हिमाचल प्रदेश के स्थापना दिवस पर विशेष: जब उत्तराखण्ड नहीं बन सका ग्रेटर हिमाचल
-जयसिंह रावत
हिमाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा 25 जनवरी, 1971 को मिला। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान जहां ब्रिटिश भारत में कांग्रेस सक्रिय थी वहीं 560 से अधिक देशी रियासतों के लिये कांग्रेस की ही अनुसांगिक संस्था अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद ( ऑल इंडिया स्टेट्स पीपुल्स कान्फ्रेंस) को सक्रिय किया गया था, जिसके पहले अध्यक्ष पंडित जवाहरलाल नेहरू थे। इस संगठन में सभी रियासतों के प्रजामंडल शामिल थे। इन प्रजामंडलों पर नियंत्रण के लिये कांग्रेस ने परिषद के ही अधीन एक उप संगठन ” हिमालयन हिल स्टेट रीजनल काउंसिल” ( HHSRC) बना रखी थी. जिसमें उत्तराखण्ड की टिहरी रियासत भी शामिल थी जो कि आकार और जनसंख्या के अनुसार सबसे बड़ी रियासत थी। इसके शासक को महाराजा का दर्जा हासिल था। इसलिये 1948 में आज के हिमाचल की 28 रियासतों को मिला कर बने केन्द्र शासित हिमाचल प्रदेश में टिहरी को भी शामिल किया जा सकता था। वैसे भी भौगोलिक और सांस्कृतिक समानता के चलते टिहरी को हिमाचल में ही बनाये रखने की मांग भी एक बड़े वर्ग द्वारा की जा रही थी। लेकिन राजनीतिक कारणों से डा0 यशवन्त सिंह परमार ने टिहरी प्रजामंडल को किनारे करने के लिये एक अलग “शिमला हिल स्टेट कांउसिल ” का गठन करा दिया था और अपने प्रभाव का प्रयोग कर ” हिमालयन हिल स्टेट रीजनल काउंसिल” को एक तरह से हासिये पर ला दिया था। इसका कारण डा० परमार 10 जून 1947 को हिमालयन हिल स्टेट्स काउंसिल की कार्यकारिणी के चुनाव परिपूर्णानन्द पैन्यूली से चुनाव हर गए थे । इस तरह टेहरी प्रजामण्डल राजनीतिक दृष्टि से सबसे बड़ा खतरा बन गया था।

पहाड़ी रियासतों पर नियंत्रण रखने के लिये ब्रिटिश शासन द्वारा “पंजाब हिल स्टेट एजेंसी” की स्थापना 1933 में की गयी थी। तब मूल पंजाब प्रान्त तो लेफ्टिनेंट गवर्नर के अधीन था जबकि ” पंजाब हिल स्टेट्स ऐजेंसी” सीधे गवर्नर जनरल के अधीन थी, जिसका मुख्यालय शिमला था। इस पॉलिटिकल ऐजेंसी के तहत उस समय आज के जम्मू.कश्मीर और हिमाचल प्रदेश के भूभाग थे। बाद में “शिमला हिल स्टेट्स सब रीजनल काउंसिल’’ समूह भी अस्तित्व में आया। ” शिमला हिल स्टेट्स सब रीजनल काउंसिल” का नियंत्रण डिप्टी कमिश्नर के पास होता था। महाराजा सुदर्शन शाह को 1815 में आधे गढ़वाल की सत्ता वापस मिलने पर देहरादून का अंग्रेज अफसर और फिर कुमाऊं के कमिश्नर ही टिहरी रियासत के पॉलिटिकल ऐजेंट हुआ करते थे। इसी क्रम में सन् 1830 से लेकर 1840 तक ले0 कर्नल हैदर यंग हर्सी टिहरी का पॉलिटिकल ऐजेंट रहा। हर्सी जौनसार बावर परगने का भी प्रशासक था। शुरू में रवांईं अंग्रेजों ने अपने पास ही रखी हुयी थी लेकिन 1824 में उसे भी टिहरी नरेश को सौंप दिया गया। 