ब्लॉगशिक्षा/साहित्य

एक संस्मरण : जनता बोली -हिन्दी हिन्दी !!! में बोलो, हमें संस्कृत वन्सकृत समझ नहीं आती

 

-गोविंद प्रसाद बहुगुणा-

अपने देश में विवादाचार्यों की कभी कमी नहीं रही। सामाजिक सद्भाव के पक्ष में यह कोई शुभ संकेत नहीं माना जा सकता I यह सूक्ति शायद सभी ने पढ़ी होगी कि “विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय । खलस्य साधोर्विपरीतमेतत् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय ॥- उसी से सम्बंधित एक दिलचस्प प्रसंग मेरे पढ़ने में आया —

I हिंदी निरुक्त के लेखक तथा हिंदी के पाणिनी के रूप में विख्यात आचार्य किशोरीदास बाजपेयी जी ने अपने एक संस्मरण में महामना मदन मालवीय जी की सदाशयता का स्मरण करते हुए लिखा था कि–

सन १९३८ में हरिद्वार में जो कुम्भ हुआ उस पर सनातनधर्मी मतावलम्बियों में दो खेमे हो गए थे , एक पक्ष मालवीय जे के साथ था, जो मर्यादा के साथ अछूतोद्धार के समर्थक थे तो दूसरा पक्ष वर्णाश्रम स्वराज्य संघ के रूप में कट्टरपंथी समर्थक था I कुम्भ के अवसर पर अछूतोद्धार आदि की समस्या पर विवाद खड़ा हो गया था I कट्टरपंथि समर्थकों के नेता थे श्री शंकराचार्य जी महाराज I सामाजिक समस्याओं पर विवाद खड़ा हो गया I नौबत यहां तक आ पहुंची कि शास्त्रार्थ करना तय हो गया I सनातन धर्म महासम्मेलन का विशाल मण्डप “भीमगोडा” के सामने सुसज्जित था I श्रीशंकराचार्य जी से मालवीय जी का शास्त्रार्थ होगा यह सुनकर भीड़ उमड़ पडी I इस शास्त्रार्थ में मध्यस्थ की भूमिका के लिए या सभापति बनने योग्य कोई मिला ही नहीं I मंच पर दो बढ़िया सिंहांसन जैसे कुर्सियां रखी गई थी-एक शंकराचार्य जी के लिए और दूसरी मालवीय जी के लिए I पहले मालवीय जी पधारे ,उन्हें कुर्सी पर बैठने के लिए कहा गया तो उन्होंने मना कर दिया – श्री शंकराचार्य जी की बराबरी पर मैं कैसे बैठूंगा ,यहां उनके चरणों में बैठूंगा I धर्म मर्यादा पर विचार करना है या उनकी बराबरी करनी है ? ऐसा कहकर वे नीचे ही मंच पर बैठ गए I शंकराचार्य जी पधारे -सोने का छत्र और चंवर ,बंदूकधारी अंगरक्षक ,सब उठकर खड़े हो गए I मालवीय जी ने झुक कर प्रणाम किया I शंकराचार्य जी सिंहासन पर विराजमान हुए छत्र और चंवर के साथ Iमालवीय जी संस्कृत अच्छी तरह बोल लेते थे I एक ने उठ कर बोला शास्त्रार्थ संस्कृत में होगा परन्तु जनता ने “हिंदी” , “हिंदी” की आवाज लगाईं I तब यह तय रहा कि शास्त्रों का भावार्थ हिंदी में समझाया जाय I अब कुछ लोगों में यह कानाफूसी शुरू हो गई कि यदि ऐसा हुआ तो शंकराचार्य का पक्ष कहीं कमजोर न हो जाय तो उन्होंने घोषणा करवा दी कि यह हार जीत का शास्त्रार्थ नहीं है , दो विभूतियों का प्रवचन जनता सुन ले और यह भी कहा कि ताली बजाकर कोई अपना मत भी प्रकट न करे, मन में समझ लेना कि क्या ठीक है Iमालवीय जी ने सहर्ष इसका अनुमोदन किया I श्री शंकराचार्य जी का भाषण हुआ जो गर्वोद्धत था। बाद में मालवीय जी उठे उन्होंने शंकराचार्य जी को प्रणाम किया और अपना भाषण शुरू किया I उनका भाषण गंभीर शास्त्रनुमोदित ,मधुर और श्रोताओं के ह्रदय को द्रवित करनेवाला था। जनता मन्त्र मुग्ध हो गई उनके चेहरों से यही झलक रहा था कि उन पर इस भाषण का क्या प्रभाव पड़ा I
(“-महामना के प्रेरक प्रसंग” से साभार टीपकर -GPB)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!