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जयंती पर विशेष : गंगा की गंदगी से दुखी थे गांधीजी

On advise of Gopal Krishna Gokhle, Gandhi ji after return from south Africa reached  Shanti Kunj to meet Ravindra nath Taigore and then visited Haridwar on April 5, 1915 to meet Munshi Ram in Gurukl Kangari. It was season of Kumbh .  As his schedule Gandhi ji met Munshi Ram and was very impressed to interact with  such a great personalities but he was very saddened to see the filth of this pilgrimage town and especially the Ganges . He was more saddened to see the moral filth than the physical filth of the Ganges. Apart from the physical filth, he did not forget to mention the moral filth, hypocrisy and superstition that he saw there in his travelogue in his handwritten diary. Gandhiji has written in his diary that… “I liked the natural scenery of Rishikesh and Lakshman Jhula very much. ……… But on the other hand, my mind was not at peace after seeing the creation of man there. Like Haridwar, in Rishikesh also people used to dirty the roads and the beautiful banks of the Ganges. They did not hesitate in spoiling the holy water of the Ganga. People going towards the forest used to sit in common places and on the roads, seeing this my heart was deeply hurt…


-जयसिंह रावत
गांधी जी जब 1915 दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद अपने मित्र चार्ली एंड्रîूज की सलाह पर शांति निकेतन में रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिलने के बाद 5 अप्रैल को कुंभ के अवसर पर माहात्मा मुन्शीराम से मिलने हरिद्वार पहुंचे तो इस तीर्थनगरी और खास कर गंगा की गंदगी को देख कर उन्हें बड़ा कष्ट हुआ। गंगा की इस भौतिक गंदगी से भी कहीं अधिक कष्ट उन्हें नैतिक गंदगी देख कर हुआ। उन्होंने वहां भौतिक गंदगी के अलावा जो नैतिक गंदगी, पाखण्ड और अन्धविश्वास देखा उसका उल्लेख वह अपनी हस्तलिखित डायरी में अपने यात्रा वृतान्त में करना नहीं भूले। गांधीजी ने डायरी में लिखा है कि…. ‘‘ऋषिकेश और लक्ष्मण झूले के प्राकृतिक दृष्य मुझे बहुत पसन्द आये। ………परन्तु दूसरी ओर मनुष्य की कृति को वहां देख चित्त को शांति न हुयी। हरद्वार की तरह ऋषिकेश में भी लोग रास्तों को और गंगा के सुन्दर किनारों को गन्दा कर डालते थे। गंगा के पवित्र पानी को बिगाड़ते हुये उन्हें कुछ संकोच न होता था। दिशा-जंगल जाने वाले आम जगह और रास्तों पर ही बैठ जाते थे, यह देख कर मेरे चित्त को बड़ी चोट पहुंची……..।

 

नमामि गंगे के तहत गंगा के किनारे सीवरेज ट्रीटमेंट प्लाण्ट्स (एसटीपी) कीएक लम्बी चेन बना दी गयी। अधिकांश गंदे नालों को टेप कर दिया गया है और छूटे हुओं का ट्रीटमेंट चल रहा है। फिर भी स्थिति यहां तक है कि गंगा का पानी पीने लायक तो रहा नहीं मगर कई स्थानों पर उसके जलचरों के लिये जीने लायक भी नहीं रह गया है। इसका कारण यह कि योजनाकारों को केवल गंगा की भौतिक गंदगी ही नजर आई और गांधी जी की उन चिन्ताओं को दरकिनार कर दिया गया जिनके निराकण के बिना गंगा की चिरस्थाई पवित्रता बहाल करना संभव नहीं है। गंगा में आर्सेनिक जैसे विषैले तत्व की मात्रा लगातार बढ़ रही है। गंगा की सहायक नदियों यमुना, रामगंगा, चंबल, गोमती-घाघरा, टोंस-कर्मनासा, गंडक-बूढ़ी गंडक, सोन, कोशी और महानंदा आदि नदियों का भी यही हाल है। भारत सरकार ने गंगा नदी के संरक्षण हेतु मई, 2015 में नमामि गंगे कार्यक्रम अनुमोदित किया था, जिसका कुल परिव्यय 20,000 करोड़ रूपए था। सरकार द्वारा राज्य सभा में दी गयी एक जानकारी के अनुसार एनएमसीजी द्वारा उसके प्रारंभ अर्थात वित्त वर्ष 2011-12 से लेकर 2018-19 में 30 जून, 2018 तक व्यय की गई राशि 4322.37 करोड़ रूपए है। इससे पहले गंगा एक्शन प्लान एक और दो में भी हजारों करोड़ खर्च हो चुके हैं।