26 दिसम्बर 1842 को देहरादून स्थित पॉलिटिकल ऐजेण्ट की व्यवस्था समाप्त कर कुमाऊं के कमिश्नर को टिहरी की राजनीतिक ऐजेंसी सौंपी गयी। (जीआरसी विलियम्स मेम्वॉयर्स ऑफ दून) उसके पूर्व देहरादून में बैठा अंग्रेज अफसर ही काफी समय तक टिहरी का पॉलिटिकल ऐजेंट हुआ करता था। टिहरी रियासत बरेली के कमिश्नर के अधीन भी रही। उसके बाद इसे सन् 1947 तक राजनीतिक निगरानी के लिये ” पंजाब हिल स्टेट्स ऐजेंसी” के तहत रखा गया। इस ऐजेंसी के तहत शुरू में कांगड़ा, गुलेर, जास्वन, सिबा, दातापुर, नूरपुर, चम्बा, सुकेत, मण्डी, कुल्लू, लाहौल, स्पीति, कुटलहर, बांघल, बिलासपुर, मनकोट, चनेहनी, बन्दराटा, बसोहली, भद्रवाह, भादू, कस्तवाड़, राजौरी, पुंछ, भिम्बर, और खरी.खरियाली रियासतें थीं। टिहरी रियासत “हिमालयन हिल स्टेट्स रीजनल काउंसिल” तथा “पंजाब हिल स्टेट्स ऐजेेंसी” की एकमात्र रियासत थी जिसका विलय संयुक्त प्रान्त में हुआ। इस रीजनल काउंसिल की बाकी सारी रियासतें क्रमबद्ध ढंग से हिमाचल प्रदेश में शामिल हुयीं।
सर्व प्रथम 8 मार्च 1948 को ” शिमला हिल्स” की 27 पहाड़ी रियासतों को मिला कर हिमाचल प्रदेश के गठन की शुरूआत हुयी और 15 मार्च को मण्डी और सुकेत के शासकों ने भी विलयपत्र पर हस्ताक्षर कर लिये। 23 मार्च 1948 को सिरमौर के भी इसमें शामिल होने से हिमाचल में शामिल होने वाली रियासतों की संख्या 30 हो गयी। 15 अप्रैल 1948 को इसे केन्द्र शासित प्रदेश का दर्जा दे कर इसे चीफ कमिश्नर के अधीन कर दिया गया। 15 अप्रैल 1950 को कोटगढ़ और कोटखाई भी हिमाचल में मिल गये। इसी प्रकार 1 जुलाई 1954 को बिलासपुर और 1 नवम्बर 1966 को कांगड़ा, कुल्लू, लाहुल -स्पीति, ऊना, शिमला, नालागढ़, डलहौजी, और बदलोह के पहाड़़ी क्षेत्रों को भी हिमाचल में मिला दिया गया। 25 जनवरी 1971 को हिमाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा मिल गया। जबकि टिहरी राज्य उत्तर प्रदेश का टिहरी जिला बन कर रह गया। 1960 में इससे उत्तरकाशी अलग हुआ।
उत्तराखण्ड को हिमाचल में मिलाने के प्रयास
टिहरी रियासत के भारत संघ के संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) में एक जिले के रूप में विलय और पंजाब हिल्स तथा शिमला हिल्स की कई पहाड़ी रियासतों को मिला कर केन्द्र शासित हिमाचल प्रदेश का गठन किये जाने के बावजूद हिमाचल के सत्यदेव बुशहरी तथा टिहरी के परिपूर्णानन्द पैन्यूली जैसे नेताओं ने हिमाचल और उत्तराखण्ड को मिला कर एक “ग्रेटर हिमाचल” या विशाल हिमाचल के गठन का प्रयास जारी रखा। टिहरी और हिमाचल के इन नेताओं की मांग थी कि नेपाल सीमा से लेकर जम्मू.