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सरदार पटेल- जिन्होंने भारत को एकता के सूत्र में पिरोया

Sir  John  Strachey, a British Indian civil servant used to address his civil servants-in-training by saying, “The first and most important thing to learn about India is that there is not and never was an India.” Historian David Ludden in his book Contesting the Nation: Religion, Community, and the Politics of Democracy in India writes ‘the territory that we use to describe the landscape of Indian civilization was defined politically by the British Empire. India was never what it is today in a geographical, demographic, or cultural sense, before 1947.’ Many like Winston Churchill had predicted that post independence, India would disintegrate and fall back into the Middle Ages.

 

-आदित्य तिवारी-

एक ब्रिटिश भारतीय लोक सेवक सर जॉन स्ट्रैचे अपने प्रशिक्षु लोक सेवकों को संबोधित करते हुए कहा करते थे कि “भारत के बारे में प्रथम और सबसे महत्वपूर्ण बात यह जानने की है कि वहां कोई भारतीय नहीं है और कभी कोई भारतीय नहीं था।” इतिहासकार डेविड लड्डन ने अपनी पुस्तक ‘कंटेस्टिंग द नेशनः रिलीजन, कॉम्युनिटी एंड पॉलिटिक्स ऑफ डेमोक्रेसी इन इंडिया’ ने लिखा है कि जिस क्षेत्र को हम भारतीय सभ्यता के भू-परिदृश्य के रूप में वर्णित करते हैं, उसे यह परिभाषा ब्रिटिश साम्राज्य ने प्रदान की। भारत जो आज दिखाई देता है, वह 1947 से पहले भौगोलिक, जन-सांख्यिकीय या सांस्कृतिक अर्थ में वैसा नहीं था। विंस्टन चर्चिल जैसे अनेक आलोचकों ने भविष्यवाणी की थी कि स्वतंत्रता के बाद भारत बिखर जाएगा और फिर से मध्य काल में चला जाएगा।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत को भारी चुनौतियों को सामना करना पड़ा। उस समय के नेताओं के सामने सबसे बड़ी अग्नि परीक्षा यह थी कि राष्ट्र की सीमा रेखांकित की जाए, जिसके लोग सदियों से बिखरे पड़े थे। डाइना एल ऐक ने अपनी पुस्तक, इंडिया-ए सेक्रेड जियोग्राफी में लिखा कि भारत भूमि कई सदियों तक तीर्थ यात्रियों के केंद्र के रूप में जानी जाती रहीं। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने लिखा था कि भारत की यह एकता एक भावनात्मक अनुभव थी। डिस्कवरी ऑफ इंडिया में उन्होंने अपने उन अनुभवों को स्पष्ट किया है कि किस तरह भारत के किसानों के मन में एकत्व की भावना भरने की कवायद की गई, “मैंने उन्हें भारत को समग्र रूप में समझाने का प्रयास किया …. ये कार्य आसान नहीं थाः फिर भी इतना कठिन नहीं था। चूंकि मैंने कल्पना की थी कि हमारे प्राचीन महाकाव्य, मिथक और आख्यान के बारे में सभी जानते थे। उन्हीं की बदौलत उन्हें राष्ट्र की अवधारणा से अवगत कराया गया।”

प्रादेशिक और भावनात्मक रूप में भारत के पुनर्निर्माण का कार्य अत्यंत कठिन था। समूचा राष्ट्र एक अफरा-तफरी से गुजर रहा था। कुछ ताकतें भारत को विभाजित करना चाहती थीं। महात्मा गांधी जैसे नेताओं के लिए विभाजन के समय सबसे बड़ा सवाल यह था कि अंग्रेजों के जाने के बाद दो राष्ट्र होंगे या फिर 565 अलग-अलग राष्ट्र। ऐसे समय में भारत के पुनर्निर्माण की जिम्मेदारी लौह पुरूष सरदार वल्लभ भाई पटेल को सौंपी गई।

