान भारत में जनसांख्यिकी संकट की वास्तविक चिंताओं को उजागर करता है, लेकिन यह सामाजिक-राजनीतिक बहस को भी गहरा सकता है। भारत को ऐसी नीति की जरूरत है, जिसमें जनसंख्या का संतुलन बनाए रखने के साथ-साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, संसाधन प्रबंधन और लैंगिक समानता पर भी समान ध्यान हो।
यह बहस तभी सार्थक होगी जब इसे रचनात्मक दृष्टिकोण से देखा जाए। अन्यथा यह बयान केवल ध्रुवीकरण का मुद्दा बनकर रह जाएगा। आखिरकार, परिवार नियोजन व्यक्तिगत चुनाव होना चाहिए, न कि सामाजिक दबाव।