गांधी जी ने केवल हरिद्वार और ऋषिकेश की गंदगी से ही दुखी नहीं थे बल्कि उनकी चिन्ता का विस्तार काशी तक था। गांधीजी जब 1901 के दिसम्बर में दूसरी बार भारत लौटे तो उन्हें यहां कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में भी भाग लेने का अवसर मिला। इसी दौरान वह थोड़े समय के लिये रंगून भी गये लेकिन फरबरी 1902 में वह कलकत्ता लौट आये। वहां उन्हें गोपाल कृष्ण गोखले ने देश को जानने के लिये भारत भ्रमण की सलाह दी तो वह तैयार हो गये। इसी सलाह का पालन करते हुये वह 21-22 फरबरी को कलकत्ता से राजकोट को रवाना हुये तो रास्ते में काशी, आगरा, जयपुर और पालनपुर में भी एक-एक दिन रुके। उन पर काशी की गंदगी और भिक्षुकांे का अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा। यहां के बारे में भी उन्होंने अपने यात्रा विवरण में इस तरह उल्लेख किया था।….सुबह मैं काशी उतरा। मैं किसी पण्डे के यहां उतरना चाहता था। कई ब्राह्मणों ने मुझे घेर लिया। उनमें से जो साफ सुथरा दिखाई दिया मैंने उसके घर जाना पसन्द किया। …….मैं यथा विधि गंगा स्नान करना चाहता था और तब तक निराहार रहना था। पण्डे ने सारी तैयारी कर रखी थी। मैंने पहले ही कह रखा था कि सवा रुपये से अधिक दक्षिणा नहीं दे सकूंगा। इसलिये उसी योग्य तैयारी करना। पण्डे ने बिना किसी झगड़े के बात मान ली।………बारह बजे तक पूजा स्नान से निवृत्त हो कर मैं काशी विश्वनाथ के दर्शन करने गया। पर वहां पर जो कुछ देखा मन को बड़ा दुख हुआ।….। मंदिर पर पहुंचते ही मैंने देखा कि दरवाजे के सामने सड़े हुये फूल पड़े हुये थे और उनमें से दुर्गन्ध निकल रही थी। अन्दर बढ़िया संगमरमरी फर्श था। उस पर किसी अन्धश्रद्धालु ने रुपये जड़ रखे थे; रुपयों में मैल कचरा घुसा रहता है….।’’ गांधीजी अपनी डायरी में एक जगह आगे लिखते हैं कि, ‘‘…….मैं इसके बाद भी एक दो बार काशी विश्वनाथ गया।…….किन्तु गन्दगी और हो-हल्ला जैसे के तैसे ही वहां देखे।….’’

हरिद्वार जैसे धर्मस्थलों पर भौतिक और नैतिक गंदगी के बारे में गांधी जी ने डायरी में लिखा था कि….“निसंदेह यह सच है कि हरद्वार और दूसरे प्रसिद्ध तीर्थस्थान एक समय वस्तुतः पवित्र थे। …… लेकिन मुझे कबूल करना पड़ता है कि हिन्दू धर्म के प्रति मेरे हृदय में गंभीर श्रद्धा और प्राचीन सभ्यता के लिये स्वाभाविक आदर होते हुये भी हरद्वार में इच्छा रहने पर भी मनुष्यकृत ऐसी एक भी वस्तु नहीं देख सका, जो मुझे मुग्ध कर सकती। ……. लेकिन जहां एक ओर गंगा की निर्मल धारा ने और हिमाचल के पवित्र पर्वत-शिखरों ने मुझे मोह लिया, वहां दूसरी ओर मनुष्य की करतूतों को देख मेरे हृदय को सख्त चोट पहुंची और हरद्वार की नैतिक तथा भौतिक मलिनता को देख कर मुझे अत्यंत दुख हुआ। इस बार की यात्रा में भी मैंने हरद्वार की इस दशा में कोई ज्यादा सुधार नहीं पाया। पहले की भांति आज भी धर्म के नाम पर गंगा की भव्य और निर्मल धार गंदली की जाती है। गंगा तट पर, जहां पर ईश्वर-दर्शन के लिये ध्यान लगा कर बैठना शोभा देता है, पाखाना-पेशाब करते हुये असंख्य स्त्री-पुरुष अपनी मूढ़ता और आरोग्य के तथा धर्म के नियमों को भंग करते हैं। तमाम धर्म-शास्त्रों में नदियों की धारा, नदी-तट, आम सड़क और यातायात के दूसरे सब मार्गों को गंदा करने की मनाही है। ………यह तो हुयी प्रमाद और अज्ञान के कारण फैलने वाली गंदगी की बात। धर्म के नाम पर जो गंगा-जल बिगाड़ा जाता है, सो तो जुदा ही है। ….विधिवत् पूजा करने के लिये मैं हरद्वार में एक नियत स्थान पर ले जाया गया। जिस पानी को लाखों लोग पवित्र समझ कर पीते हैं उसमें फूल, सूत, गुलाल, चावल, पंचामृत वगैरा चीजें डाली गयीं। जब मैंने इसका विरोध किया तो उत्तर मिला कि यह तो सनातन् से चली आयी एक प्रथा है। इसके सिवा मैंने यह भी सुना कि शहर के गटरों का गंदला पानी भी नदी में ही बहा दिया जाता है, जो कि एक बड़े से बड़ा अपराध है…..।

गांधीजी ने अपनी डायरी में लिखा है कि जब हरिद्वार कुम्भ में वह पहुंचे थे तो उन्हें बताया गया कि वहां 17 लाख श्रद्धालु उस बार पहुंचे थे। लेकिन अब तो करोड़ों लोग 24 घटों में हरिद्वार तथा इलाहाबाद के घाटों पर पहुंच रहे हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद कुंभ में 7 करोड़ तथा उत्तराखण्ड सरकार ने 9 करोड़ लोगों के जमा होने का दावा किया था। इनके अलावा सालभर स्नान पर्व आते रहते हैं जिनमें करोड़ों स्नानार्थी गंगा तटों पर पहुंचते हैं। डेढ से लेकर दो करोड़ तक कांवडिये हर साल गंगाजल भरने आते हैं जो कि खुले में गंगा किनारे शौचादि करते हैं। जब तक इतने लोगों को और खास कर आश्रम संचालकों को गंगा के प्रति नैतिक जिम्मेदारी से आगाह नहीं किया जाता तब तक गंगा की निर्मलता की कल्पना नहीं की जा सकती।

जयसिंह रावत
पत्रकार/लेखक
9412324999

jaysinghrawat@gmail.com

 

 

 

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