गिरते हुए स्वास्थ्य के बावजूद सरदार पटेल ने भारत को एक करने के बृहत प्रयोजन के प्रति कोई कोताही नहीं बरती। इस कार्य में सरदार पटेल की सहायता करने वाले वी.पी. मेनन ने अपनी पुस्तक ‘द स्टोरी ऑफ दी इंटीग्रेशन ऑफ इंडियन स्टेट्स’ में लिखा है कि “भारत एक भौगोलिक इकाई है, फिर भी अपने पूरे इतिहास में वह राजनीतिक दृष्टि से कभी एकरूपता हासिल नहीं कर सका।…. आज देश के इतिहास में पहली दफा एकल केंद्र सरकार की रिट कैलाश से कन्याकुमारी और काठियावाड़ से कामरूप (असम का पुराना नाम) तक पूरे देश को संचालित करती है। इस भारत के निर्माण में सरदार पटेल ने रचनात्मक भूमिका अदा की।”

सरदार पटेल जानते थे कि ‘यदि आप एक बेहतरीन अखिल भारतीय सेवा नहीं रखेंगे तो आप भारत को एकजुट नहीं कर पाएंगे।‘ इसलिए राज्यों के पुनर्गठन का काम प्रारंभ करने से पहले उन्होंने उन्होंने ‘स्टील फ्रेम’ या भारतीय सिविल सेवा में विश्वास व्यक्त किया। सरदार पटेल ने शाही रजवाड़ों के साथ सहमति के जरिए एकीकरण के लिए अथक रूप से कार्य किया। परंतु उन्होंने साम, दाम, दंड और भेद की नीति अपनाने में भी कोई संकोच नहीं किया। सरदार पटेल और उनके सहयोगी वी.पी. मेनन ने ‘यथास्थिति समझौतों और विलय के विलेखों’ के प्रारूप तैयार किए, जिनमें विभिन्न शासकों से अनुरोधों और मांगों को शामिल किया गया।

सरदार पटेल इस तथ्य से अवगत थे कि भारत भूमि का मात्र राजनीतिक पुनर्गठन पर्याप्त नहीं है। उनका यह मानना था कि भारत की घायल सभ्यता को दासता और दयनीयता से उभारने की आवश्यकता थी। उन्होंने भारत के लोगों में ऐसी प्रतिबद्धता पैदा की, ताकि वे विविध संस्कृतियों के साथ एक साझा लक्ष्य का अनुपालन करें। 13 नवंबर, 1947 को भारत के तत्कालीन उपप्रधानमंत्री के रूप में सरदार पटेल ने सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करने का संकल्प व्यक्त किया। कई बार बनाए और नष्ट किए गए सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार का लक्ष्य भारत का पुनर्जागरण करना था। तत्कालीन भारत के राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने मंदिर के उद्घाटन समारोह में कहा था कि “मेरा यह मानना है कि सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का कार्य उस दिन पूरा होगा, जब इसकी बुनियाद पर न केवल एक शानदार भवन खड़ा होगा बल्कि भारत की उस समृद्धि का एक महल भी बनेगा, जिसका प्राचीन सोमनाथ मंदिर एक प्रतीक था।”

सरदार पटेल ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति के पुनर्निर्माण में नायक की भूमिका अदा की। आज ज सरदार पटेल के वे शब्द अत्यंत प्रासंगिक लगते हैं, जो उन्होंने शाही रजवाड़ों को लिखे पत्र में इस्तेमाल किए थे। उन्होंने लिखा था कि “हम इतिहास के एक महत्वपूर्ण चरण में हैं। हम सब मिलकर देश को नई ऊंचाईयों पर ले जा सकते हैं। दूसरी ओर एकता के अभाव में हम अप्रत्याशित आपदाओं का शिकार हो सकते हैं। मुझे उम्मीद है कि भारतीय राज्य पूरी तरह महसूस करेंगे कि अगर हम सहयोग नहीं करते हैं और सामान्य हित में काम नहीं करते हैं तो अराजकता और अव्यवस्था हमें बर्बाद कर देंगे।….. यह हम सबका परम दायित्व है कि हम आपसी लाभप्रद संबंधों की एक विरासत छोड़ें, जो इस पवित्र भूमि को विश्व के राष्ट्रों में उचित स्थान दिला सके और इसे शांति तथा समृद्धि के स्थल में परिवर्तित कर सकें।”

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