कश्मीर सीमा तक के पहाड़ी क्षेत्र का एकीकरण कर हिमाचल राज्य का शीघ्रातिशीघ्र गठन किया जाय। इस सम्बन्ध में 5 नवम्बर 1957 को देहरादून में सत्यदेव बुशहरी की अध्यक्षता में एक बैठक का आयोजन किया गया। इस बैठक में हिमाचल और उत्तराखण्ड को मिला कर श्विशाल हिमाचलश् के नाम से एक नया प्रान्त गठित करने की मांग पर जोर दिया गया। (युगवाणी 7 नवम्बर 1957) इस बैठक से पहले 1 नवम्बर 1956 को हिमाचलए उप राज्यपाल के प्रशासनाधीन केन्द्र शासित क्षेत्र बन चुका था। देहरादून बैठक से पहले 15 अगस्त 1957 को हिमाचल में एक स्वायत्तशासी क्षेत्रीय परिषद बन चुकी थी जिसे कुछ विषयों का प्रशासन सौंपा गया था और परिषद के सदस्यों का चयन भी विधानसभा के सदस्यों की तरह किया गया था। इस परिषद के अध्यक्ष ठाकुर कर्मसिंह बने थे। (हिमप्रस्थ- अप्रैल 1998) लेकिन इससे पहले ही फैजल अली की अध्यक्षता वाला राज्य पुनर्गठन आयोग अपनी रिपोर्ट केन्द्र सरकार को सौंप चुका था।
बहरहाल “विशाल हिमाचल” या “ग्रेटर हिमाचल” के गठन के लिये एक मुहिम छेड़ने के लिये देहरादून बैठक में एक संयोजक समिति का गठन किया गया जिसमें परिपूर्णानन्द पैन्यूली, डा0 दुर्गा प्रसाद, ठा0कृष्ण सिंह और गोविन्द सिंह नेगी को सभा द्वारा सर्वसम्मति से चुना गया। इस बैठक के बाद “विशाल हिमाचल” के गठन की मांग को लेकर हिमाचल प्रदेश के मण्डी में 18 एवं 19 फरबरी 1958 को “विशाल हिमालयन सम्मेलन” का आयोजन किया गया जिसमें हिमाचल और उत्तराखण्ड में सक्रिय राजनीतिक दलों, मजदूर संगठनों, वकीलों, वर्तमान तथा पूर्व सांसद एवं विधायकों और पूर्व नरेशों को आमंत्रित किया गया था। डा0 बृजमणि शिलवाल (हिमाचल और उत्तराखण्डए सांझी सांस्कृतिक बिरासत ) के अनुसार सन् 1942 में बिलासपुर और 1946 में मण्डी में चम्बा से लेकर गढ़वाल तक की 48 रियासतों की ऐतिहासिक बैठकें हुयी। इन बैठकों में उपस्थित लोगों ने वृहद पहाड़ी प्रदेश के राजनीतिक एवं प्रशासनिक स्वरूप की परिकल्पना की थी। इस निमित्त पहाड़ी नेताओं के प्रयास चलते रहे और सन् 1950 में दिल्ली में अल्मोड़ा से कांगड़ा तक एक हिमालयी राज्य की स्थापना के निमित्त एक समिति का गठन किया गया, जिसका नाम “पर्वतीय विकास जन समिति” रखा गया। डा0 शिलवाल के इस दावे में 48 रियासतों का उल्लेख किया गया है। (यह संख्या कहीं अधिक लग रही है।) वास्तव में टिहरी समेत उन हिमालयी रियासतों की संख्या लगभग 35 थी। चूंकि उस समय पिथौरागढ़ भी अल्मोड़ा जिले का ही अंग थाए इसलिये पूर्व की ओर सीमान्त जिला अल्मोड़ा ही माना गया।
(नोट:- इस आलेख के अंश पत्रकार एवं लेखक जयसिंह रावत की पुस्तक ” टिहरी राज्य के ऐतिहासिक जनविद्रोह” से उनकी अनुमति से लिये गये हैं। इसलिये इस आलेख का किसी भी रूप में बिना अनुमति उपयोग कापीराइट का उल्लंघन और अपराध होगा। –उषा रावत, एडमिन एवं मुख्य संपादक)